अगर मुझे 10 मिनट के लिए कोई दैवीय शक्ति मिल जाती और मैं आपसे अपने पीछे कुछ दोहराने को कह पाता तो मैं आपसे तीन बार यह दोहराने को कहता:
चौथी और सबसे महत्त्वपूर्ण बात जो मैं आपसे दोहराने के लिए कह सकता हूं वह है:
इन बातों के साथ ही हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि दिक्कतें भी हैं। आज पंजाब में व्यापक गुस्सा और हताशा है, खासकर सिखों के बीच। यह बढ़ती धार्मिकता और रूढ़िवादिता, देशभक्ति की नई परिभाषाओं और परीक्षणों में भी जाहिर होता है जिनसे उन्हें गुजरना पड़ता है। खासतौर पर सोशल मीडिया और टेलीविजन चैनलों पर। एक खतरनाक अलगाव नजर आ रहा है। हालांकि यह अलगाव उनके देश से नहीं बल्कि राष्ट्रीय राजनीति को लेकर है।
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देश के तटवर्ती इलाकों की औद्योगिक प्रगति के समक्ष पंजाब का आर्थिक पराभव वहां के लोगों में हताशा और नाराजगी लाने वाला है और इसे आसानी से समझा जा सकता है। हम पहले भी इस स्तंभ में इस विषय पर बात कर चुके हैं। जब कोई राज्य 20 वर्ष की अवधि में नंबर एक (एक करोड़ से अधिक आबादी वाले राज्यों में) से नंबर 13 पर पहुंच जाता है तो यह बात न केवल वहां के लोगों को आर्थिक रूप से दुख पहुंचाती है बल्कि उनके आत्म सम्मान को भी क्षति पहुंचाती है। यह एक रसूखदार समुदाय के लिए खासा दुखद है।
पंजाब कृषि संबंधी जाल में उलझ गया है जबकि कई अन्य बड़े राज्यों ने उद्योगों और सेवाओं खासकर आईटी सेवाओं के बल पर इस जाल को काटा है।
इसे बेहतर ढंग से समझने के लिए, हमें सिख प्रवासियों पर करीबी नजर डालनी होगी, खासकर कनाडा में रहने वाले सिखों पर। पिछले संपूर्ण आंकड़े वर्ष 2020-21 के लिए उपलब्ध हैं और उस वर्ष भारत को करीब 80.2 अरब डॉलर मूल्य की राशि विदेशों से प्रेषित की गई।
इसमें 23.4 फीसदी हिस्सेदारी के साथ अमेरिका सबसे ऊपर था। उसके बाद क्रमश: संयुक्त अरब अमीरात, बिटेन, सिंगापुर, सऊदी अरब, कुवैत, ओमान और कतर का नंबर था। आपको लगा होगा हम कनाडा को भूल गए क्योंकि वहां तो इतनी बड़ी तादाद में खुशहाल पंजाबी समुदाय रहता है।
आंकड़े आपको हमारे पंजाब और कनाडा के कई छोटे पंजाबों की राजनीति और वहां के गहरे संकट से रूबरू कराएंगे। कनाडा में करीब 10 लाख पंजाबी हैं जिनमें आठ लाख सिख हैं और वहां से धन भेजने वालों की सूची में उनका स्थान 12वां है। वे हॉन्गकॉन्ग, ऑस्ट्रेलिया और मलेशिया से भी पीछे हैं। यह राशि कुल आंकड़े का 0.6 फीसदी है।
इससे दो बातें पता चलती हैं। पहली यह कि कनाडा के सिख अभी भी कम वेतन वाले रोजगार में हैं या उनका छोटामोटा कारोबार है और वे इतना नहीं कमाते कि धन वापस भारत भेज सकें। यानी कौशल और रोजगार की मूल्य श्रृंखला में पंजाब देश के दक्षिण और पश्चिम में स्थित राज्यों से पीछे छूट गया है। पंजाब अजीब विडंबना में फंस गया है। वहां के लोग गरीब नहीं हैं। गरीबी के आंकड़ों में वह देश में सबसे नीचे स्थित राज्यों में है। बहरहाल, उसकी अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है। कई बार कृषि उपज अच्छी होती है लेकिन युवा खेती नहीं करना चाहते हैं।
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ऐसे में वहां हिंदी प्रदेश से सस्ते श्रमिक आयात किए जाते हैं जो मुख्य रूप से बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आते हैं। इन्हें पंजाब में ‘भैया’ कहकर पुकारा जाता है। इसके साथ ही पंजाब के युवा कनाडा जाने के लिए अपने कई वर्ष बरबाद करते हैं। इस सिलसिले में वे अपने परिवार की बचत खर्च करते हैं, चोरी करते हैं या उधार लेते हैं और वहां जाकर वे वैसी ही नौकरियां करते हैं जिनके लिए वे पंजाब में उत्तर प्रदेश-बिहार के लोगों को काम पर रखते हैं।
