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भारत के लिए दो बड़े जोखिम एवं दो बड़ी चुनौतियां…

चीन में शेयर सस्ते हैं, इसलिए वहां जमकर निवेश हो रहा है। चीन में आर्थिक प्रोत्साहनों की घोषणा के बाद पिछले कुछ सप्ताह में निवेश बहुत बढ़ गया है।

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टी टी राम मोहन   
Last Updated- October 15, 2024 | 10:41 PM IST

भारत अपनी अंदरूनी आर्थिक अस्थिरता से निपटने में सफल रहा है मगर अब बाहरी कारक इसकी आर्थिक तरक्की में खलल डाल सकते हैं। चर्चा कर रहे हैं टी टी राममोहन

वित्त मंत्रालय ने विश्वास जताया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था वित्त वर्ष 2025 में 6.5 से 7.0 प्रतिशत वृद्धि दर हासिल कर लेगी, जिसका अनुमान 2023-24 की आर्थिक समीक्षा में जताया गया था। मंत्रालय ने 26 सितंबर को जारी अर्थव्यवस्था की समीक्षा में यह भरोसा जताया है। मगर उसके बाद के दो हफ्तों में बदलते वैश्विक घटनाक्रम के बीच ये लक्ष्य सहज नहीं दिखाई दे रहे हैं।

इन दो हफ्तों में तेल के दाम लगभग 80 बैरल प्रति डॉलर तक पहुंच गए हैं। सितंबर के मुकाबले इनमें 16 प्रतिशत तेजी आई है। हालांकि भारतीय अर्थव्यवस्था को तेल के दाम बढ़ने से फिलहाल कोई दिक्कत नहीं होगी और वह इससे आसानी से निपट लेगी। मगर कच्चा तेल 100 डॉलर प्रति बैरल के पार चला गया तो भारत की चिंता बढ़ सकती है।

आशावादी रुख रखने वाले कहेंगे, ‘इसमें नई बात क्या है। फरवरी 2022 में रूस ने यूक्रेन पर हमला किया था और उसके बाद 30 महीने से भी बड़े अरसे में दुनिया ने तेल के दाम से जुड़ी चिंता को दरकिनार ही रखा है। जून 2022 में तेल के दाम 120 डॉलर प्रति बैरल के पास पहुंच गए थे मगर जुलाई 2022 के बाद ये 100 डॉलर के नीचे चले गए और ज्यादातर समय 80 डॉलर से नीचे रहे हैं।‘

ऐसा दो वजहों से हुआ। पहले तो उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (NATO) और यूरोपीय संघ (EU) ने तय कर दिया कि रूस से 60 डॉलर प्रति बैरल से कम पर तेल नहीं खरीदा जाएगा। साथ ही उन्होंने रूस से तेल आयात पर निर्भरता भी कम कर ली। 60 डॉलर की यह सीमा बहुत कारगर रही। दूसरी वजह नपे-तुले बढ़ावे का सिद्धांत रही। इस सिद्धांत के अनुसार नाटो यूक्रेन को धीरे-धीरे रूस से लड़ने लायक बनाएगा।

टकराव को बढ़ावा देने की इस सीढ़ी के हर पायदान पर ऐसे चढ़ा जाएगा कि नाटो का रूस से सीधा टकराव नहीं होगा। अब तक रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध को काबू में रखा गया है और इसके कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था पटरी से नहीं उतरी है।

इजरायल और ‘प्रतिरोध की धुरी’ (ईरान और इसके सहयोगी हिजबुल्ला, हमास तथा हूती) के बीच टकराव में भी यही सिद्धांत अपनाया गया है। इजरायल पिछले एक वर्ष से लेबनान के साथ लगने वाली अपनी उत्तरी सीमा पर हिजबुल्ला से लड़ रहा है। यह टकराव सीमा के दोनों और छोटी सी पट्टी में हो रहा है और दोनों तरफ जान-माल का अधिक नुकसान नहीं हुआ है। हां, ईरान और इजरायल ने एक दूसरे को जवाब देने के लिए मिसाइल दागी हैं, जिनमें हुए नुकसान से दोनों देशों को दिक्कत नहीं है।

टकराव को नपा-तुला बढ़ावा देने में चूक का जोखिम सदैव रहता है। एक पक्ष या दोनों पक्ष किसी न किसी बिंदु पर बरदाश्त की हद पार कर जाते हैं। अब सवाल हिसाब में गलती करने का नहीं बल्कि इजरायल के नपे-तुले हिसाब या रणनीति का है।

पिछले कुछ हफ्तों में हमास के खिलाफ मिली सफलता से उत्साहित प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू मानने लगे हैं कि ‘पश्चिम एशिया को बदलने का’ समय आ गया है। ऐसे में न केवल टकराव बढ़ने का ही नहीं सैन्य अभियान लंबे समय तक जारी रहने का की आशंका है बल्कि लंबे समय तक सैन्य अभियान जारी रहने का भी अंदेशा है।

नवंबर में अमेरिकी चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप की जीत हुई तो जोखिम और बढ़ सकते हैं। इजरायल पर ईरान के मिसाइल हमले के बाद ट्रंप चाहते हैं कि इजरायल उसके परमाणु संयंत्रों पर हमला करे। हो सकता है कि चुनाव से पहले अपनी जीत की संभावनाएं बढ़ाने के लिए ही ट्रंप ऐसा कह रहे हों मगर ईरान पर उनके तीखे तेवर पश्चिम एशिया और विश्व अर्थव्यवस्था के लिए साफ खतरा हैं।

