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  अन्य समाचार  उत्तर प्रदेश में गायों के लिए ऐंबुलेंस सेवा
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उत्तर प्रदेश में गायों के लिए ऐंबुलेंस सेवा

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —November 15, 2021 8:41 PM IST
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हमें यह कभी पता नहीं चलेगा कि नोटबंदी देश के लिए एक आपदा थी या वरदान। पांच साल पहले इसी महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नोटबंदी की घोषणा आधी रात से लागू हो गई थी जिससे पूरा देश हैरान हो गया था। इसके  बाद जो कुछ भी हुआ उस पर काफी कुछ लिखा, पढ़ा और देखा जा चुका है। ऐसे में उन बातों को दोहराने की जरूरत नहीं है।
लेकिन नोटबंदी के व्यापक कवरेज और विश्लेषण के बावजूद अब भी इस बारे में कोई स्पष्टता नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी का फैसला क्यों किया। इसको लेकर दो तरह के विचार हैं। एक के मुताबिक नोटबंदी के जरिये देश को काले धन से मुक्ति दिलाना था। वहीं दूसरा मत यह है कि उत्तर प्रदेश में मार्च 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव से चार महीने पहले नोटबंदी का फैसला इसलिए लिया गया था ताकि चुनाव की तैयारी पर खर्च करने के लिए विपक्ष के पास पर्याप्त नकदी न रहे।
इंदिरा गांधी ने वर्ष 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का फैसला कर यह दिखाया था कि अच्छे राजनीतिक विचारों की सफलता के लिए जरूरी है कि उनका कलेवर अच्छे आर्थिक विचारों के रूप में तैयार किया जाए। अन्य वजहों के साथ-साथ राष्ट्रीयकरण के फैसले के बलबूते इंदिरा गांधी केंद्र में डेढ़ दशक तक सत्ता में बनी रहीं और 1996 तक कुछ साल छोड़कर देश की सत्ता पर एकमात्र कांग्रेस पार्टी का ही शासन कायम रहा। लेकिन इसने भारत की बैंकिंग व्यवस्था को पूरी तरह से बरबाद कर दिया। वहीं दूसरी ओर इससे ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों का व्यापक विस्तार हुआ। इसी तरह, उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने में नोटबंदी के फैसले की एक प्रमुख भूमिका है जहां आगामी विधानसभा चुनाव में भी भाजपा के लिए ज्यादा खतरे वाली स्थिति नहीं है। निश्चित तौर पर इन वजहों से भाजपा, उत्तर प्रदेश में मुख्य पार्टी भी बन गई। लेकिन अब सवाल यह है कि नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था पर क्या असर डाला है?

कई स्पष्टीकरण
नोटबंदी के फैसले के आलोचकों का कहना है कि इस फैसले की वजह से खासतौर पर असंगठित क्षेत्र की आर्थिक गतिविधियां पूरी तरह से ठप पड़ गईं। दूसरी ओर इस फैसले के समर्थकों का कहना है कि इससे वास्तव में आर्थिक गतिविधियों के संगठित होने का स्तर दोगुना हुआ और यह पहले के 20 प्रतिशत से बढ़कर अब 40 प्रतिशत तक हो गया। इस बीच अर्थशास्त्री इस बात को लेकर हैरान हो रहे हैं कि 8 नवंबर, 2016 को व्यवस्था से जितनी नकदी चलन से बाहर हुई वह 2019 में तंत्र में वापस भी आ गई और अब यह सर्वकालिक उच्च स्तर पर है। वास्तव में, उनमें से कुछ अब भी मूलभूत रूप से नकदी को अवांछनीय तौर पर देख रहे हैं।
वहीं दूसरे इस बात की परिकल्पना कर रहे है कि ऐसा कोविड की वजह से हो सकता है क्योंकि वैश्विक स्तर पर नकदी की मांग में वृद्धि हुई है। ऐसा इस वजह से भी है कि लेन-देन के लिए यह एक पसंदीदा साधन है और मुश्किल दिनों के लिए भी नकदी अलग रखी जा सकती है। जिन लोगों को दैनिक आधार पर भुगतान किया जाता है उनकी नकदी की मांग महंगाई की वजह से बढ़ गई है और ऐसे लोगों की संख्या करोड़ों में है। उन्हें हर लेन-देन के लिए ज्यादा नोटों की जरूरत होती है। यह उनके लिए आसान भी है।
राजनीतिक नेता फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं। नकदी के लिए उनकी मांग, कम होने के बजाय बढ़ी है क्योंकि मार्च 2017 के बाद से मतदाताओं की संख्या में 15 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसका मतलब यह है कि नकदी की मांग में वृद्धि होगी भले ही प्रति मतदाता खर्च की गई राशि समान या केवल थोड़ी ही बढ़ती हो।

निश्चित मत नहीं
जब आप इन सब बातों को जोड़ कर देखते हैं तो आप पाएंगे कि नोटबंदी को लेकर सचमुच कोई स्पष्टता नहीं है। लोग जिन बातों पर विश्वास करना चाहते हैं, उस पर ही विश्वास करेंगे। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इसके लिए आर्थिक कारण को वजह बताते हैं जबकि कुछ इसके लिए राजनीतिक इरादों पर जोर देते हैं। कुछ लोग इसके मनोवैज्ञानिक कारणों पर जोर देते हैं तो कुछ इसे एक विशुद्ध व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखते हैं।
कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनका कहना है कि इससे अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा और कुछ इससे सहमति जताते हुए कहते हैं कि यह नुकसान थोड़े वक्त के लिए ही हुआ। कुछ का कहना है कि यह नुकसान स्थायी है क्योंकि नोटबंदी से पहले असंगठित क्षेत्र से होने वाले उत्पादन की जगह अब संगठित क्षेत्र ने ले ली है। नोटबंदी के समर्थकों का कहना है कि यह एक अच्छी बात है।
आखिर में सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल पूछना संभवत: सबसे अच्छा होगा कि इस फैसले से सबसे अधिक लाभ किसे हुआ। इस फैसले में दो स्पष्ट विजेता उभरते है: राजनीतिक रूप से भाजपा और वाणिज्यिक तौर पर डिजिटल अर्थव्यवस्था का बढ़ता बोलबाला।
अब यह प्रत्येक नागरिक पर निर्भर करता है कि वे दोनों का संतुलित तरीके से आकलन कर खुद ही तय करें कि नोटबंदी आपदा थी या वरदान। मेरा अनुमान है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के फैसले की तरह ही शायद हम नोटबंदी को लेकर भी कभी निश्चित नहीं हो पाएंगे।

आवारा पशुउत्तर प्रदेशऐंबुलेंस सेवागायमाइक्रोचिपयोगी सरकार
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