30 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली कैबिनेट कमेटी ऑन पॉलिटिकल अफेयर्स (CCPA) ने जातिगत जनगणना को मंजूरी दे दी है। यह फैसला विपक्ष की लंबे समय से चली आ रही मांग को मानते हुए लिया गया है। यह भारतीय जनता पार्टी (BJP) के पुराने स्टैंड से बिल्कुल अलग है। यह निर्णय बिहार विधानसभा चुनाव से पहले आया है और पिछले साल हुए कड़े लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद राजनीतिक रणनीति में बड़ा बदलाव माना जा रहा है।
जातिगत जनगणना को हरी झंडी मिलने से भारत के लोकतंत्र में जाति, प्रतिनिधित्व और सामाजिक न्याय को लेकर पुरानी बहसें फिर से ताज़ा हो गई हैं। हालांकि 2021 में होनी वाली जनगणना कोविड-19 महामारी के चलते टल गई थी, और अब तक इसकी नई तारीख तय नहीं हुई है। लेकिन जाति गणना की अनुमति एक बड़े राजनीतिक बदलाव का संकेत दे रही है।
जातिगत जनगणना देश की विभिन्न जातियों की गिनती करने के साथ-साथ उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति—जैसे आय, शिक्षा, रोजगार और रहन-सहन के हालात—का डेटा एकत्र करती है। सामान्य जनगणना में सिर्फ अनुसूचित जातियों (SC), अनुसूचित जनजातियों (ST) और धार्मिक समुदायों की गिनती होती है, जबकि जातिगत जनगणना में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) और अन्य सभी जातियों को भी शामिल किया जाता है। इसका मकसद यह समझना होता है कि अलग-अलग जातियों की आबादी कितनी है और उनकी सामाजिक-आर्थिक हालत क्या है ताकि सरकारी योजनाएं और आरक्षण व्यवस्था ज्यादा प्रभावी ढंग से लागू हो सके।
ब्रिटिश राज के दौरान 1881 से 1931 तक नियमित रूप से जातिगत जनगणना होती रही। 1931 में आखिरी बार पूरी जातिगत जनगणना हुई थी, जिसकी निगरानी जनगणना कमिश्नर जे. एच. हटन ने की थी। 1941 में जनगणना हुई थी, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के कारण उसका जाति डेटा कभी प्रकाशित नहीं हुआ।
आज़ादी के बाद 1951 से जातिगत आंकड़े इकट्ठा करना बंद कर दिया गया, सिर्फ SC और ST का डेटा लिया जाता रहा। यह फैसला जातिगत पहचान को बढ़ावा देने से बचने की नीति के तहत लिया गया था। हालांकि 1961 में राज्यों को OBC की पहचान के लिए अपने-अपने सर्वे करने की छूट दी गई। 1979 में बनी मंडल कमीशन ने 1931 के आंकड़ों के आधार पर OBC की आबादी को 52% बताया था। इसी आंकड़े को आधार बनाकर 1990 में OBC को शिक्षा और नौकरियों में 27% आरक्षण दिया गया।
यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में राजद, सपा और जदयू जैसी पार्टियों के दबाव में 2010 में सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC) की घोषणा की गई थी। उस वक्त गृह मंत्रालय ने इसका विरोध किया था कि जाति की गिनती से सामान्य जनगणना की गुणवत्ता पर असर पड़ेगा।
बाद में तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की अगुवाई में मंत्रियों का एक समूह बनाया गया, जिसने कई बैठकों और पार्टियों से चर्चा के बाद जनगणना कराने का फैसला किया। SECC को 2011 की जनगणना के साथ कराया गया लेकिन इसकी जाति संबंधित जानकारी कभी जारी नहीं की गई।
करीब ₹4,900 करोड़ खर्च कर यह सर्वे कराया गया था और इसके सामाजिक-आर्थिक आंकड़े 2016 में प्रकाशित किए गए थे। लेकिन जाति का डेटा सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय को सौंप दिया गया। इसके वर्गीकरण के लिए नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समूह बना, लेकिन उसकी रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं हुई।
