अब जबकि हम नई सदी के शुरुआती ढाई दशकों के समापन की ओर बढ़ रहे हैं तो एक बात स्पष्ट है कि वैश्वीकरण की दोपहर बीत चुकी है।
अमेरिका और यूरोप की राजनीति बहुत बुरी तरह अप्रवासी विरोधी भावनाओं से संचालित है और इसमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का घालमेल है (इटली की प्रधानमंत्री यूरोप में इस्लामिक संस्कृति के खिलाफ हैं जबकि डॉनल्ड ट्रंप का कहना है कि प्रवासी अमेरिकी रक्त को ‘विषाक्त’ बना रहे हैं)।
इस बीच आर्थिक बहस बढ़ती असमानता और अच्छे रोजगारों की कमी को लेकर मौजूदा असंतोष के लिए वैश्वीकरण और ‘नव उदारवाद’ को उत्तरदायी ठहराती है।
पश्चिम में इस बात को समझा जा सकता है क्योंकि उसने अपनी नौकरियां तथा अवसर चुनौती देने वालों के हाथों गंवा दिए हैं और दोनों को वापस पाना चाहता है। परंतु उन देशों का क्या जिन्हें वैश्वीकरण से लाभ हुआ है।
उदाहरण के लिए चीन जो दुनिया की फैक्टरी बना और भारत जो उनका बैक ऑफिस और शोध केंद्र? दोनों देशों का ध्यान अब भीतर की ओर अधिक है। जीडीपी में व्यापार की हिस्सेदारी कम हुई है जबकि भारत में राज्य का हस्तक्षेप, संरक्षणवाद और सब्सिडी आदि बढ़े हैं। इस बीच हालात नए नीतिगत प्रतिमानों की मांग करते हैं।
जैसा कि होता है वैश्वीकरण की चौथाई सदी में वैश्विक गरीबी पिछली किसी भी अन्य तिमाही की तुलना में तेजी से कम हुई। तमाम बातों के बीच वैश्विक असमानता में भी कमी आई है। एक आकलन के मुताबिक वैश्विक गिनी गुणांक (असमानता का मानक) में बीती चौथाई सदी में काफी सुधार हुआ है जिससे 20वीं सदी में बढ़ी वैश्विक असमानता में थोड़ी कमी आई है।
इसके अलावा विश्व असमानता रिपोर्ट के अनुसार शीर्ष 10 फीसदी और अगले 40 फीसदी और यहां तक कि निचले 50 फीसदी लोगों के दरमियान आय गुणक में कमी आई है।
यह वैश्विक तस्वीर है। देशों के भीतर असमानता का क्या? विश्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि गिनी गुणांक का खराब होता रुझान थैचर-रीगन युग के बाद से बदला है और बीते 20 से अधिक वर्षों से दुनिया के अनेक बड़े देशों में इसमें सुधार हुआ है।
इसमें अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम और फ्रांस जैसे विकसित और चीन, ब्राजील और मैक्सिको जैसे विकासशील देश भी शामिल हैं। तुर्की और नाइजीरिया में यह कमोबेश अपरिवर्तित रहा है लेकिन भारत और इंडोनेशिया में इसमें कुछ हद तक कमी आई है।
असमानता की रैंकिंग में भारत अब भी मध्य से बेहतर स्थिति में है। इस बीच विकसित देशों के अधिकांश हालिया रुझान यही सुझाव देते हैं कि श्रमिकों की बढ़ती कमी के बीच वेतन भत्ते बढ़ते जा रहे हैं। पहले अमेरिका में ऐसा हुआ और अब यूरोपीय देशों में भी ऐसा देखने को मिल रहा है।
इसका अर्थ यह है कि आने वाले समय में असमानता में और कमी आएगी। वैश्वीकरण में लोगों का आवागमन (पश्चिम की प्रवासन विरोधी भावना का दूसरा पहलू) भी शामिल है। भारत को इससे काफी लाभ हुआ है क्योंकि हमारे यहां दुनिया के किसी भी अन्य देश से अधिक धनराशि बाहर से भेजी जाती है।
निश्चित तौर पर भारत को विनिर्माण में चीन के समान सफलता नहीं मिली है लेकिन भारत के बाह्य खाते की बात करें तो गैर तेल व्यापार में वह व्यापक तौर पर संतुलन की स्थिति में है। पश्चिम के देशों के उलट भारत में जीडीपी की तुलना में विनिर्माण में गिरावट नहीं आई है लेकिन वह जीडीपी से तेज गति से बढ़ने में नाकाम रहा है।
भारत को असमानता को लेकर चिंतित होना चाहिए लेकिन तथ्य यह है कि तीन दशक पहले जहां आधी आबादी की आय 2.15 डॉलर प्रति दिन (विशुद्ध गरीबी का वैश्विक मानक) से अधिक थी, वहीं आज आठ में से सात लोगों के साथ यही स्थिति है।
यह स्थिति हाल के वर्षों के कल्याणकारी उपायों और हस्तांतरण संबंधी भुगतानों का निपटान करने के पहले की है। इस बीच पिरामिड के शीर्ष पर, 2018 में दुनिया के शीर्ष आय अर्जित करने वालों में 1.5 फीसदी भारतीय थे जो एक दशक पहले के 1.3 फीसदी से अधिक थे।
नीतिगत नजरिये से देखें तो भारत की गरीबी और असमानता का भौगोलिक संदर्भ है। हिंदी प्रदेशों के राज्यों का विकास तटवर्ती राज्यों से कमतर रहा है। अगर बिहार, छत्तीसगढ़ आदि बेहतर प्रदर्शन करें तो असमानता में स्वयं कमी आएगी। इसका संबंध संचालन, स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं तथा निवेशकों को आकर्षित करने की राज्य की क्षमता से है, न कि वैश्वीकरण और उसकी वैचारिक संगत से।
बेरोजगारी की बात करें तो आधिकारिक आंकड़े कहते हैं कि हालात सुधर रहे हैं लेकिन विशेषज्ञ टीकाकार इनकी अपनी तरह से व्याख्या करते हैं।
सरकार का उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन कुछ रोजगारपरक असेंबली के काम को स्थानीय स्तर पर करने में मदद कर सकते हैं लेकिन यह आंशिक उत्तर है। कड़वा सच यह है कि बेहतर वेतन वाले रोजगारों का कोई विकल्प नहीं है। इस अहम चेतावनी के साथ भारत सदी के आरंभ की तुलना में बेहतर स्थिति में है। यह स्वागतयोग्य है।