सन 2020 को शायद उस अफरातफरी के लिए याद किया जाएगा जो एक वायरस के कारण दुनिया भर में फैली। परंतु कॉर्पोरेट दृष्टिकोण से देखें तो यह ऐसा वर्ष है जिसने घर से काम करने को बतौर नीति अपनाने पर बहस को निर्णायक परिणति तक पहुंचाया। टीका बने या नहीं लेकिन घर से काम करने को स्वीकार्यता मिल गई है। याहू की मरिसा मायर ने सात वर्ष पहले इसे लेकर जो आपत्तियां उठाई थीं उनका वाजिब जवाब मिल गया है। इस बात को लेकर काफी शोरगुल था कि घर से काम करने की सुविधा महिलाओं के लिए विशेष लाभ लाएगी। यहां कुछ बेहतरी अवश्य है लेकिन घर से काम करने को कार्यस्थल पर महिला सशक्तीकरण के रामबाण के रूप में पेश करना सही नहीं।
कोविड-19 के कारण लगभग हर संस्थान में घर से काम करने की व्यवस्था लागू कर दी गई। इससे जो लचीलापन उत्पन्न हुआ वह शिक्षित महिलाओं के लिए वरदान साबित हुआ। एक ऐसे समाज में जहां महिलाएं आज भी बच्चों और मां-बाप की देखरेख और घरेलू काम करती हैं वहां घर से काम करने की सुविधा ने उन्हें यह अवसर दिया कि वे लगातार बढ़ती मांगों के बीच एक साथ कई कामों को अंजाम देने की अपनी क्षमता प्रदर्शित कर सकें। देशव्यापी लॉकडाउन समाप्त होने के तत्काल बाद भारतीय स्टेट बैंक की पूर्व चेयरपर्सन और सेल्सफोर्स इंडिया की मौजूदा सीईओ अरुंधती भट्टाचार्य ने यही कहा था। घर से काम करने की सुविधा का एक सकारात्मक प्रभाव यह है कि यह महिलाओं के प्रति संगठनों के पूर्वग्रह को खत्म कर सकता है। कार्यस्थल पर स्त्री-पुरुष या लैंगिक समानता की स्थापना के लिए यह पूर्वग्रह समाप्त करना अत्यंत आवश्यक है। लेकिन यह सोचना एकदम गलत है कि घर से काम करने की सुविधा देश के कार्यस्थलों में स्त्री-पुरुष भेद की समस्या को बिल्कुल समाप्त कर देगा।
पहली समस्या खुद पुरुष हैं। देश के कॉर्पोरेट जगत में उनका दबदबा है और उनके अपने पूर्वग्रह हैं। घर से काम करने का विकल्प शायद उन्हें महिलाओं और पुरुषों को अधिक समान समझने के लिए प्रोत्साहित करे। परंतु हालात सुधारने के लिए कार्यस्थल पर लचीले माहौल भर से काम नहीं चलेगा बल्कि काफी कुछ करना होगा। ऐसी सोच केवल भारत तक सीमित नहीं है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय में इस बात का अध्ययन किया गया था कि आखिर क्यों अमेरिकी कॉर्पोरेट जगत में बहुत कम महिलाएं वरिष्ठ पदों पर पहुंच पाती हैं अथवा उन्हें पदोन्नति भी पुरुषों की तरह नहीं मिलती। अध्ययन में पाया गया कि कार्यस्थल पर महिलाओं और पुरुषों की भूमिकाओं में कोई खास अंतर नहीं था। निष्कर्ष यह निकला कि पदोन्नति को लेकर लिए जाने वाले निर्णयों में लैंगिक पूर्वग्रहों की अहम भूमिका होती है।
