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Trade war: वैश्विक विनिर्माण आकर्षित करने का भारत के लिए दूसरा मौका

भारत से होने वाला सेवा व्यापार एक बड़ी सफलता बन चुका है। 2005 से 2023 के बीच, वैश्विक सेवा निर्यात में भारत की हिस्सेदारी 2% से बढ़कर 4% से अधिक हो गई है। बता रही हैं

Last Updated- July 22, 2025 | 10:20 PM IST
India US Trade Deal

किसी अन्य देश की तरह ही भारत भी वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ वस्तुओं, सेवाओं और वित्तीय आदान-प्रदान के माध्यम से जुड़ता है। भारत ने सेवा और वित्तीय क्षेत्रों में शानदार प्रदर्शन किया है और अब इसके पास वैश्विक वस्तु व्यापार में एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में उभरने का मौका है। इसके कारण भारत की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि को रफ्तार मिल सकती है। बहरहाल, अहम सवाल यह है कि क्या हमारे नीति-निर्माता इस बदलाव को संभव बना सकते हैं?

भारत से होने वाला सेवा व्यापार एक बड़ी सफलता बन गया है। वर्ष 2005 से 2023 तक भारत की वैश्विक सेवा निर्यात में हिस्सेदारी दोगुनी हो गई है और यह 2 फीसदी से बढ़कर 4 फीसदी से अधिक हो गई है। पिछले दशक में, सेवा निर्यात सालाना 8 फीसदी से अधिक बढ़ा और अब यह भारत के कुल निर्यात का 44 फीसदी है, जो 25 फीसदी के वैश्विक औसत से काफी अधिक है।

ठीक इसी दौरान, पूंजी नियंत्रण में धीरे-धीरे दी गई ढील ने भारत के वित्तीय एकीकरण को मजबूत किया है। वर्ष 2011 और 2023 के बीच, विदेशी पोर्टफोलियो निवेश 180 अरब डॉलर से बढ़कर 460 अरब डॉलर हो गया, जिससे जीडीपी में उनकी हिस्सेदारी 11 फीसदी से बढ़कर 14 फीसदी हो गई।

इसके विपरीत, वस्तु निर्यात काफी पिछड़ गया है। वर्ष 2014 से 2024 तक इसमें सालाना केवल 3 फीसदी की दर से बढ़ोतरी हुई और यह इसके पिछले दशक के 17 फीसदी से काफी कम है। यह मंदी वास्तव में संरक्षणवाद में वृद्धि के साथ हुई क्योंकि औसत आयात शुल्क 2013 के 6  फीसदी से बढ़कर वर्ष 2023 में 12 फीसदी हो गया।

भारत के विपरीत, वैश्विक वस्तु निर्यात में चीन की हिस्सेदारी वर्ष 2001 के 4 फीसदी से बढ़कर वर्ष 2024 में 14 फीसदी से अधिक हो गई। हालांकि, इसका उभार विवादास्पद रहा है। चीन पर अक्सर विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के नियमों का उल्लंघन कर सब्सिडी, कर छूट और सस्ते ऋण के साथ अपने विनिर्माताओं का अनुचित समर्थन करने का आरोप लगाया जाता है।

वर्ष 2017 से स्थिति और खराब हो गई क्योंकि चीन में अधिनायकवादी शासन का दबदबा और बढ़ गया। लगभग तीन साल तक कोविड-19 के कारण लगाए गए सख्त लॉकडाउन और इसके परिणामस्वरूप आपूर्ति श्रृंखला में बाधाओं के चलते इसकी अर्थव्यवस्था पर अत्यधिक निर्भरता से जुड़े जोखिम उजागर हुए। इसने चीन के सबसे बड़े निर्यात बाजार अमेरिका में राजनीतिक चिंताएं बढ़ाईं और साथ ही निर्भरता कम करने के प्रयासों को भी बढ़ावा दिया। अमेरिकी व्यापार नीति में आज का बड़ा बदलाव काफी हद तक इसी के कारण है।

कोविड के बाद, वैश्विक निर्माताओं ने ‘चीन+1’ की रणनीति अपनाते हुए अपनी आपूर्ति श्रृंखला के कुछ हिस्सों को अन्य देशों में स्थानांतरित करने की कवायद शुरू कर दी। वियतनाम, थाईलैंड, कंबोडिया और मलेशिया को इसका फायदा मिला लेकिन भारत नीतिगत बाधाओं के कारण बड़े पैमाने पर यह मौका चूक गया। वर्ष 2017 से 2023 तक, वैश्विक वस्तु निर्यात में भारत की हिस्सेदारी लगभग 1.7-1.8 फीसदी पर स्थिर रही जबकि छोटे से देश वियतनाम की हिस्सेदारी 1.5 से बढ़कर 1.9 फीसदी हो गई। व्यापार युद्ध के ताजातरीन चरण में, अमेरिका ने कनाडा और मेक्सिको सहित 16 देशों के आयात पर 25-40 फीसदी शुल्क लगाने की धमकी दी है और 1 अगस्त से यूरोपीय संघ (ईयू) पर 30 फीसदी शुल्क प्रभावी होगा। चीन की वस्तुओं पर शुल्क पहले ही 30 फीसदी से अधिक है जबकि भारत को अभी केवल 10 फीसदी के बुनियादी शुल्क का सामना करना पड़ रहा है।

