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COP-30 से अमेरिका के बाहर होने के बाद जलवायु कार्रवाई की जिम्मेदारी अब ईयू, चीन और भारत पर

भारत, जो उत्सर्जन के मामले में तीसरे स्थान पर काफी पीछे है, अपने जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने में अच्छी प्रगति कर रहा है

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राजीव खेर   
अंशुमान गुप्ता   
Last Updated- December 11, 2025 | 11:23 PM IST

अमेरिका का पक्षकारों के 30वें सम्मेलन (कॉप 30) से नदारद रहना पेरिस समझौते से उसके हटने के बाद जलवायु परिवर्तन के उपायों को कमजोर करने वाला अगला कदम माना जा सकता है। कुछ महीने पहले अमेरिकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी (ईपीए) ने अपने ‘खतरे के निष्कर्षों’ की औपचारिक समीक्षा करने का फैसला किया जिससे जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक आधार पर भी सवाल उठने लगे। ईपीए के कदम का अमेरिकी सरकार द्वारा समर्थित अनुसंधान कार्यक्रमों पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा और इसका संबंधित कार्य योजनाओं के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

ग्रीनहाउस गैसों का सर्वाधिक उत्सर्जन करने वाले देशों एवं समूहों में से एक यूरोपीय संघ (ईयू) ने क्रमशः 2019 और 2021 में ‘ग्रीन डील’ और ‘फिट फॉर 55’ पैकेज अपनाया था। इसने अपनी पेरिस प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए वर्ष 2030 तक उत्सर्जन 55 फीसदी तक कम करने और अंततः 2050 तक विशुद्ध शून्य (नेट-जीरो) उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने की योजना बनाई है। हालांकि, व्हाइट हाउस में डॉनल्ड ट्रंप के दूसरे कार्यकाल ने ईयू की योजनाओं की राह में मुश्किलें पैदा कर दी हैं।

ईयू पर थोपे गए ‘नए समझौते’ के अनुसार इस समूह को अपनी सुरक्षा का जिम्मा उठाना होगा, अंदरूनी नई चुनौतियों का सामना करते हुए बेहतर राजनीतिक एकीकरण सुनिश्चित करना होगा और अपनी स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए बाहरी दुनिया से मजबूत आर्थिक और रणनीतिक संबंध बनाने होंगे। सस्ते रूसी तेल एवं गैस की आपूर्ति थमने से ईयू अधिक महंगी ऊर्जा संसाधनों की तलाश करने के लिए विवश हो गया है। इसे नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों के अधिक इस्तेमाल की तरफ कदम बढ़ाने को मजबूर होना पड़ा है।

अमेरिका की मांग है कि नाटो सदस्य अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 3 फीसदी अपने रक्षा बजट पर खर्च करें जिससे ईयू के लिए अपने जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने का काम और भी मुश्किल हो जाएगा।

चीन (सर्वाधिक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन करने वाला देश) ने पेरिस समझौते के तहत कोई पूर्ण कटौती प्रतिबद्धता नहीं दिखाई है। वर्ष 2030 के लिए चीन के अद्यतन देशवार निर्धारित योगदान (एनडीसी) लक्ष्यों में 2005 के स्तर से जीडीपी प्रति यूनिट कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में 65 फीसदी की कटौती करना, गैर-जीवाश्म-ईंधन ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ाकर लगभग 25 फीसदी करना, वनों का क्षेत्र 6 अरब घन मीटर मीटर तक बढ़ाना और पवन व सौर ऊर्जा की स्थापित क्षमता 1,200 गीगावॉट से अधिक करना शामिल है।

