प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार
बिहार विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) धमाकेदार जीत की ओर बढ़ रही है। बिहार में NDA ने एक बार फिर साबित कर दिया कि सामाजिक गठजोड़, चुनावी रणनीति और मजबूत नेतृत्व का सही मिश्रण किसी भी राजनीतिक समीकरण को पलट सकता है। राज्य में NDA की इस बड़ी कामयाबी के पीछे कई वजहें काम कर रही थीं, जो समय पर एक साथ जुड़ गईं। महिलाओं की रिकॉर्ड भागीदारी से लेकर जातीय समीकरणों की मजबूती तक, इन फैक्टर्स ने NDA को मजबूती दी। चुनावी नतीजों ने दिखाया कि विपक्ष की कमजोरियां भी NDA की ताकत बन गईं। आइए, NDA की जीत के 5 प्रमुख कारणों पर नजर डालते हैं।
इस चुनाव में महिलाओं की वोटिंग ने एक नया इतिहास रचा। कई जिलों में महिलाओं ने पुरुषों से ज्यादा उत्साह दिखाया, जिसका सीधा फायदा NDA को मिला। किशनगंज में महिलाओं का मतदान पुरुषों से 19.5 प्रतिशत अधिक रहा, जबकि मधुबनी में 18.4 प्रतिशत, गोपालगंज में 17.72 प्रतिशत, अररिया में 14.43 प्रतिशत, दरभंगा में 14.41 प्रतिशत और मधेपुरा में 14.24 प्रतिशत का अंतर देखा गया। इसके अलावा सिवान, पूर्णिया, शियोहर, सीतामढ़ी, सहरसा, पूर्वी चंपारण, पश्चिम चंपारण, खगड़िया, समस्तीपुर और बांका जैसे जिलों में भी महिलाओं ने पुरुषों से 10 प्रतिशत से ज्यादा वोट डाले।
यह ट्रेंड संयोग नहीं था। नीतीश कुमार की सरकार ने महिलाओं और अत्यंत पिछड़े वर्ग (EBC) परिवारों के लिए कई कल्याणकारी योजनाएं चलाईं, जैसे 10 हजार रुपये की नकद मदद और जीविका दीदी कार्यक्रम। इनसे महिलाओं में सशक्तिकरण की भावना मजबूत हुई, जो वोटों में बदल गई। EBC समुदाय भी इन योजनाओं से जुड़ा रहा, जिसने NDA को एक ठोस वोट बैंक दिया। चुनावी विश्लेषकों का मानना है कि यह गठजोड़ NDA की रणनीति का मुख्य स्तंभ बना, खासकर ग्रामीण इलाकों में जहां महिलाएं परिवार की फैसलों में बड़ी भूमिका निभाती हैं।
NDA ने जातीय समीकरणों को इतनी कुशलता से संभाला कि विपक्ष का कोई भी गणित काम नहीं आया। परंपरागत ऊपरी जातियां तो NDA के साथ मजबूती से खड़ी रहीं ही, OBC, EBC और दलितों का एक बड़ा हिस्सा भी इसके साथ जुड़ गया। यही गठबंधन NDA की ताकत बना, जो राज्य की जटिल जातीय संरचना में फिट बैठा।
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बिहार की राजनीति में जाति हमेशा से निर्णायक रही है, लेकिन इस बार NDA ने इसे अपने पक्ष में मोड़ा। विभिन्न जातीय समूहों के बीच संतुलन बनाए रखना आसान नहीं था, लेकिन NDA के सहयोगी दलों ने मिलकर इसे संभव बनाया। इससे विपक्ष की जातीय अंकगणित बिखर गई, और NDA को बहुमत की राह आसान हो गई। यह गठजोड़ न सिर्फ वोटों की संख्या बढ़ाने में सफल रहा, बल्कि विभिन्न समुदायों में विश्वास भी पैदा किया।
पिछले 2020 चुनाव में दिखी कमियों ने NDA को सबक दिया, जिसका असर इस बार साफ नजर आया। गठबंधन ने अपनी चुनावी मशीनरी को पूरी तरह से नया रूप दिया। सहयोगी दलों के बीच तालमेल बढ़ा, संदेश स्पष्ट हुए और बूथ स्तर पर प्रबंधन ज्यादा कुशल बना।
भारतीय जनता पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड), लोक जनशक्ति पार्टी, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेकुलर) और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने मिलकर काम किया, जो पहले की तुलना में ज्यादा एकजुट दिखा। अभियान के दौरान संदेशों की सटीकता और जमीन पर पहुंच ने NDA को बढ़त दी। यह बदलाव चुनावी रणनीति का एक बड़ा हिस्सा था, जिसने छोटी-छोटी गलतियों को रोका और वोटरों तक पहुंच को मजबूत किया।
NDA की एकजुटता के मुकाबले महागठबंधन की कमजोर कड़ी साफ नजर आई। कई सीटों पर दोस्ताना लड़ाई और वोट ट्रांसफर की कमी ने विपक्ष को नुकसान पहुंचाया। एकीकृत रणनीति की कमी से महागठबंधन का अभियान बिखरा-बिखरा लगा, जिसका फायदा NDA को मिला।
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चुनावी मैदान में जहां NDA ने समन्वित तरीके से काम किया, वहीं विपक्ष के दलों में आपसी समझ की कमी दिखी। इससे वोटरों में भ्रम पैदा हुआ और NDA को प्राकृतिक लाभ मिला। यह स्थिति बिहार की राजनीति में अक्सर देखी जाती है, लेकिन इस बार इसका असर निर्णायक रहा।
महागठबंधन को उम्मीद थी कि मुस्लिम-यादव वोट बैंक मजबूती से उसके साथ रहेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। सीमांचल इलाके में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन की एंट्री ने मुस्लिम वोटों को बांट दिया, जिससे महागठबंधन की मजबूत सीटों पर भी असर पड़ा। यादव वोटों में भी विविधता आई, और राष्ट्रीय जनता दल का कोर बेस थोड़ा कमजोर हुआ।
यह बिखराव विपक्ष की रणनीति पर भारी पड़ा। पारंपरिक वोट बैंक की एकजुटता न होने से महागठबंधन की संभावनाएं कमजोर हो गईं, जबकि NDA ने अन्य समुदायों से मजबूत समर्थन हासिल किया। यह बदलाव बिहार की राजनीतिक गतिशीलता को दर्शाता है, जहां वोट बैंक अब पहले की तरह स्थिर नहीं रह गए हैं।