म्युचुअल फंड के क्षेत्र में बैंकों का दबदबा वित्तीय स्थिरता को लेकर कई प्रश्न उत्पन्न करता है जिनके जवाब सावधानीपूर्वक देने की आवश्यकता है। बता रहे हैं अजय त्यागी और रचना वैद
भारत के लिए म्युचुअल फंड का कारोबार सही साबित हुआ है। फिलहाल देश में 43 म्युचुअल फंड हैं जो 14.74 करोड़ पोर्टफोलियो की मदद से देश के लाखों निवेशकों को करीब 1,280 योजनाओं की पेशकश कर रहे हैं और तकरीबन 43.20 लाख करोड़ रुपये मूल्य की परिसंपत्ति का प्रबंधन कर रहे हैं। 20 वर्ष पहले यानी 2003 की 80,000 करोड़ रुपये की तुलना में सालाना समेकित 22 फीसदी की यह वृद्धि काफी प्रभावशाली है।
म्युचुअल फंड ने देश की आम जनता में निवेश की संस्कृति तैयार करने में अहम भूमिका निभाई है। साथ ही ये बैंकों की सावधि जमा योजनाओं के एक अच्छे विकल्प के रूप में भी सामने आए हैं। सन 2003 में म्युचुअल फंडों की प्रबंधन के अधीन परिसंपत्ति बैंक जमा के करीब छह फीसदी के बराबर थी जो अब बढ़कर 21 फीसदी हो चुकी है।
इक्विटी और डेट दोनों के माध्यम से धन जुटाने वाले उद्यमियों को म्युचुअल फंड के निवेश से बहुत फायदा पहुंचा है। इन फंडों ने देश के पूंजी बाजारों को बैंकिंग फाइनैंस के विकल्प के रूप में उभरने में मदद की है। इस समय म्युचुअल फंडों की कुल प्रबंधन के अधीन परिसंपत्तियां बकाया बैंक ऋण के 31 फीसदी के बराबर हो चुकी हैं। इससे पता चलता है कि वित्तीय क्षेत्र में म्युचुअल फंडों का प्रभाव किस प्रकार बढ़ रहा है। इस उद्योग से जुड़े कई पहलुओं पर चर्चा करना उचित होगा। यह आलेख इस उद्योग के स्वामित्व प्रोफाइल पर ध्यान केंद्रित करता है।
प्रबंधन के अधीन परिसंपत्तियों के हिसाब से देश के शीर्षस्थ म्युचुअल फंड देश के बैंकों से संबद्ध हैं। बीते दो दशकों से यह सिलसिला ऐसा ही है और समय के साथ बैंकों से जुड़े फंडों का दबदबा बढ़ता ही जा रहा है। 31 मार्च, 2003 को शीर्ष पांच म्युचुअल फंड इन फंडों की कुल परिसंपत्तियों में 54.55 फीसदी के हिस्सेदार थे और इन पांच में से दो बैंकों द्वारा प्रायोजित थे। 31 मार्च, 2023 तक शीर्ष पांच म्युचुअल फंड की हिस्सेदारी 55.64 फीसदी रही और इनमें से चार बैंकों से जुड़े थे।
नियामकीय प्रावधानों के मुताबिक किसी म्युचुअल फंड के प्रायोजक को परिसंपत्ति प्रबंधन कंपनी में कम से कम 40 फीसदी शुद्ध हिस्सेदारी रखनी चाहिए और कंपनी का आकार कम से कम 50 करोड़ रुपये होना चाहिए। निवेश आवश्यकता म्युचुअल फंड प्रबंधनाधीन परिसंपत्तियों से संबद्ध नहीं है। इन फंडों के बही-खाते में किसी जोखिम पूंजी प्रॉविजनिंग की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि जोखिम या लाभ सीधे निवेशक को जाता है जबकि बैंकों में पूंजी पर्याप्तता की आवश्यकता होती है और रिजर्व बैंक इन पर करीबी नजर रखता है। यकीनन बैंकों द्वारा म्युचुअल फंडों के प्रायोजन और वितरण को रिजर्व बैंक की मंजूरी हासिल है और यह भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड के नियमन के अधीन है।
बैंकों से जुड़े फंडों के पक्ष में एक बात यह है कि उन्हें अपने शाखा नेटवर्क की मदद से पहुंच बढ़ाने का मौका मिलता है। सेबी द्वारा फंडों की सीधी खरीद को प्रोत्साहित किए जाने के बाद भी व्यक्तिगत निवेशक वितरकों के माध्यम से ही आ रहे हैं। बैंकों से जुड़े फंडों के साथ एक ब्रांड पहचान जुड़ी हुई है। यहां दो सवाल पैदा होते हैं- क्या म्युचुअल फंड उद्योग में प्रतिस्पर्धा की कमी है और क्या इस उद्योग में बैंकों के दबदबे में कोई गड़बड़ी है?
