ऐसे दौर में जब लोग एक नौकरी में कम समय तक टिक रहे हों और तेजी से नौकरी बदलने का रुझान बढ़ रहा हो, वैसे में शीर्ष स्तर की पेशेवर, प्रबंधकीय नौकरियों में प्रतिभाशाली लोगों को बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है।
इन दिनों एक से अधिक कंपनी में अंशकालिक स्तर पर काम करने की नीति (मूनलाइटिंग), कंपनी छोड़कर फिर से कंपनी में वापसी करने वाले कर्मचारी (बूमरैंग इम्पलॉयी), कंपनियों के बीच एक-दूसरे के कर्मचारी को नौकरी पर रखने से जुड़े समझौते, विमानन कंपनियों के प्रमुखों के बीच रोष भरे पत्रों के आदान-प्रदान की खबरें भी सुर्खियों में है। कर्मचारियों के नौकरी में न टिकने का रुझान कंपनियों के लिए स्थायी रूप से सिरदर्द बन चुका है।
किफायती सेवाएं देने वाली नई विमानन कंपनी आकाश को पिछले महीने उस समय मुश्किलों का सामना करना पड़ा जब उसके 450 पायलटों में से 43 पायलटों ने टाटा समूह द्वारा हाल ही में अधिग्रहीत की गई एयर इंडिया एक्सप्रेस से जुड़ने के लिए अपनी नोटिस अवधि को पूरा किए बिना ही अचानक नौकरी छोड़ दी।
विमानन सेवाओं के बंद होने के डर से, आकाश के मुख्य कार्याधिकारी (सीईओ) ने एयर इंडिया एक्सप्रेस पर अपना गुस्सा जताते हुए एक पत्र लिखा और कहा कि उसने सरकारी नीतियों का उल्लंघन किया है जिसके मुताबिक छह से 12 महीने की नोटिस अवधि अनिवार्य है। (एआई एक्सप्रेस के सीईओ भी पीछे नहीं रहे और उन्होंने समान लहजे में ही इसका जवाब दिया)।
एक महीने पहले आकाश ने दिल्ली उच्च न्यायालय में गुहार लगाकर यह स्पष्ट करने की मांग की थी कि क्या नियामक, नागर विमानन महानिदेशालय (डीजीसीए) दूसरी कंपनी में जाने वाले पायलटों के खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई कर सकता है या नहीं।
डीजीसीए ने जवाब दिया कि उसके पास कंपनी और कर्मचारी के बीच हुए अनुबंध में हस्तक्षेप करने की शक्ति नहीं है। यह अजीब बात है क्योंकि नियामक के 2017 के नियमों में यह कहा गया है कि कमांडरों को एक साल और प्रथम श्रेणी के अधिकारियों को छह महीने का नोटिस देना होता है। हालांकि अदालत ने बाद में फैसला सुनाया कि डीजीसीए को कोई कार्रवाई करने से रोका नहीं गया।
विमानन कंपनियों के पायलटों को लेकर चल रही लड़ाई और सीईओ द्वारा एक-दूसरे के बारे में अपमानजनक बाते किए जाने से यह प्रकरण और भी नाटकीय हो गया है। इससे यह भी संकेत मिलते हैं कि घरेलू विमानन क्षेत्र कितना प्रतिस्पर्धी बन गया है। बड़े पैमाने पर विमानों के लिए ऑर्डर दिए जा रहे हैं जिसके साथ प्रतिस्पर्धा और भी बढ़ेगी और निश्चित रूप से इससे पायलटों को सबसे बड़ा फायदा होगा।
आप मौजूदा स्थिति की तुलना उन वर्षों से कर सकते हैं जब घरेलू विमानन क्षेत्र में सरकार के स्वामित्व वाली दो कंपनियों का दबदबा हुआ करता था। उस वक्त पायलट जब अधिक वेतन की मांग करते हुए हड़ताल पर गए तो उन्हें कई नतीजे भुगतने पड़े लेकिन अब वे अधिक वेतन देने वाली कंपनी के साथ बिना ज्यादा सोच-विचार किए हुए भी उड़ान भर सकते हैं।
विमानन क्षेत्र, एकमात्र ऐसा उद्योग नहीं है जहां प्रतिभाशाली कर्मचारियों की कमी ज्यादा महसूस की जा रही है बल्कि दिक्कत की बात यह है कि अन्य क्षेत्रों के विपरीत इसके पास इस समस्या को दूर करने के सीमित विकल्प हैं।
भारत में अन्य कंपनियों के लिए कानूनी नियम उतने पारदर्शी नहीं हैं ऐसे में वे दूसरे तरीके से प्रतिभाशाली लोगों की खोज में जुटी हैं। इन तरीकों में प्रतिस्पर्धी कंपनियों के बीच अवैध तरीके से एक-दूसरे के कर्मचारियों को नौकरी पर न रखने का समझौता भी शामिल है।
हालांकि अमेरिका में डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस (डीओजे) ने स्पष्ट रूप से कर्मचारियों को प्रतिस्पर्धी कंपनी से जुड़ने से रोकने वाले समझौते को प्रतिस्पर्धा विरोधी माना है।