कनाडा में बसे पंजाबियों की आय तो कम है ही साथ ही वे देश में कम धनराशि इसलिए भी भेजते हैं कि वे इसके लिए अनौपचारिक माध्यमों का इस्तेमाल करते हैं। यह पैसा भी परिवार के अन्य सदस्यों को कनाडा भेजने के क्रम में वापस कनाडा चला जाता है। ऐसे काम के लिए चेक या बैंक से पैसा नहीं दिया जाता। पंजाब में 1993 में शांति स्थापना हुई थी और ऐसी हुई कि पंजाब किसी भी हिंदी भाषी राज्य की तुलना में अधिक शांत और सुरक्षित है। अगर वहां के लोग अब तक वास्तविक शांति की कीमत नहीं समझे हैं तो यह राजनीतिक वर्ग की भारी विफलता है।
इससे गुस्सा और हताशा उत्पन्न होती है। इससे भी अधिक परेशान करने वाली बात है राष्ट्रीय राजनीति और उसमें सिखों की जगह को लेकर आशंका। सिख न केवल खुद को हाशिये पर महसूस कर रहे हैं, खासकर भारतीय जनता पार्टी-अकाली दल गठबंधन टूटने के बाद, बल्कि वे भाजपा, हिंदुत्व के उभार और हिंदू राष्ट्र की बढ़ती मांग से भी नाराज हैं।
पंजाब में किसी भी युवा या बुजुर्ग से अगर आप पूछेंगे कि क्या वे खालिस्तान चाहते हैं तो लगभग हर व्यक्ति इनकार करेगा, बशर्ते कि कोई आपकी टांग न खींचना चाहता हो। उसके बाद उनसे पूछिए कि वे खालिस्तान का नारा बुलंद करने वालों को विरोध क्यों नहीं करते।
अगर आप पंजाब के गांवों-गलियों में ऐसे सवाल करेंगे तो जल्दी ही कोई आपसे प्रतिप्रश्न करेगा: अगर लोग हिंदू राष्ट्र की बात कर सकते हैं तो सिख राष्ट्र की बात से इतनी नाराजगी क्यों? अगर आप धर्म के नाम पर एक राष्ट्र बना सकते हैं तो दूसरा क्यों नहीं?
शक्तिशाली भाजपा का उभार, सिखों खासकर पंजाबी सिखों के प्रतिनिधित्व की कमी, अकाली दल का अलग-थलग पड़ना और उनकी नजर में मुस्लिम अल्पसंख्यकों को निशाना बनाए जाने ने पंजाब पर गहरा असर डाला है। अगर इसे नकारना आपको सहज करता है तो आप ऐसे रह सकते हैं लेकिन लंबे समय तक नहीं।
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याद कीजिए कैसे गुरुग्राम के सिखों ने पार्कों में नमाज पढ़ने से रोके गए मुसलमानों को अपने गुरुद्वारों की पेशकश की थी या फिर कैसे दिल्ली के बाहरी इलाकों में किसान आंदोलन के दौरान मुस्लिम कार्यकर्ताओं ने सिख किसानों के लिए लंगर आयोजित किए थे। अगर भाजपा मानती है कि सिख अभी भी मुस्लिमों के विरुद्ध हैं और वे महान सिख गुरुओं या विभाजन के दौर की भावना अब तक पाले हुए हैं तो वे गलत हैं।
सिखों को लगता है कि हिसाब बराबर हो गया है और अब उन्हें कोई खतरा नहीं महसूस होता है। इसके अलावा केवल धर्म उनकी पहचान का इकलौता निर्धारक नहीं है। भाषा और संस्कृति भी है। पाकिस्तान में पंजाबियों के बहुमत से वे काफी समानता रखते हैं लेकिन अगर पाकिस्तान ने एक बार फिर भारत पर हमला किया तो क्या वे मोर्चे पर सबसे आगे नहीं दिखेंगे? दिखेंगे। हिंदुओं के साथ भी उनमें बहुत समानताएं हैं, लेकिन ध्रुवीकृत भारत में उन्हें हिंदुओं में गिनना भूल होगी।
भारतीय सिखों में से 77 फीसदी पंजाब में रहते हैं। प्यू सर्वेक्षण में कहा गया है कि 93 फीसदी सिखों को पंजाब में रहने पर गर्व है और 95 फीसदी को भारतीय होने पर गर्व है। 10 में से 8 सिख सांप्रदायिक हिंसा को एक बड़ी समस्या मानते हैं। हिंदुओं और मुस्लिमों में से केवल 65 फीसदी ऐसा मानते हैं। इसे भाजपा आरएसएस की राजनीति की विफलता माना जाएगा कि वे पंजाब में निराशा और हताशा में इजाफा कर रही इस भावना को समझ नहीं पा रहे हैं। कनाडा में रह रहे भगोड़े इसका लाभ ले रहे हैं।