इसने वर्ष 2030 के आसपास चरम तक पहुंचने और 2060 तक विशुद्ध शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने का वादा किया है। उत्सर्जन में पूर्ण कटौती का लक्ष्य का हासिल करने से जुड़ा कोई वादा नहीं कर चीन अपनी मात्रात्मक प्रतिबद्धता पूरा करते हुए कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को बढ़ाकर अभी भी उत्सर्जन बढ़ा सकता है। औद्योगिक नीति द्वारा सक्षम हरित तकनीक (ग्रीन टेक्नॉलजी) में चीन की दमदार उपस्थिति दुनिया को कम लागत पर हरित अर्थव्यवस्था में बदलने में मदद कर रही है। मगर चीन की अर्थव्यवस्था अत्यधिक आंतरिक तनाव में है और अगर ट्रंप के शुल्क मुद्दों पर पारस्परिक रूप से स्वीकार्य समझौता जल्द नहीं हो पाता है तो इस पर बाहरी दबाव भी बढ़ेगा।

इन घटनाक्रमों का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। इससे मध्यम अवधि में हरित ऊर्जा की तरफ कदम बढ़ाना (ग्रीन ट्रांजिशन) भी धीमा हो जाएगा, क्योंकि प्रमुख उत्सर्जकों को वित्तीय बाधाओं का सामना करना पड़ेगा। अमेरिका के कदमों से चीन कोयला संयंत्रों को बंद करने के लिए भी अब अधिक दबाव महसूस नहीं करेगा। यह मानते हुए कि चीन की अर्थव्यवस्था 5 से 6 फीसदी की दर से बढ़ती रहेगी (ऊर्जा की मांग में वृद्धि के साथ) यह जीवाश्म और गैर-जीवाश्म दोनों प्रकार के ईंधन पर निर्भर रह सकती है। इससे उत्सर्जन का स्तर बढ़ता रहेगा।

भारत एक दूरस्थ तीसरा उत्सर्जक होने के नाते अपनी जलवायु प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में अच्छी प्रगति कर रहा है। इसे वर्ष2025 में जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक में 10वें स्थान पर रखा गया है (चीन के 55वें स्थान के मुकाबले)। भारत अपनी सभी प्रतिबद्धताओं पर समय से बहुत आगे है और ग्रिड-आधारित और ऑफ-ग्रिड दोनों नवीकरणीय परियोजनाओं को तैनात करने में तेजी से प्रगति कर रहा है। हालांकि, यह बिजली उत्पादन के लिए कोयले पर बहुत अधिक निर्भर है।

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इन हालात के बीच यूरोपीय संघ, चीन और भारत को वैश्विक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी। यूरोपीय संघ को गरीब देशों की चिंताओं को दूर कर और वित्तीय और तकनीकी सहायता बढ़ाकर जलवायु के मुद्दे पर अग्रणी समूह होने के अपने रुतबे को फिर से स्थापित करना होगा। चीन को सस्ती कीमतों पर हरित तकनीक तक पहुंच प्रदान कर ‘ग्लोबल साउथ’ (दुनिया के पिछड़े एवं विकासशील देशों) की मदद करनी चाहिए और भारत को स्वयं अंदरूनी स्तर पर प्रयास और तेज कर इन अर्थव्यवस्थाओं में हरित परियोजनाओं के विकास में मदद करनी चाहिए।

इससे अच्छे राजनयिक एवं कारोबारी संकेत भी बाहर जाएंगे। अमेरिका के रुख में सकारात्मक बदलाव होने तक वे कार्बन कैप्चर, यूटिलाइजेशन ऐंड स्टोरेज (सीसीयूएस) टेक्नॉलजी सहित सभी जलवायु समाधानों पर साक्ष्य-आधारित जलवायु-संबंधी अनुसंधान कार्यक्रमों को भी जारी रख सकते हैं और इन्हें बढ़ावा दे सकते हैं। हालांकि, वे बढ़ती वैश्विक बाधाओं के बीच ऐसा कर पाएंगे या नहीं यह एक बड़ा सवाल है।


(लेखक क्रमशः आरआईएस में फेलो और कंसल्टेंट हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

First Published : December 11, 2025 | 9:46 PM IST