बढ़ती निर्यात लागतों के कारण, बहुराष्ट्रीय कंपनियां नए विनिर्माण केंद्र तलाश रही हैं। इसके कारण भारत को वैश्विक वस्तु व्यापार में अपनी भूमिका बढ़ाने का एक और अवसर मिला है और घरेलू अर्थव्यवस्था धीमी होने के कारण यह एक महत्त्वपूर्ण अवसर है। वस्तुओं के निर्यात में वृद्धि से कुल जीडीपी वृद्धि की गति बढ़ सकती है। ऐसे में अब अहम सवाल यह है कि क्या भारतीय नीति-निर्माता इस मौके का फायदा उठा सकते हैं? इसके दो महत्त्वपूर्ण उद्देश्य हैं और वह है बाजार में पहुंच बनाए रखना या बढ़ाना और वैश्विक विनिर्माण व्यापार में निर्यात की हिस्सेदारी में उल्लेखनीय बढ़ोतरी करना।

आदर्श तरीके से देखें तो भारत को अमेरिका के साथ एक अनुकूल व्यापार करार करना चाहिए ताकि उसे प्रतिस्पर्धियों पर मजबूत बढ़त मिल पाए। अगर ऐसा नहीं होता है तब भी उसे अन्य देशों की तुलना में कम शुल्क से लाभ मिल सकता है। अमेरिका के नतीजों की परवाह किए बिना, भारत के पास बाकी दुनिया के साथ व्यापार करने की गुंजाइश होगी। इसके अलावा ब्रिटेन के साथ हो रही प्रगति और यूरोपीय संघ के साथ संभावित बातचीत कई मौके तैयार करेगी। अहम पहलू यह भी है कि भारत को चीन और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संगठन (आसियान) के साथ समझौतों के माध्यम से वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं से जुड़ना चाहिए और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को बढ़ावा देने के लिए द्विपक्षीय निवेश संधियों की फिर से शुरुआत करनी चाहिए।

भारतीय नीति-निर्माताओं को विदेशी निवेशकों के लिए विनिर्माण को और आकर्षक बनाना चाहिए और व्यापार बाधाएं कम करने के लिए प्रमुख सुधारों पर अमल करना चाहिए। ‘मेक इन इंडिया’ (2014) और उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजना (2020) जैसे प्रयासों के बावजूद, जीडीपी में विनिर्माण की हिस्सेदारी लगभग 17 फीसदी पर स्थिर बनी हुई है। निजी निवेश कमजोर बना हुआ है और ‘चीन+1’ रुझान के बावजूद एफडीआई प्रवाह वर्ष 2020 में पूंजी निर्माण के 8.8 फीसदी से घट कर 2024 में सिर्फ 2.3 फीसदी रह गया।

इससे अंदाजा मिलता है कि केवल सब्सिडी, कंपनियों के सामने आने वाली अफसरशाही से जुड़ी चुनौतियों और नियामकीय बाधाओं को दूर नहीं कर सकती है। नीति-निर्माताओं को विनिर्माताओं के लिए लागत सरल बनाने के साथ उसे कम करना चाहिए ताकि इसके कारण भूमि अधिग्रहण, श्रमिकों की भर्ती करना, मंत्रालयों से अनुमोदन पाना और अधिक बाधाओं के बिना कच्चे माल का आयात करना आसान हो सके।

कंपनियां चाहे विदेशी या घरेलू, वे तभी अधिक निवेश करती हैं जब अच्छे रिटर्न मिलने की संभावना होती है और जोखिम कम होता है। हालांकि, भारत में अप्रत्याशित कदमों जैसे पिछली तारीख से लागू किए जाने वाले कर, बढ़े हुए शुल्क, आयात प्रतिबंध और अचानक कई तरह के नियमन के कारण नीतिगत जोखिम की स्थिति बनी हुई है। निवेश आकर्षित करने के लिए, भारत को एक स्थिर और प्रत्याशित नीतिगत वातावरण बनाना चाहिए और नीतियों में स्थिरता सुनिश्चित करने के साथ ही एफडीआई नियमों में ढील देनी चाहिए। भारत को एक स्पष्ट और विश्वसनीय व्यापार नीति की भी आवश्यकता है जो शुल्क कम करे और वर्ष 2014 से बड़ी तादाद में दिए गए गुणवत्ता नियंत्रण आदेशों जैसे मनमाने गैर-शुल्क बाधाओं को दूर करे।

अमेरिका द्वारा छेड़े गए इस व्यापार युद्ध ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को नया आकार दिया है। देश जब समायोजन की राह पर आगे बढ़ते हैं तब अल्पकालिक वृद्धि धीमी हो सकती है, लेकिन भारतीय नीति-निर्माताओं को दीर्घकालिक स्थिति पर ध्यान देना चाहिए। यह वैश्विक विनिर्माण में भारत की हिस्सेदारी बढ़ाने का एक महत्त्वपूर्ण अवसर है। वर्ष 2047 तक एक विकसित राष्ट्र बनने के लक्ष्य को देखते हुए इस अवसर को गंवाना देश के लिए महंगा साबित होगा।

(लेखिका आईजीआईडीआर, मुंबई में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)

 

First Published - July 22, 2025 | 10:08 PM IST

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