ट्रंप की जीत से एक और जोखिम खड़ा हो सकता है जिस पर शक-शुबहा कम ही है। ट्रंप ने कंपनियों और व्यक्तिगत करदाताओं के लिए करों में भारी कमी के, शुल्क ऊंचे रखने के और नियम-कायदे आसान बनाने के वादे किए हैं।

उन्हें लगता है कि कर कम करने पर वे खुद पर खर्च करेंगे और आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा मिलेगा। मगर कई अर्थशास्त्री शंकालु दिखते हैं। उन्हें लगता है कि कर कटौती से राजकोषीय घाटा बढ़ जाएगा, सार्वजनिक ऋण बढ़ेगा और आगे चलकर अमेरिका की वृद्धि दर सुस्त हो जाएगी।

ट्रंप ने लगभग सभी देशों से आयात पर 20 प्रतिशत और चीन से आने वाले सामान पर 60 प्रतिशत शुल्क लगाने का वादा किया है। वह ऊंचे शुल्क को स्थानीय विनिर्माण उद्योग की सुरक्षा का उपाय मानते हैं और कर कटौती से राजस्व को होने वाले नुकसान की भरपाई का स्रोत भी समझते हैं।

अर्थशास्त्रियों ने इस पर आपत्ति जताई है मगर अमेरिका में कई दिग्गज कारोबारी मानते हैं कि ट्रंप का सोचना बिल्कुल सही है। दीर्घकालिक असर जो भी दिखे यह तय है कि ट्रंप की नीतियां निकट भविष्य में वैश्विक अर्थव्यवस्था में उथल-पुथल ला देंगी।

दोनों जोखिम समूची विश्व अर्थव्यस्था पर लागू होते हैं। इनके अलावा दो चुनौतियां भारत से सीधे जुड़ी हैं। इनमें पहली प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) से जुड़ी है। 2023-24 में शुद्ध एफडीआई (देश में आने वाले कुल एफडीआई में से बाहर जाने वाले कुल एफडीआई को घटाने पर मिली रकम) 2021-22 की तुलना में 28 अरब डॉलर से भी ज्यादा घट गया।

समीक्षा में इसकी वजह बताते हुए कहा गया कि विदेशी निवेशक 2023-24 में ज्यादा मुनाफा यहां से समेटकर अपने देश ले गए। समीक्षा के अनुसार यह घबराने की बात नहीं है क्योंकि इससे विदेशी निवेशकों में भरोसा जगता है कि वे भारत में हुआ मुनाफा बिना दिक्कत अपने देश ले जा सकते हैं। लेकिन शुद्ध एफडीआई में कमी मुनाफा निकलने की वजह से ही नहीं हो रही।

2021-22 में एफडीआई की कुल आवक 85 अरब डॉलर थी, जो 2023-24 में घटकर 71 अरब डॉलर ही रह गई। समीक्षा में कहा गया है कि 2023 में तेजी से उभरते बाजारों में कुल एफडीआई आवक 15 प्रतिशत घटी है, जिसका असर भारत पर भी पड़ा है। लेकिन जब भारत खुद को एफडीआई के लिए चीन का विकल्प बता रहा है तब ऐसा नहीं होना चाहिए।

कुछ विश्लेषकों को लगता है कि एफडीआई में कमी वे द्विपक्षीय निवेश संधियां खत्म करने के भारत के फैसले के कारण आई है, जिनमें तीसरा पक्ष मध्यस्थता कर सकता था। इससे विदेशी निवेशक घबरा गए हैं। हो सकता है कि एफडीआई निवेश घटने की वजह भी वही हो, जिसके कारण हाल के वर्षों में देसी निजी निवेश थमा हुआ है। अगर वित्त वर्ष 2025 में सकल एफडीआई तेजी से नहीं बढ़ा तो फिक्र की बात होगी।

दूसरी चुनौती विदेशी संस्थागत निवेश (एफआईआई) की आवक से जुड़ी है, जो कुछ समय तक रहेगी। 2023-24 में भारत में 44 अरब डॉलर एफआईआई आया। वित्त वर्ष 2025 की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में 6.3 अरब डॉलर एफआईआई ही आया, जो 2023-24 की समान तिमाही में 20.5 अरब डॉलर था।

विश्लेषकों के मुताबिक ऐसा होना ही था क्योंकि भारतीय शेयर महंगे हो गए हैं। चीन में शेयर सस्ते हैं, इसलिए वहां जमकर निवेश हो रहा है। चीन में आर्थिक प्रोत्साहनों की घोषणा के बाद पिछले कुछ सप्ताह में निवेश बहुत बढ़ गया है।

पूंजी प्रवाह में कमी और कच्चे तेल का दाम 100 डॉलर प्रति बैरल से अधिक होना भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए सुखद स्थिति नहीं होगी। यह खुशी की बात है कि फिलहाल भारतीय की बाह्य स्थिति काफी मजबूत है और ऐसे हालात से निपट सकती है। मगर तेल के ऊंचे दाम और वैश्विक अर्थव्यवस्था में उथल-पुथल आर्थिक वृद्धि के अनुमानों को चोट पहुंचा सकते हैं।

पिछले कई वर्षों में भारत अर्थव्यवस्था के भीतर अस्थिरता लाने वाले स्रोतों से निपटने में कामयाब रहा है। अब आर्थिक वृद्धि एवं स्थिरता को बाहरी कारणों (भू-राजनीतिक जोखिम, संरक्षणवाद और पश्चिमी देशों में बैंकिंग तंत्र में अस्थिरता) से खतरा है।

First Published : October 15, 2024 | 10:27 PM IST