चुनाव के ठीक पहले लुभावने वादे करना भारतीय राजनीति में आम बात हो गई है। परंतु राजनीतिक दल और प्रत्याशी केवल उन वादों तक नहीं रुकते जिन्हें सरकारी खजाने से पूरा करना होता है क्योंकि शायद वे वादे चुनाव जीतने के लिए पर्याप्त नहीं होते हैं।
चुनाव प्रचार अभियानों में बहुत बड़े पैमाने पर धनराशि व्यय की जाती है और मतदाताओं को लुभाने का प्रयास किया जाता है। जैसा कि केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के अध्यक्ष नितिन गुप्ता ने बुधवार को कहा भी, इस बार चुनावी राज्यों में पिछले चुनावों की तुलना में कहीं अधिक धनराशि जब्त की गई है।
उदाहरण के लिए इस वर्ष राजस्थान में कथित तौर पर 1,000 करोड़ रुपये से अधिक मूल्य की नकदी जब्त की गई। कर विभाग के नियमित काम के बोझ तथा व्यवस्थागत बाधाओं को देखते हुए यह दलील देना उचित ही होगा कि यह बहुत बड़ी राशि का एक छोटा हिस्सा हो सकता है।
धन की शक्ति का इस्तेमाल केवल किसी एक राज्य या किसी अन्य राज्य तक सीमित नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका के प्रत्युत्तर में भारतीय निर्वाचन आयोग ने एक हलफनामा दायर करते हुए कहा था कि वह ‘चुनावों में धन की शक्ति के बढ़ते इस्तेमाल को लेकर अत्यधिक चिंतित है।’ उसने यह भी कहा कि चुनावी खर्च की निगरानी के लिए प्रभावी व्यवस्था की गई है।
बहरहाल, इस बात के तमाम प्रमाण हैं और ऐसी खबरें भी हैं जो बताती हैं कि धनबल का इस्तेमाल बढ़ रहा है। यह रुझान परेशान करने वाला है और इसने न केवल चुनावों से जुड़े कई सवालों को जन्म दिया है बल्कि पूरी व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न भी लगाया है।
पहली बात तो यह पूरी बेहिसाबी धनराशि आई कहां से? यह साफ तौर पर व्यवस्था द्वारा उत्पन्न बेहिसाबी धन का ही हिस्सा है जो राजनीतिक संरक्षण से जुटाई गई ताकि राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित किया जा सके।
प्रचलित नकदी नोटबंदी के पहले के स्तर से भी अधिक हो चुकी है। फंडिंग चाहे प्रत्याशियों से हो या उनके समर्थकों द्वारा, उसका इरादा व्यवस्था से लाभ लेकर राजनीतिक शक्ति हासिल करना होता है। ऐसी परिस्थितियों में राजनीतिक व्यवस्था शायद समाज के हित में निष्पक्ष तरीके से काम न कर पाए।
दूसरा, इस बेहिसाबी धन का इस्तेमाल किस प्रकार किया जाता है? आंशिक रूप से इसका इस्तेमाल चुनाव प्रचार की फंडिंग के लिए किया जा सकता है क्योंकि निर्वाचन आयोग द्वारा तय सीमा अपर्याप्त प्रतीत होती है। अतीत की रिपोर्ट का ध्यान रखें तो इसका इस्तेमाल मतदाताओं को नकदी या वस्तु देकर प्रभावित करने में भी किया जा सकता है जो एक तरह से राजनीतिक प्रक्रिया को बाधित करता है।
तीसरा, क्या पैसे की ताकत लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित करती है? जैसा कि हम बाजार में देखते हैं प्रवेश में ऊंचा प्रतिरोध प्रतिस्पर्धा को सीमित करता है और कमतर नतीजे देने वाला साबित होता है। ऐसे में नए लोगों के लिए भारतीय राजनीति में प्रतिस्पर्धा करना बेहद कठिन है और इस बात ने विभिन्न स्तरों पर शक्ति का केंद्रीकरण किया है। यह भी एक वजह है जिसके चलते भारत में इतने राजनीतिक घराने हैं। इन दिनों अधिकांश गंभीर प्रत्याशी करोड़पति हैं।
निश्चित तौर पर इनमें से कुछ दिक्कतों के बारे में हम सभी जानते हैं लेकिन हमारा समाज उन्हें लेकर कुछ खास नहीं कर पाया। सैद्धांतिक रूप से देखा जाए तो यह चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है कि वह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराए। धन की शक्ति का अत्यधिक उपयोग बराबरी की लड़ाई नहीं रहने देता।
निर्वाचन आयोग इस दिशा में काम कर रहा है लेकिन उसे और अधिक कदम उठाने होंगे। इसके लिए उसे मौजूदा अफसरशाही का अधिक प्रभावी इस्तेमाल करना होगा तथा नियमों का उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध कार्रवाई करनी होगी।
चुनावी धन से जुड़ी व्यवस्थाओं में सुधार की आवश्यकता है क्योंकि यह व्यवस्था की कई अन्य समस्याओं को बढ़ाने का कारण बनता है। परंतु इसके लिए विधायिका के सहयोग की भी आवश्यकता होगी जो शायद न मिले। निर्वाचन आयोग के पास यही विकल्प है कि वह निगरानी बढ़ाए और जरूरत पड़ने पर कदम उठाए। वह मतदाताओं को संवेदनशील करने के लिए अभियान भी चला सकता है।