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समाचार प्रकाशन जगत और डिजिटलीकरण की दुविधा

Published by
बीएस संवाददाता
Last Updated- December 11, 2022 | 9:42 PM IST

क्या विज्ञापनों की फंडिंग वाले समाचार पढऩे वाले पाठकों को केवल फर्जी और असत्य खबरें मिलनी चाहिए? क्या सबस्क्रिप्शन वाली खबरों का उभार अच्छी पत्रकारिता को सुशिक्षित और अच्छी आर्थिक स्थिति वाले लोगों तक सीमित करता है? क्या यह समाचारों की सामूहिक खोज और खपत को समाप्त करता है और लोकतंत्र को क्षति पहुंचाता है?
ऑक्सफर्ड स्थित रॉयटर्स इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ जर्नलिज्म (आरआईएसजे) का द डिजिटल न्यूज प्रोजेक्ट ऑनलाइन खबरों की पड़ताल करके पत्रकारिता और कारोबार उनके असर का आकलन करता है। इस महीने के आरंभ में उसने एक रिपोर्ट ‘जर्नलिज्म, मीडिया ऐंड टेक्रॉलजी ट्रेंड्स ऐंड प्रिडिक्शंस 2022’ जारी की। 52 देशों के 246 संपादकों, मुख्य कार्याधिकारियों और डिजिटल नेतृत्वकर्ताओं ने कहा कि वे 2022 में अपनी कंपनी की संभावनाओं को लेकर आश्वस्त हैं। आरआईएसजे के वरिष्ठ शोध सहायक निक न्यूमैन ने कहा, ‘प्रकाशकों का यह भरोसा एक हद तक इसलिए भी है क्योंकि कोविड-19 महामारी के दौरान सबस्क्रिप्शन और सदस्यता मॉडल लगातार गति पकड़ते रहे। न्यूयॉर्क टाइम्स के अब 84 लाख सबस्क्रिप्शन हैं जिसमें 76 लाख डिजिटल हैं। शुरुआत में ऐसा करने वाली कई कंपनियों का डिजिटल राजस्व अब प्रिंट राजस्व को पीछे छोड़ चुका है। अब कई बड़े ब्रांड को भविष्य के लिए एक स्थायी राह नजर आ रही है। लेकिन कई छोटे डिजिटल प्रकाशक मसलन स्लोवाकिया में डेनिक, मलेशिया में मलयसियाकिनी और डेनमार्क में जेटलैंड भी ऐसा कर सकते हैं।’ न्यूमैन 2012 से ही इस रिपोर्ट का समन्वय कर रहे हैं। भारत में भी ऐसा ही हो रहा है। द न्यूज मिनिट्स, द क्विंट, द हिंदू और टाइम्स इंटरनेट जैसी शुरुआत में ही बदलाव करने वाली कंपनियां सबस्क्रिप्शन राजस्व पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं।
एक स्वस्थ लोकतंत्र को सूचित करने वाली गुणवत्तापूर्ण पत्रकारिता करने में हजारों जमीनी रिपोर्टर, ढेर सारा समय और पैसा लगता है। लंबे समय तक प्रकाशकों ने विज्ञापनों पर भरोसा किया। समाचार पत्रों का 70-80 फीसदी राजस्व अभी भी वहीं से आता है। इंटरनेट के जोर पकडऩे के बाद भी प्रिंट माध्यम का प्रसार और राजस्व दोनों बढ़ते जा रहे हैं। यह बात इसे 1.38 लाख करोड़ रुपये के भारतीय मीडिया और मनोरंजन कारोबार का सबसे अधिक मुनाफे वाला क्षेत्र बनाती है।
कॉम्सकोर के आंकड़ों के मुताबिक भारत की 20 शीर्ष में से 18 समाचार वेबसाइट बड़े विरासती ब्रांड हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया, एनडीटीवी या द इंडियन एक्सप्रेस तथा अन्य ब्रांड को बड़ी तादाद में ऑनलाइन दर्शक और पाठक मिलते हैं। परंतु इसका आधे से अधिक हिस्सा गूगल तथा फेसबुक से आता है। फरवरी 2021 में भारत में 46.8 करोड़ इंटरनेट उपयोगकर्ता थे और गूगल की पहुंच इन तमाम लोगों तक है। फेसबुक का आंकड़ा थोड़ा कम यानी 43.6 करोड़ लोगों का है। आश्चर्य नहीं कि 2020 में 23,500 करोड़ रुपये के डिजिटल राजस्व में 90 फीसदी से अधिक हिस्सेदारी इन दोनों की रही। यानी बाकी बचे सैकड़ों डिजिटल प्रकाशकों के लिए केवल 10 फीसदी हिस्सा बचा। ऐसे में नियामकों का ध्यान जाना लाजिमी था। ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस में गूगल को प्रकाशकों को भुगतान करने के लिए मजबूर किया गया। भारत में भी प्रकाशकों ने हाल ही में गूगल को भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग के समक्ष तलब कराया था। इस बीच वर्षों तक ऑफलाइन प्रकाशन ने डिजिटल वृद्धि को प्रभावित किया।
महामारी ने उस मॉडल को नष्ट कर दिया। पाठकों की तादाद में तेजी से इजाफा होने के बावजूद विज्ञापन राजस्व में भारी गिरावट आई। ऐसे में प्रकाशकों के लिए अपने भविष्य को बचाने का एक ही तरीका था कि वे भुगतान तय करें। फिलहाल भारत में समाचार वेबसाइटों के करीब 10 लाख सबस्क्राइबर हैं। मनोरंजन जगत के ओटीटी प्लेटफॉर्मों के 10 करोड़ से अधिक सबस्क्राइबर हैं। समाचार प्रकाशकों को उन आंकड़ों तक पहुंचने के लिए कई वर्ष लगेंगे तथा तकनीक और सामग्री पर बहुत पैसा खर्च करना होगा।
क्या सबस्क्राइबर संख्या में यह इजाफा सूचनाओं को एक खास दायरे के लोगों तक सीमित कर देगा? क्या यह आम जनता को अलगोरिद्म आधारित, स्वतंत्र समाचार के भरोसे छोड़ देता है जिसका इस्तेमाल राजनीतिक दल तथा अन्य समूह झूठी खबरों को हथियार बनाने और समाज का ध्रुवीकरण करने में करते हैं? न्यूमैन की रिपोर्ट सूचना की असमानता का मुद्दा उठाती है और इससे निपटने के लिए दुनिया भर में हो रहे कुछ प्रयोगों की ओर संकेत करती है। दक्षिण अफ्रीका में डेली मैवरिक की सदस्यता चुकाने वाली की हैसियत पर आधारित है। पुर्तगाल में आठ मीडिया घरानों के 20,000 से अधिक नि:शुल्क डिजिटल सबस्क्रिप्शन की फंडिंग के लिए लॉटरी फंडिंग का इस्तेमाल किया गया। भारत में कई नई समाचार वेबसाइट पाठकों से सहयोग या दान (सबस्क्रिप्शन नहीं) की मांग करती हैं। कुछ अन्य ज्यादा विज्ञापनों के लिए प्रयोग करते हैं। देश के सबसे बड़े समाचार एग्रीगेटरों में से एक इनशॉट्र्स ने 2019 में पब्लिक नामक एक ओपन प्लेटफॉर्म शुरू किया। 2021 के आरंभ तक इस पर 60,000 क्रिएटर थे जिनमें वार्ड मेंबर, सांसद, विधायक तथा सैकड़ों छोटे कस्बों के स्थानीय निवासी शामिल हैं जिन्होंने इस पर स्थानीय घटनाओं के छोटे-छोटे वीडियो और खबरें डालीं। गत वर्ष इनशॉट्र्स के 7.5 करोड़ विशिष्ट उपयोगकर्ताओं में से 80 प्रतिशत पब्लिक के माध्यम से आए। मार्च 2021 में कंपनी के 102 करोड़ रुपये के राजस्व में इसकी अहम भूमिका रही। न्यूमैन यह भी कहते हैं कि टिकटॉक या शॉर्ट वीडियो पर समाचारों को लेकर युवा श्रोताओं/दर्शकों की भिड़ंत होगी। लेकिन यह आसानी से झूठी खबरों का गढ़ बन सकता है।
इस सवाल का जवाब आसान नहीं है कि समाचार पत्रकारिता के टूटे हुए मॉडल की जगह कौन लेगा। सबस्क्रिप्शन अच्छा रुझान है लेकिन विज्ञापन समर्थित हर समाचार कूड़ा नहीं है। कई ऐसे ब्रांड हैं जहां मालिकों के पास यह दृष्टि और रीढ़ मौजूद है कि वे अच्छी पत्रकारिता कर सकें।

First Published : January 24, 2022 | 11:11 PM IST