हाल ही में अमेरिका और चीन के बीच फिर से तनाव बढ़ गया, और इस बार कारण ‘रेयर अर्थ मेटल्स’ है। ये ऐसे खास धातु होते हैं जिनके बिना इलेक्ट्रिक गाड़ियां, मोबाइल फोन, पवन टरबाइन, सैटेलाइट और मिसाइल जैसी चीजें बनाना मुश्किल है। अप्रैल में चीन ने कहा कि वह कुछ खास रेयर अर्थ मेटल्स जैसे नीओडिमियम और डाइस्प्रोसियम का एक्सपोर्ट रोक रहा है, क्योंकि उसे “राष्ट्रीय सुरक्षा और पर्यावरण की चिंता” है। इस पर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तीखी प्रतिक्रिया दी और कहा कि चीन इन जरूरी मेटल्स को “रणनीतिक हथियार” की तरह इस्तेमाल कर रहा है।
रेयर अर्थ मेटल्स (Rare Earth Metals) दुनिया के लिए बेहद ज़रूरी हो चुके हैं। इनकी मांग लगातार बढ़ रही है, लेकिन इन पर चीन की जबरदस्त पकड़ है। दुनिया भर के देश जैसे अमेरिका, यूरोप और भारत बार-बार चीन से इन मेटल्स के एक्सपोर्ट पर लगे प्रतिबंध हटाने की अपील कर रहे हैं, लेकिन चीन अपने फैसले पर अड़ा हुआ है।
रेयर अर्थ मेटल्स कुल 17 प्रकार की धातुएं होती हैं, जिनमें 15 लैंथेनाइड्स, स्कैंडियम और यट्रियम शामिल हैं। ये नाम जितने तकनीकी लगते हैं, इनकी भूमिका भी उतनी ही खास होती है। ये मेटल्स मोबाइल फोन, टेलीविजन, पवन टरबाइन, इलेक्ट्रिक वाहनों की मोटर, रडार सिस्टम, मिसाइल और यहां तक कि MRI जैसी मेडिकल मशीनों में भी इस्तेमाल होते हैं। ये इतनी कम मात्रा में लगते हैं कि दिखते नहीं, लेकिन इनके बिना तकनीक का पूरा ढांचा अधूरा रह जाता है। इसलिए इन्हें ‘इंडस्ट्रियल विटामिन्स’ कहा जाता है- जैसे शरीर को थोड़ी मात्रा में विटामिन की ज़रूरत होती है, वैसे ही आधुनिक टेक्नोलॉजी को रेयर अर्थ मेटल्स की।
Fortune Business Insights की एक नई रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में रेयर अर्थ मेटल्स की मांग बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। रिपोर्ट के अनुसार, साल 2024 में इस बाजार का आकार करीब 6.69 अरब डॉलर (यानि लगभग 55 हजार करोड़ रुपये) था। लेकिन अगले आठ सालों में यह बाज़ार तेजी से बढ़ेगा और 2032 तक इसका आकार 17.06 अरब डॉलर (यानि करीब 1.4 लाख करोड़ रुपये) तक पहुंच सकता है।
इसका मतलब यह है कि रेयर अर्थ मेटल्स का कारोबार हर साल औसतन 12.4% की रफ्तार से बढ़ेगा, जो किसी भी खनिज या माइनिंग सेक्टर के लिए बहुत तेज़ ग्रोथ मानी जाती है।
इस बढ़त की सबसे बड़ी वजहें हैं – इलेक्ट्रिक गाड़ियों, पवन ऊर्जा (विंड एनर्जी), मोबाइल, कंप्यूटर और रक्षा उपकरणों में रेयर अर्थ मेटल्स का लगातार बढ़ता इस्तेमाल। खास तौर पर इनमें इस्तेमाल होने वाले परमानेंट मैग्नेट्स और कैटलिस्ट्स की डिमांड बहुत तेज़ी से बढ़ रही है।