इनमें से पहले सवाल का जवाब नकारात्मक लगता है। सेबी के हालिया मशविरा पत्र के अनुसार आठ म्युचुअल फंड की बाजार हिस्सेदारी 5 फीसदी (प्रत्येक) से अधिक है और इन आठों के पास कुल प्रबंधनाधीन परिसंपत्ति का 75 फीसदी हिस्सा है। आठ बड़े कारोबारी बाजार प्रतिस्पर्धा के लिए पर्याप्त हैं।
दूसरे सवाल का जवाब शायद इतना सीधा न हो। यह सच है कि वैश्विक स्तर पर भी बैंकों से जुड़े म्युचुअल फंडों की बाजार हिस्सेदारी अच्छी खासी है यानी करीब एक तिहाई। भारत में यह अनुपात करीब 60 फीसदी है। निस्संदेह बैंकों ने म्युचुअल फंडों की पहुंच बढ़ाने का काम किया है।
उस लिहाज से ध्यान देना होगा कि म्युचुअल फंड बैंकों के बुनियादी काम के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं। याद रहे गत वर्ष बैंकों को अपनी जमा दर बढ़ानी पड़ी थी और ऐसा रीपो दर में इजाफे की वजह से नहीं बल्कि इसलिए करना पड़ा था कि उन्हें जमा के लिए अन्य वैकल्पिक निवेश अवसरों से मुकाबला करना पड़ रहा था। इसमें म्युचुअल फंड भी शामिल थे।
ऋण के मोर्चे पर बात करें तो बैंक ऋण कॉर्पोरेट बॉन्ड से मुकाबला करता है। ध्यान रहे कि बैंकों से संबद्ध डेट फंड की हिस्सेदारी कुल डेट फंडों की प्रबंधनाधीन परिसंपत्ति में 65 फीसदी की है। क्या बैंक और उनसे संबद्ध म्युचुअल फंड अच्छे ऋण अवसरों के लिए एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं? अगर हां तो किसके आगे रहने की उम्मीद है? क्या बैंक अपने से संबद्ध म्युचुअल फंडों के निवेश निर्णयों को प्रभावित करते हैं? क्या किसी निवेश के जोखिम की स्थिति दो विकल्पों के बीच चयन का निर्णायक कारक होती है? याद रहे कि एक डेट म्युचुअल फंड कोई जोखिम पूंजी नहीं रखता है।
ऋण चुकाने में चूक की स्थिति में म्युचुअल फंड फंसे हुए कर्ज को अलग कर सकता है और बाकी परिसंपत्तियों के प्रबंधन के साथ आगे बढ़ सकता है। जाहिर है बार-बार ऐसा होने पर उसकी प्रतिष्ठा को क्षति पहुंच सकती है और उसके ग्राहक भी छूट सकते हैं।
2023-24 में बैंकों ने शुद्ध ब्याज मार्जिन में इजाफे के कारण शानदार वित्तीय नतीजे दर्ज किए। ऐसा इसलिए हुआ कि उनकी उधारी लागत और कर्ज देने की दर में अंतर बढ़ा। ऐसे में यह प्रश्न किया जाना चाहिए कि क्या बैंक म्युचुअल फंडों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करेंगे?
बैंक और उनसे संबद्ध म्युचुअल फंडों के कामकाजी रिश्तों की गहराई से पड़ताल करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही बैंकों तथा उनके म्युचुअल फंडों में संबंधित पक्ष के लेनदेन पर भी नजर रखनी जरूरी है।
एक अन्य अहम मसला है वित्तीय क्षेत्र की अंत: संबद्धता, जिसे सीमित करके वित्तीय स्थिरता बरकरार रखी जानी चाहिए। सैद्धांतिक तौर पर एक बैंक और उसके द्वारा प्रायोजित म्युचुअल फंड दोनों अलग-अलग संस्थान हैं और म्युचुअल फंड में अधिक जोखिम न होने के कारण समग्र जोखिम भी कम होता है।
बहरहाल हकीकत में संकट की स्थिति में हालात अलग साबित हो सकते हैं। बैंकों को कदम उठाने पर विवश होना पड़ सकता है और न्यूनतम नियामकीय आवश्यकता से परे जाना पड़ सकता है ताकि उनकी प्रतिष्ठा और ब्रांड वैल्यू का बचाव हो सके।
क्या बैंकों का बैंकिंग और म्युचुअल फंड दोनों क्षेत्रों में दबदबा रखना उचित है? हकीकत में बैंक तो बीमा क्षेत्र में भी काफी दखल रखते हैं जिससे हालात और जटिल होते हैं। नीति निर्माताओं और नियामकों को इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।
(लेखक सेबी के पूर्व चेयरमैन और लेखिका एनआईएसएम की प्रोफेसर हैं)