उदाहरण के तौर पर वर्ष 2010 में, ऐपल, इंटेल और गूगल को एक-दूसरे के वरिष्ठ इंजीनियरों को नौकरी पर नहीं रखने के समझौते के लिए डीओजे में मुकदमे का सामना करना पड़ा जिसे पांच साल बाद लगभग 60,000 कर्मचारियों को 40 करोड़ डॉलर का भुगतान करने के साथ निपटाया गया। वर्ष 2017 में वॉल्ट डिज्नी, ड्रीमवर्क्स, पिक्सर, सोनी और अन्य कंपनियों को इन्हीं वजहों से समझौता करना पड़ा।
भारत में, रिलायंस इंडस्ट्रीज और अदाणी समूह के बीच एक-दूसरे के कर्मचारियों को नौकरी पर न रखने के समझौते ने केवल सुर्खियां बटोरी हैं, लेकिन कोई कानूनी अड़चन नहीं पैदा हुई।
जब तक भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग पूरी तरह से प्रतिबंध नहीं लगाता तब तक प्रतिस्पर्द्धी कंपनी में काम करने से रोकने से जुड़े समझौते जारी रहेंगे क्योंकि कर्मचारियों की तरफ से इस तरह के मुकदमे का प्रतिनिधित्व करने की संभावना नहीं है। इसकी वजह यह भी है कि न्याय की पूरी प्रक्रिया महंगी है और इसमें काफी वक्त लगता है। इसके अलावा इन प्रतिबंधों को नजरअंदाज करने के भी असंख्य तरीके हैं।
एक वक्त ऐसा भी था जब कर्मचारी द्वारा कंपनी को नौकरी छोड़ने का नोटिस दिए जाने के बाद दफ्तर द्वारा जिम्मेदारी न देने और राहत देने का प्रचलन था लेकिन बाद में कंपनियों को पता चला कि उसी दौरान उनके कर्मचारी अनौपचारिक तरीके से प्रतिस्पर्द्धी कंपनियों के लिए काम कर फायदा पा रहे हैं तब से इस तरह की राहत नहीं दी जाती है।
एक और तरीका यह भी है कि कर्मचारी प्रतिस्पर्धी में शामिल होने से पहले किसी गैर-प्रतिस्पर्धी संगठन में कुछ महीनों के लिए अपना मनपसंद काम कर लें। इस तरह वे प्रतिस्पर्धी कंपनी में न जाने के समझौते की भावना को पूरा करते हैं।
अकाश-एआई-एक्सप्रेस के घटनाक्रम से यह पता चलता है कि कैसे कोई कंपनी बड़े आफत में तब फंसती है जब अप्रत्याशित तरीके से बड़ी तादाद में कर्मचारी किसी दूसरी प्रतिस्पर्द्धी कंपनी में चले जाते हैं जहां उन्हें ज्यादा वेतन मिलने लगता है। ऐसी स्थिति आज लगभग किसी भी उद्योग में संभव है। मिसाल के तौर पर आप स्टार्टअप क्षेत्र को ही ले लें।
ऐसे में शायद कंपनियों के परेशान सीईओ, यूरोपीय फुटबॉल लीग में प्रचलित एक मानक प्रक्रिया पर विचार कर सकते हैं। वर्ष 2002-03 से ही नामचीन वैश्विक फुटबॉल क्लबों, यूरोपीय लीग में हर दो साल पर खिलाड़ियों के स्थानांतरण की प्रक्रिया अपनाई जाती है जिस पर अमल करने के लिए फुटबॉल क्लब और यूरोपीय आयोग के बीच पहले चर्चा हुई थी।
इस प्रणाली के तहत यूरोपीय लीग के खिलाड़ी दो सीजन के दौरान नए क्लबों में स्थानांतरित हो सकते हैं। गर्मियों के सीजन की शुरुआत जून में होती है और दूसरे सत्र की शुरुआत सर्दियों में होती है जो 1 से 31 जनवरी तक होती है।
इन लीग के बीच स्थानांतरण की प्रक्रिया को लेकर कुछ शर्तें संभव है जिनके खत्म होने की तारीख अलग-अलग हैं, लेकिन कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि 20 साल पुराना यह तंत्र पूरी तरह से कारगर है। चूंकि यह प्रक्रिया पूरी तरह से सहमति से पूरी होती है इसलिए इसमें कोई प्रतिस्पर्धा विरोधी या श्रम विरोधी कानून की गुंजाइश नहीं बन पाती है।
आखिर यह प्रणाली कैसे मददगार साबित होती है खासतौर पर जब क्लब एक-दूसरे से प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को अपने साथ जोड़ना चाहते हैं? फुटबॉल क्लब भी एक व्यवसाय है और फुटबॉलर (प्रतिभा) इस प्रतिस्पर्धा वाले लाभ को पाने की राह में इनका प्रमुख स्रोत हैं।
खिलाड़ियों के सुव्यवस्थित स्थानांतरण की प्रक्रिया, खिलाड़ियों और क्लबों दोनों के लिए एक क्लब से दूसरे क्लब में शामिल होने की आशंका वाले दौर की जगह अनुबंधात्मक स्थिरता लाने में कामयाब हुई है। यह कोच और प्रबंधकों को टीम को बेहतर तरीके से पेश करने की रणनीतियों की योजना बनाने में मददगार साबित होता है। मानव संसाधन वाली पूंजी के बलबूते फलने-फूलने वाले भारतीय व्यवसायों के लिए भी यह एक बेहतर विचार है जिसका वक्त अब आ चुका है।