शोधकर्ताओं ने कहा, ‘हमारा विश्लेषण बताता है कि इस कंपनी में महिलाओं और पुरुषों की पदोन्नति में अंतर उनके व्यवहार के कारण नहीं बल्कि उनके साथ होने वाले व्यवहार से संबंधित था। महिलाओं के व्यवहार में बदलाव से जुड़ी दलीलों के बीच बड़ी तस्वीर पर ध्यान नहीं दिया जाता है और वह यह कि स्त्री-पुरुष असमानता के लिए पूर्वग्रह जवाबदेह है न कि व्यवहार में अंतर।’ उदाहरण के लिए अध्ययन में पिछले शोध का उल्लेख किया गया कि कैसे बाल-बच्चों वाली महिलाओं को काम के प्रति कम प्रतिबद्ध माना गया जबकि बाल-बच्चों वाले पुरुषों को अधिक दायित्व सौंपे गए। घर से काम करने की सुविधा ने कामकाजी महिलाओं की तादाद बढ़ाई है लेकिन इससे उपरोक्त धारणा में जल्दी बदलाव आता नहीं दिखता। हमें अपने आईटी और आईटी-ईएस उद्योग पर नजर डालने की जरूरत है। यह एक ऐसा उद्योग है जो सन 1990 के आखिर में और सन 2000 के दशक के आरंभ में बहुत तेजी से विकसित हुआ। यह वह समय था जब वैश्विक कंपनियों ने सस्ती सेवाओं के लिए भारत का रुख किया। तेज वृद्धि दर के कारण कंपनियों को लैंगिक पूर्वग्रह से परे जाकर बड़ी तादाद में महिलाओं को नियुक्ति देनी पड़ी। इस उद्योग में महिला कर्मियों की हिस्सेदारी 30 फीसदी से अधिक है। उनमें से अनेक युवा महिलाएं हैं जो अपने काम को एक दीर्घकालिक करियर के रूप में देखती हैं। अब देश की बड़ी आईटी/आईटीईएस कंपनियों के शीर्ष नेतृत्व पर नजर डालिए। वहां महिलाओं की हिस्सेदारी एक अंक में नजर आएगी।
इस लिहाज से देखा जाए तो घर से काम करने की सुविधा यकीनन पुरुषों से यह अवसर छीनेगी कि वे संगठनात्मक ढांचे में महिलाओं को दरकिनार करें। एक अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी के भारतीय प्रमुख ने एक बार बताया था कि कैसे वह छह बजे के बाद कार्यालयीन बैठकें नहीं करते थे क्योंकि उन महिला अधिकारियों के लिए बैठक में शामिल होना मुश्किल होता था जिनके छोटे बच्चे थे। यह बहुत पुराना बहाना है। अब वेब कॉन्फ्रेंसिंग सॉफ्टवेयर आने के बाद महिलाओं के पास किसी भी समय बैठक में शामिल होने की सुविधा है। बार में होने वाली पुरुषों की बैठकों या शारीरिक दूरी के इस दौर में होने वाली जूम पार्टी में भले ही महिलाओं को दूर रखा जाए लेकिन जहां तक लैंगिक समानता की बात है, कुछ नहीं होने से कुछ होना बेहतर है।
वैसे घर से काम की सुविधा देश के कामकाजी महिलाओं की भागीदारी के आंकड़ों में कोई नाटकीय सुधार नहीं करने जा रही। श्रम शक्ति में मध्यवर्गीय महिलाओं की हिस्सेदारी बहुत कम है। इन आंकड़ों में बदलाव के लिए अधिक से अधिक तादाद में निम्र मध्य वर्ग की महिलाओं को कपड़ा, रक्षा और वाहन क्षेत्र के कारखानों में काम करना होगा। पश्चिमी देशों और दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में हम ऐसा देख चुके हैं। इसके लिए आवश्यक है कि अर्थव्यवस्था तेजी से विकसित हो। परंतु अभी तो कंपनियों को यही लग रहा है कि घर से काम करने की नीति से उनकी लागत में काफी बचत हो रही है। महिलाओं को भी यह लग सकता है कि उन्हें समता के क्षेत्र में एक छोटी सीढ़ी चढऩे का अवसर मिला है।