राष्ट्रीय स्तर पर डेटा न होने के कारण कई राज्यों ने खुद अपने जातिगत सर्वे कराए।
बिहार: 2023 में नीतीश कुमार की अगुवाई वाली जदयू-राजद-कांग्रेस सरकार ने अपना जातिगत सर्वे जारी किया। इसमें OBC और अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) की आबादी 60% से ज्यादा बताई गई।
कर्नाटक: 2015 में सिद्धारमैया सरकार ने जाति सर्वे कराया था, जिसकी रिपोर्ट फरवरी 2025 में सौंपी गई और अप्रैल में उनके कैबिनेट ने इसे मंजूरी दी।
तेलंगाना: 2024 में कांग्रेस सरकार ने सामाजिक, शैक्षिक, रोजगार, राजनीतिक और जातिगत सर्वे की रिपोर्ट फरवरी में जारी की।
भाजपा का यह रुख ऐसे समय में बदला है जब बिहार चुनाव नज़दीक हैं और वहां की राजनीति में जाति का बड़ा असर है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जातिगत गणना की मंजूरी से मोदी सरकार विपक्ष के सामाजिक न्याय आधारित नैरेटिव को निष्प्रभावी करना चाहती है।
अब से कुछ साल पहले तक भाजपा नेता जातिगत गणना के विरोध में थे। 20 जुलाई 2021 को गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने संसद में कहा था कि केंद्र सरकार SC और ST के अलावा अन्य जातियों की गिनती नहीं कराएगी। 30 अप्रैल को मंजूरी के बाद केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने इसे कांग्रेस की नीति से पलट बताया और कहा कि कांग्रेस ने अपने लंबे कार्यकाल में कभी जातिगत जनगणना नहीं कराई।
ब्रिटिश शासन में जातिगत जनगणना कराना आसान नहीं था। 1901 की जनगणना में एच. एच. राइज़ली ने वर्ण व्यवस्था के आधार पर जातियों को वर्गीकृत किया, जिससे कई जातियों ने विरोध किया। 1931 में जे. एच. हटन ने जातियों को पेशे के आधार पर वर्गीकृत किया, लेकिन यह तरीका भी एकरूप नहीं था। मसलन, खेती को उत्तर भारत में ऊंचा पेशा माना गया जबकि दक्षिण भारत में इसे ‘बाहरी’ जातियों से जोड़ा गया। हटन ने माना था कि जाति की गिनती से बचना समस्या का समाधान नहीं है। उन्होंने कहा था कि यह ऐसा ही है जैसे शुतुरमुर्ग रेत में सिर छिपा ले।
इतिहासकार शेखर बंद्योपाध्याय ने लिखा है कि औपनिवेशिक जनगणना जातियों के लिए अपनी सामाजिक स्थिति जताने और उसे चुनौती देने का जरिया बन गई थी, जिससे आंदोलन और संगठन बनते गए।
यह जनगणना वर्तमान आरक्षण व्यवस्था और कल्याणकारी नीतियों के पुनर्मूल्यांकन का आधार बन सकती है। नई जनगणना के आंकड़े जनसंख्या के अनुसार आरक्षण और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग बढ़ा सकते हैं। इससे सुप्रीम कोर्ट के 1992 के इंद्रा साहनी बनाम भारत सरकार केस में तय 50% आरक्षण सीमा पर फिर बहस छिड़ सकती है। महिला आरक्षण में OBC महिलाओं के लिए उप-कोटा की मांग भी फिर सामने आ सकती है।
सरकारी योजनाओं को सही समूहों तक पहुंचाने के लिए विश्वसनीय जातिगत आंकड़ों की कमी हमेशा से एक बड़ी बाधा रही है। हालांकि विशेषज्ञ यह भी चेताते हैं कि ऐसे आंकड़े जारी करने से जातिगत ध्रुवीकरण या प्रभावशाली जातियों की ओर से OBC सूची में शामिल होने की मांगें बढ़ सकती हैं।
मोदी सरकार द्वारा अगली जनगणना में जातिगत आंकड़े शामिल करने का फैसला भारत की सामाजिक नीति और चुनावी राजनीति में एक ऐतिहासिक बदलाव का संकेत देता है। हालांकि अगली जनगणना की तारीख तय नहीं हुई है, लेकिन यह मंजूरी आने वाले समय में बड़ा बदलाव ला सकती है।