सरकार और रिजर्व बैंक के तमाम प्रयासों के बावजूद रियल एस्टेट क्षेत्र की खस्ता हालत में सुधार के कोई खास संकेत नहीं मिले हैं।
ऐसे में बैंकों ने अब रियल एस्टेट डेवलपरों को अपने तैयार मकानों की कीमतें घटाकर उनकी जल्द से जल्द बिक्री करने का सुझाव दिया है।
बैंकों की इस ताजा पहल पर बैंकों के कुछ अधिकारियों ने बताया कि बिल्डरों को बैंकों से तभी नए सिरे से कर्ज मिल सकते हैं जब वे पहले से तैयार मकानों की बिक्री करते हैं। नए कर्ज लेने के लिए इसे एक पूर्व शर्त माना जा सकता है।
खासकर सरकारी बैंक बिल्डरों को अपनी मौजूदा कीमतों को माहौल को देखते हए तय करने को कह रहा है क्योंकि इस बात की खासी चिंता है कि रियल एस्टेट कंपनियां भुगतान की किस्तों में फेर-बदल किए जाने के बाद भी अपने पास तैयार परियोजनाओं को रखे हुए हैं।
बैंकरों ने कहा कि यह रणनीति खासकर उन रियल एस्टेट डेवलपरों के लिए शुरू की गई है जिनकी सालाना बिक्री 200 करोड़ रुपये तक की होती है। इस बाबत एक सरकारी बैंक के वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि छोटे बिल्डरों के अपने कीमतों पर अड़े रहने की संभावना कम होती है।
हम इनके खातों की पुनर्संरचना करने से पहले कीमतों को कम करने की सलाह दे रहे हैं जिससे उनको अपनी पुरानी परियोजनाओं को निपटाने में मदद मिलेगी जो इनके अस्तित्व के लिए बहुत जरूरी है।
इसी बाबत एक अन्य अधिकारी ने बताया कि बैंक बिल्डरों को कारोबार करने और कीमतों को कम करने का निर्देश नहीं दे सकता है, इस बात को देखते हुए बैंक उनको मौजूदा कीमतों के आधार पर उनमानित नकदी के प्रवाह को मौजूदा माहौल के अनुरूप करने की सलाह दे रहे हैं।
इस अधिकारी ने बताया कि पुनर्संरचना करने से पहले हम इस बात पर पर गौर करेंगे कि कोई भी परियोजना डेवलपर द्वारा तय कीमतों पर बेची जा सकती है या नहीं।
अगर ऐसा नहीं है तो जब तक कीमतों में कमी नहीं की जाती तब तक पुनर्संरचना प्रक्रिया के आगे बढाने का कुछ मतलब नहीं रह जाता है। इसके अलावा बैंक मोरेटोरियम अवधि को 9-12 महीनें की अवधि से घटाकर मात्र 3 महीने की अवधि तक करने के बारे में सोच रहे हैं।
इसे कीमतों में कमी कर बिक्री में बढ़ोतरी करने के रूप में देखा जा रहा है। मुंबई स्थित एक रियल एस्टेट कंपनी ऑर्बिट कॉर्पोरेशन के वित्त और रणनीति प्रमुख रामश्रय यादव का कहना है कि ऐसा करने से बिल्डरों पर अपनी परियोजनाओं को जल्दी से बेचने का अप्रत्यक्ष दबाव पड़ता है।
लोक हाउसिंग के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक ललित सी गांधी का कहना है कि कुछ ग्राहकों ने देखो और इंतजार करने की रणनीति अख्तियार कर ली है जिससे मांग में और ज्यादा कमी आ गई है। ऐसे बिल्डर जो कर्ज के बोझ तले दबे हैं, वे आधे-अधूरे मन से किस्तों के भुगतान को टालने के लिए पुनर्संरचना प्रक्रिया का लाभ उठाने के लिए दामों में कमी कर रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि दिसंबर 2008 में भारतीय रिजर्व बैंक ने बैंकों को रियल एस्टेट को दिए ऋणों की पुनर्संरचना करने की छूट दी थी जिससे डेवलपरों को मौजूदा संकट से निकल पाने में आसानी हो।
इस साल जून तक इन कर्जों की पुनर्संरचना करने के प्रति उत्साहित करने के लिए आरबीआई ने बैंकों को इन कर्जों को गैर-निष्पादित धन की जगह स्टैंडर्ड ऐसेट के रूप में देखने की सलाह दी थी।