रिपोर्ट बताती है कि आने वाले समय में जो देश इन मेटल्स का उत्पादन और प्रोसेसिंग खुद कर पाएंगे, वे दुनिया की नई टेक्नोलॉजी सप्लाई चेन में सबसे अहम भूमिका निभाएंगे। यही वजह है कि अमेरिका, जापान, यूरोप और अब भारत जैसे देश इस सेक्टर में तेजी से काम कर रहे हैं।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत ने 2019-20 से 2023-24 तक कई देशों से रेयर अर्थ मेटल्स और उनसे जुड़े यौगिक (compounds) मंगवाए हैं। इन मेटल्स को दो हिस्सों में बांटा गया है। पहला, 28053000 HS कोड के तहत “Rare-Earth Metals” और दूसरा, 2846 HS कोड के तहत “Rare-Earth Metal Compounds”
रेयर अर्थ मेटल्स की सीधी सप्लाई की बात करें तो भारत ने सबसे ज़्यादा चीन से मंगवाया है। 2019-20 में चीन से 437 टन आया, और 2023-24 में ये आंकड़ा 699 टन तक पहुंच गया। इसके अलावा जापान, हांगकांग, अमेरिका, रूस, यूके, और मंगोलिया जैसे देश भी कम मात्रा में सप्लाई करते रहे हैं। 2023-24 में भारत ने कुल मिलाकर 1,185 टन रेयर अर्थ मेटल्स मंगवाए।
वहीं, जब बात Rare-Earth Compounds की आती है, तो इस कैटेगरी में भी चीन सबसे बड़ा सप्लायर रहा है। भारत ने 2019-20 में चीन से 434 टन यौगिक मंगवाए थे, जो 2023-24 में लगभग 780 टन पर पहुंच गए। रूस, जापान, दक्षिण कोरिया, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, फ्रांस और अमेरिका भी लगातार भारत को ये कंपाउंड सप्लाई करते रहे हैं। 2023-24 में भारत ने कुल मिलाकर 1,086 टन रेयर अर्थ कंपाउंड आयात किए।
अगर दोनों कैटेगरीज को मिलाकर देखा जाए, तो 2023-24 में भारत ने कुल 2,270 टन रेयर अर्थ मेटल्स और कंपाउंड्स का आयात किया, जो पिछले सभी वर्षों की तुलना में सबसे ज़्यादा है।
साल | रेयर अर्थ मेटल्स (HS Code 28053000) | प्रमुख सप्लायर देश (मेटल्स) | रेयर अर्थ कंपाउंड्स (HS Code 2846) | प्रमुख सप्लायर देश (कंपाउंड्स) | कुल आयात (टन) |
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2019-20 | 437 टन | चीन, जापान, हांगकांग | 434 टन | चीन, रूस, जापान, दक्षिण कोरिया | 871 टन |
2020-21 | लगभग 480 टन | चीन, अमेरिका | लगभग 500 टन | चीन, जर्मनी, रूस | लगभग 980 टन |
2021-22 | लगभग 525 टन | चीन, यूके, मंगोलिया | लगभग 610 टन | चीन, जापान, फ्रांस | लगभग 1,135 टन |
2022-23 | लगभग 610 टन | चीन, रूस, अमेरिका | लगभग 680 टन | चीन, कोरिया, जर्मनी | लगभग 1,290 टन |
2023-24 | 699 टन | चीन, जापान, अमेरिका, मंगोलिया | 780 टन | चीन, रूस, ऑस्ट्रिया, अमेरिका | 2,270 टन |
सोर्स: PIB
Maximize Market Research की एक रिपोर्ट के अनुसार, रेयर अर्थ मेटल्स के वैश्विक बाजार में कई बड़ी कंपनियों का दबदबा है, जो इन खनिजों की खोज, खनन, प्रोसेसिंग और सप्लाई का काम करती हैं। इस सेक्टर में चीन सबसे आगे है, लेकिन चीन के बाहर भी कुछ मजबूत खिलाड़ी उभर रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, चीन की सरकारी कंपनियां जैसे China Minmetals Rare Earth और China Northern Rare Earth दुनिया के सबसे बड़े प्रोड्यूसर हैं। ये दोनों कंपनियां न सिर्फ रेयर अर्थ मेटल्स का खनन करती हैं, बल्कि उनकी प्रोसेसिंग और एक्सपोर्ट का भी बड़ा हिस्सा कंट्रोल करती हैं।
