भारत के जिन सैन्य अधिग्रहणों में बहुत अधिक देरी हुई है उनमें से एक है ’30 वर्ष की पनडुब्बी निर्माण योजना’ जिसे कैबिनेट ने 1999 में मंजूरी दी थी ताकि 24 पारंपरिक पनडुब्बियों का निर्माण किया जा सके।
नौसेना के लंबी दूरी वाले समुद्री गश्त लगाने वाले विमानों के साथ मिलकर ये पनडुब्बियां, शत्रुओं की पनडुब्बियों को अरब सागर, बंगाल की खाड़ी और उत्तरी हिंद महासागर में आजादी से घूमने से रोक देंगी।
तीस वर्षीय योजना में भारत में छह पारंपरिक डिजाइन वाली पनडुब्बियां बनाने की बात शामिल है जिन्हें फ्रांसीसी, जर्मन या स्वीडिश डिजाइन पर तैयार होना है। उसके बाद छह अन्य पनडुब्बियां पूर्वी डिजाइन पर यानी रूसी, दक्षिण कोरियाई या जापानी डिजाइन पर तैयार होनी हैं। पूर्व और पश्चिम दोनों से विशेषज्ञता हासिल करने के बाद भारतीय शिपयार्ड अगली 12 पनडुब्बियों को स्वदेशी ढंग से तैयार करेगा।
एक अन्य गोपनीय पहल में नौसेना और रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन के डिजाइनर परमाणु क्षमता संपन्न पनडुब्बियों तथा बैलिस्टिक मिसाइल युक्त परमाणु संपन्न पनडुब्बियों का एक छोटा बेड़ा बनाएंगे। ये कई सप्ताह नहीं बल्कि महीनों तक पानी में रह सकेंगी और लंबे मिशन में काम आएंगी।
भारतीय नौसेना ने इनके संचालन की क्षमता विकसित करने के लिए रूस से दो बार इन्हें लीज पर लिया है। इन्हें शत्रु पनडुब्बियों और युद्धपोतों के विरुद्ध आजमाने के बजाय भारत के नाभिकीय प्रतिरोध के तीसरे स्तर के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा जो जलमग्न होकर काम करेगा।
इस योजना को अंतिम रूप देने के बाद भी चौथाई सदी बीत चुकी है लेकिन शुरुआती छह पनडुब्बियां भी नहीं बन सकी हैं। प्रोजेक्ट 75 आई के तहत 18 पनडुब्बियां बनाने के लिए पांच साल की अवधि बची है और यह नामुमकिन प्रतीत होता है
हमारी तट रेखा 5,600 किलोमीटर है और करीब 1,800 किलोमीटर इलाका द्वीपों का है। 23.7 लाख वर्ग किलोमीटर भूभाग में विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र (ईर्ईजेड) हैं। दुनिया के व्यापार का दो तिहाई इसी समुद्री इलाके से होकर गुजरता है।
इसमें होर्मुज जलडमरूमध्य के रास्ते तेल एवं गैस तथा स्वेज नहर के मार्ग से जिंस और हाइड्रोकार्बन का आवागमन शामिल है। हिंद महासागर और प्रशांत महासागर के बीच का व्यापार मलक्का की खाड़ी, सुंडा, लॉम्बॉक और ओम्बाई जलडमरूमध्य से गुजरता है जहां पोतों की नाकाबंदी की जा सकती है।
अगर भारत का प्रायद्वीपीय इलाका दोनों ओर उथले पानी वाला होता तो हमारी नौसेना पारंपरिक पनडुब्बियों से काम चला लेती। अरब सागर की ढाल इतनी कम गहरी है कि कराची से 40 समुद्री मील दूर सागर की तलहटी केवल 40 मीटर गहरी है। इतनी गहराई में बड़ी पनडुब्बी काम नहीं कर सकतीं।
परमाणु क्षमता संपन्न 4,000 टन भारी पनडुब्बी और बड़ी पारंपरिक पनडुब्बी कराची के तट के निकट नहीं संचालित हो सकतीं। भारत की पूर्वी तट रेखा में ढाल काफी गहरा है और यह बड़ी पारंपरिक पनडुब्बियों के लिए उपयुक्त है। इसके साथ ही यहां परमाणु क्षमता संपन्न पनडुब्बियां भी संचालित हो सकती हैं जो मलक्का की खाड़ी में लंबे समय तक पानी में रह सकती हैं।
परमाणु क्षमता संपन्न पनडुब्बियों को ऐसा करने में केवल खाद्य सामग्री और इंसानी सहनशक्ति की बाधा ही सामने आती है। एक परमाणु क्षमता संपन्न पनडुब्बी विमान वाहक युद्धक समूह का हिस्सा बनने के लिए बेहतर तैयार होती है। इससे शत्रु पनडुब्बियों से बेहतर बचाव मिलता है। समुद्री क्षेत्र में भारत की आकांक्षाओं को देखते हुए हमारे बेड़े में कम से कम 3-4 ऐसी परमाणु क्षमता संपन्न पनडुब्बियां होनी चाहिए।