चीन के बाद ऑस्ट्रेलिया की कंपनियां इस बाज़ार में बड़ी भूमिका निभा रही हैं। इनमें सबसे अहम नाम है Lynas Corporation, जो चीन के बाहर सबसे बड़ी रेयर अर्थ मेटल निर्माता मानी जाती है। इसके अलावा Alkane Resources और Arafura Resources भी ऑस्ट्रेलिया की अहम कंपनियां हैं, जो तेजी से अपने प्रोजेक्ट्स का विस्तार कर रही हैं।
कनाडा भी इस सेक्टर में सक्रिय है। यहां की कंपनियां जैसे Avalon Advanced Materials, Canada Rare Earth, और Rare Element Resources अपने भंडारों और नई तकनीक की मदद से ग्लोबल सप्लाई चेन में जगह बना रही हैं। वहीं जापान की Shin-Etsu Chemical Co. Ltd. रेयर अर्थ से चुंबक और केमिकल्स बनाने के लिए जानी जाती है। यह कंपनी इलेक्ट्रॉनिक्स और ऑटो इंडस्ट्री में अहम सप्लायर है। अमेरिका की बात करें तो वहां की Molycorp Inc कभी दुनिया की बड़ी रेयर अर्थ कंपनियों में थी और अब फिर से एक्टिव होने की कोशिश कर रही है। साथ ही Eutectix जैसी कंपनियां खास तरह के रेयर अर्थ अलॉय और कंपोनेंट्स बनाती हैं। इसके अलावा Iluka Resources जैसी कंपनियां भी इस इंडस्ट्री में तेजी से आगे बढ़ रही हैं, जो ऑस्ट्रेलिया में ज़िरकोन और रेयर अर्थ का खनन करती हैं।
रेयर अर्थ मेटल्स कई देशों में पाए जाते हैं, लेकिन चीन ने इनकी खनन, प्रोसेसिंग और उपयोग तक की पूरी प्रक्रिया पर लंबा निवेश किया है। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) के अनुसार, आज चीन अकेले दुनिया की 60% से ज़्यादा खनन और 90% से अधिक रिफाइनिंग करता है। उसने सस्ती कीमत, सरकारी सब्सिडी और ढीले पर्यावरण नियमों के सहारे पूरी दुनिया में सबसे सस्ता और तेज़ सप्लायर बनने की रणनीति अपनाई। इसके चलते अमेरिका, यूरोप और अन्य देशों ने अपनी खदानें और प्रोसेसिंग यूनिट्स बंद कर दीं और चीन पर निर्भर हो गए। अब जब चीन सप्लाई रोकता है या सीमित करता है, तो पूरी दुनिया की सप्लाई चेन पर असर पड़ता है।
भारत के पास भी रेयर अर्थ मेटल्स का खजाना है, खासकर दक्षिण और पूर्वी भारत के तटीय इलाकों में, जैसे ओडिशा, आंध्र प्रदेश, केरल और तमिलनाडु। यहां समुद्री रेत में मोनेज़ाइट नाम का खनिज पाया जाता है, जिससे कई प्रकार के रेयर अर्थ निकाले जा सकते हैं। लेकिन भारत में यह काम फिलहाल सिर्फ सरकारी कंपनी IREL (India) Limited को करने की इजाज़त है, क्योंकि मोनेज़ाइट में थोरियम भी होता है जिसे परमाणु ऊर्जा अधिनियम के तहत “नियंत्रित पदार्थ” माना गया है। निजी कंपनियां इसमें भाग नहीं ले सकतीं। इसके अलावा, भारत में बड़े स्तर पर न तो रिफाइनिंग की सुविधा है और न ही चुंबक या अन्य रेयर अर्थ उत्पाद बनाने की यूनिट्स हैं। इसी वजह से हम इन मेटल्स को खनन करने के बाद भी विदेशों में प्रोसेस कराते हैं और उनके तैयार उत्पाद खरीदते हैं।
CareEdge Ratings के असिस्टेंट डायरेक्टर मधुसूदन गोस्वामी का कहना है कि भारत में रेयर अर्थ की कमी सिर्फ सप्लाई चेन की परेशानी नहीं है, बल्कि यह एक रणनीतिक चेतावनी है। चीन के एक्सपोर्ट लाइसेंस नियमों की वजह से भारत की EV इंडस्ट्री की कमज़ोरियां सामने आ गई हैं। गोदामों में स्टॉक खत्म हो रहा है और ज़रूरी मंजूरी भी अटकी पड़ी है। उन्होंने कहा कि अगर किसी एक देश पर इतना निर्भर रहेंगे, तो ऐसे ही संकट बार-बार आएंगे। इसका हल है कि भारत खुद एक मजबूत Rare Earth Element (REE) सिस्टम बनाए — जिसमें रणनीतिक स्टॉक, सरकारी और निजी सेक्टर की रिसर्च और ग्लोबल पार्टनरशिप शामिल हों।
भारत सरकार अब इस चुनौती को गंभीरता से ले रही है। 2023 में “क्रिटिकल मिनरल्स स्ट्रैटेजी” और 2024 में “नेशनल क्रिटिकल मिनरल मिशन” की शुरुआत की गई। इस मिशन के तहत 34,300 करोड़ रुपये का बजट रखा गया है ताकि देश में खनिजों की खोज, प्रोसेसिंग तकनीक और रीसाइक्लिंग सिस्टम को मज़बूत किया जा सके। साथ ही, इलेक्ट्रिक वाहन और इलेक्ट्रॉनिक्स इंडस्ट्री को बढ़ावा देने के लिए PLI स्कीम के ज़रिए कंपनियों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। Geological Survey of India और MECL जैसी संस्थाएं नई खदानों की खोज में लगी हैं। लेकिन असली बदलाव तब आएगा जब निजी कंपनियों को भी खनन और रिफाइनिंग की अनुमति मिलेगी और देश में ही रेयर अर्थ मैग्नेट्स, बैटरियों और अन्य तकनीकी उत्पादों का उत्पादन बड़े पैमाने पर शुरू होगा।
अभी की स्थिति यह है कि भारत की ऑटोमोबाइल कंपनियों के पास सिर्फ 4 से 6 हफ्तों का रेयर अर्थ स्टॉक बचा है। अगर चीन से सप्लाई बहाल नहीं हुई, तो जुलाई 2025 से इलेक्ट्रिक गाड़ियों का उत्पादन रुक सकता है या नए मॉडल्स की लॉन्चिंग टल सकती है। CRISIL की रिपोर्ट के अनुसार, करीब 12 नए EV मॉडल ऐसे हैं जो खास रेयर अर्थ मोटर पर आधारित हैं। रेयर अर्थ मैग्नेट्स की कीमत भले ही एक गाड़ी की कुल लागत में 5% हो, लेकिन इनके बिना पूरी गाड़ी बनाना असंभव हो जाता है।
बहरहाल, केयरएज रेटिंग की रिपोर्ट के मुताबिक, जब तक भारत अपने खुद के स्रोत नहीं बना लेता, तब तक देश की ऑटो कंपनियां चीन से पूरी तरह से तैयार मैग्नेट्स या उनके पार्ट्स मंगवाने का रास्ता अपनाएंगी। इसका मकसद ये है कि गाड़ियों का प्रोडक्शन किसी भी हालत में न रुके। रिपोर्ट में आगे कहा गया है, मध्यम और लंबी अवधि में भारत की योजना है कि वह खुद का एक मजबूत Rare Earth Element (REE) सिस्टम खड़ा करे। इसके लिए देश में खनन, निजी कंपनियों को प्रोत्साहन, नए विकल्पों पर रिसर्च और अंतरराष्ट्रीय साझेदारियों पर ध्यान दिया जाएगा।
CareEdge Ratings की एसोसिएट डायरेक्टर आरती रॉय ने कहा कि अप्रैल 2025 में चीन ने REE एक्सपोर्ट पर जो पाबंदी लगाई है, उसने पूरी दुनिया की ऑटो इंडस्ट्री को हिला दिया है। चीन दुनिया का 70% प्रोडक्शन और 90% प्रोसेसिंग अकेले करता है। भारत ने FY24 और FY25 में अपने 90% रेयर अर्थ मैग्नेट चीन से मंगवाए। अब जब चीन ने रोक लगा दी है, तो जुलाई 2025 से भारत में इलेक्ट्रिक, हाई-एंड पेट्रोल-डीजल और हाइब्रिड गाड़ियों का प्रोडक्शन रुक सकता है। उन्होंने कहा कि अगर इस मसले का जल्दी हल नहीं निकाला गया, तो FY26 में भारत की ऑटो इंडस्ट्री को बड़ा झटका लग सकता है।