अधिकांश बड़ी नौसैनिक शक्तियां मसलन फ्रांस, रूस, ब्रिटेन और अमेरिका आदि परमाणु बेड़े को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि उसकी वैश्विक पहुंच है और कई प्रकार की पनडुब्बियों का संचालन महंगा है। अमेरिका पनडुब्बी तकनीक में साझेदारी नहीं करता क्योंकि यह उसकी नौसैनिक श्रेष्ठता का अहम हिस्सा है।
यही वजह है कि फ्रांस और रूस केवल निर्यात के लिए पारंपरिक पनडुब्बियां बना रहे हैं जबकि उनकी नौसेनाएं परमाणु संपन्न पनडुब्बियां संचालित कर रही हैं।
खरीदारों की बात करें तो जिन्हें बेहतर तकनीक वाली पनडुब्बियां चाहिए उनके लिए एयर इंडिपेंडेंट प्रपल्शन (एआईपी) वाली गैर परमाणु प्रपल्शन सिस्टम उपलब्ध है जो पनडुब्बियों को लंबे समय तक पानी के भीतर रहने की सुविधा देता है। इन्हें अपनी बैटरी चार्ज करने के लिए ऊपर नहीं आना होता।
नौसेना ने जुलाई 2021 में सामरिक साझेदारी मॉडल के तहत प्रोजेक्ट-75आई के अंतर्गत छह पनडुब्बियों की खरीद की प्रक्रिया शुरू की थी। डिफेंस एक्विजिशन प्रॉपोजीशन 2020 के तहत सामरिक साझेदारी के तहत खरीद के लिए चार हथियार श्रेणियों को चिह्नित किया गया: लड़ाकू विमान, हेलीकॉप्टर, पनडुब्बियां और सशस्त्र लड़ाकू वाहन या मुख्य युद्धक टैंक।
चूंकि प्रोजेक्ट-75आई एक पोत निर्माण परियोजना है इसलिए पहला चरण था दो भारतीय कंपनियों का सामरिक साझेदार के रूप में चयन- मझगांव डॉक लिमिटेड (एमडीएल) और लार्सन ऐंड टुब्रो (एलऐंडटी)। इन कंपनियों को प्रस्ताव के लिए अनुरोध पेश करने को कहा गया हैऔर इन्हें किसी सूचीबद्ध ओईएम के साथ सहयोग करना होगा।
पांच चुनी हुई ओईएम हैं फ्रांस का नवल ग्रुप, जर्मनी का टिसेनक्रुप मरीन सिस्टम्स (टीकेएमएस), रूस का रोसोबोरोनएक्सपोर्ट यानी आरओई, दक्षिण कोरिया की डेवू शिपबिल्डिंग ऐंड मरीन इंजीनियरिंग (डीएसएमई) और स्पेन की नवांतिया।
इन्हें कड़ी स्वदेशी शर्तों का पालन करना होगा यानी पहली पनडुब्बी के लिए 45 फीसदी स्वदेशीकरण तथा छठी यानी अंतिम के लिए 60 फीसदी। इस परियोजना की लागत करीब 40,000 करोड़ रुपये से अधिक है।
सामरिक साझेदार कंपनियों के साथ साझेदारी के लिए पांच विदेशी कंपनियों के चयन के बावजूद प्रभावी तौर पर निविदा के लिए दो ही प्रतिस्पर्धी थे- टीकेएमएस और डीएसएमई। ऐसा इसलिए क्योंकि अन्य तीन कंपनियां निविदा की शर्तें पूरी नहीं कर पा रही थीं।
टीकेएमएस ने बोली में भाग नहीं लेने का निर्णय लिया। ऐसे में नौसेना को या तो एक वेंडर से खरीद करनी होगी या फिर निविदा में संशोधन करना होगा।
जर्मनी की कंपनी टीकेएमएस को इनमें सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। कंपनी के अधिकारी बताते हैं कि उसने 1980 और 1990 के दशक में मुंबई के मझगांव डॉक में भारत की नौसेना के लिए 209/1500 पनडुब्बियां बनाई थीं। इन पनडुब्बियों की बहुत सराहना की जाती है।
ऐसे में मझगांव भारत का इकलौता डॉक है जिसे पनडुब्बी बनाने का पूरा अनुभव है। इसके अलावा दो प्रमुख पनडुब्बियां मसलन आईएनएस शिशुमार और आईएनएस शंकुश को पहले ही मझगांव डाक और टीकेएमएस द्वारा मध्यम रीफिट किया जा चुका है।
भारतीय नौसेना द्वारा इस्तेमाल की जा रही टाइप 209 एचडीडब्ल्यू पनडुब्बियों को एचडीडब्ल्यू टाइप 214 में विकसित किया गया जो दुनिया की कई नौसेनाओं द्वारा संचालित हैं। इनमें इटली, कोरिया और तुर्की शामिल हैं।
आखिर में टीकेएमएस जो डिजाइन बनाने की योजना बना रही है वह दो प्रकार के एआईपी के साथ एक अधिक लचीली पनडुब्बी डिजाइन है: फ्यूल सेल एआईपी जो कम गति पर लंबी दूरी के लिए कारगर है और दूसरा लीथियम आयन बैटरी जो उच्च गति के लिए मुफीद हैं।
हिंद महासागर के पहरेदार की भारत की भूमिका को देखते हुए पनडुब्बियों की कमी को दूर करना नई सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए।