अर्थशास्त्रियों ने हाल के सप्ताहों में देश के मौद्रिक नीति संचालन की आलोचना की है। कुछ कमियां इस प्रकार हैं। पहली, वृद्धि को समर्थन देने से मुद्रास्फीति पर नियंत्रण करने तक प्राथमिकता में बदलाव करने में अनावश्यक देरी की गई। मुद्रास्फीति पर नियंत्रण मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) का प्राथमिक लक्ष्य है क्योंकि यह मुद्रास्फीति को लक्षित करने वाला संस्थान है। दूसरा, नीति एक साथ कई लक्ष्य लेकर चल रही है। इसके चलते वह मूल्य स्थिरता तथा उच्च मुद्रास्फीति को लेकर समय पर प्रतिक्रिया देने जैसे जरूरी कामों पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रही है। ऐसे में वक्तव्य और कदमों के बीच एक तरह की विसंगति उत्पन्न हो गई है जो स्पष्ट संचार और बाजारों को अग्रिम दिशानिर्देशों को प्रभावित कर रही है। ये मसले अपने आप में जटिल हैं। इस आलेख में प्रयास यही है कि मौद्रिक नीति के संचालन में आने वाली चुनौतियों पर एक नजर डाली जाए। खासतौर पर बीते कुछ वर्षों में सामने आयी अतिरंजित वृहद आर्थिक अनिश्चितताओं की स्थिति को देखते हुए।
सबसे पहले बात करते हैं मुद्रास्फीति को लक्षित करने की। मौद्रिक नीति हमेशा ही एक अग्रसोची कवायद है जो पूर्वानुमानों पर आधारित होती है। भारतीय रिजर्व बैंक के पेशेवर पूर्वानुमान लगाने वालों के सर्वेक्षण में एक वर्ष आगे के उपभोक्ता कूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति के माध्य अनुमान सितंबर 2021 के 4.9 प्रतिशत से घटकर जनवरी 2022 में 4.7 प्रतिशत रह गया। इस गिरावट की व्याख्या इस रूप में भी की जा सकती है कि मुद्रास्फीति को लक्षित करने की विश्वसनीयता पूर्वानुमानों में नजर आ रही थी। मार्च 2022 में यह बढ़कर 5.2 प्रतिशत हुई क्योंकि यूक्रेन संकट के कारण जिंस और ऊर्जा कीमतों पर असर पड़ने लगा था। इस बढ़ोतरी पर पहली प्रतिक्रिया अप्रैल 2022 की मौद्रिक नीति समिति की समीक्षा में आई और नीतिगत दरों को बढ़ाकर 3.75 प्रतिशत कर दिया गया तथा स्थायी जमा सुविधा को पहले की रिवर्स रीपो दर से बदल दिया गया। इस बदलाव की एक नीतिगत परिचालन में लचीलापन लाना भी था।
ध्यान रहे कि नीतिगत गलियारा यानी रिवर्स रीपो दर में से रीपो दर को कम करने से बनने वाली गुंजाइश एक अतिरिक्त मौद्रिक टूल बनकर उभरती है। इससे परिचालन दर को इधर उधर करने की गुंजाइश बनती है ताकि उसे तय दायरे में ही वांछित स्तर पर लाया जा सके। यह व्यवस्थागत नकदी की स्थिति पर भी निर्भर करता है। नकदी के स्तर का प्रबंधन खुले बाजार के परिचालन के माध्यम से किया जाता है। इसके अलावा अल्पावधि की ब्याज दरों को परिचालन दर के आसपास रखने के लिए अन्य उपाय किए जाते हैं।
दूसरी चिंता है मौद्रिक नीति का राजाकोषीय दबदबा। मौद्रिक नीति के संकेतों का ब्याज दरों के क्षेत्र में पारेषण अलग-अलग रहा है। हर दर का व्यवहार अलग होता है, और उनमें बदलाव के नियामकीय और ढांचागत कारण तथा कामकाजी प्रभाव भी अलग-अलग होते हैं। पारंपरिक ढांचे में मौद्रिक नीति की भूमिका नीतिगत दरें तय करने की है ताकि उसे ऐसे स्तर पर रखा जा सके जो वृहद आर्थिक हालात के हिसाब से उपयुक्त हो। शेष यील्ड प्रतिफल जो परिचालन दर पर आधारित होता है, उसे इजाजत होती है कि वह बाजार और आर्थिक हालात के आधार पर गति करे। इस दौरान मौद्रिक नीति नियंत्रण का प्रयास नहीं करती। यह पारंपरिक रवैया काफी पुराना है और वैश्विक केंद्रीय बैंक इसे त्याग चुके हैं। इसकी जगह वित्तीय संकट के बाद की अपारंपरिक मौद्रिक नीति ने ले ली है। इसमें नीतिगत दर शून्य है। विभिन्न उपाय मसलन क्वांटिटेटिव ईजिंग, यील्ड कर्व नियंत्रण आदि का इस्तेमाल करके भी ढांचे में बदलाव का प्रयास किया गया।
भारत में भी महामारी के समय रिजर्व बैंक ने दीर्घावधि के लक्षित रीपो परिचालन, सरकारी प्रतिभूति अधिग्रहण कार्यक्रम आदि की शुरुआत की थी ताकि चुनिंदा परिपक्वता वाली यील्ड कर्व को प्रभावित किया जा सके। सितंबर 2021 के बाद से नकदी सुनिश्चित करने वाले ये उपाय पहले ही रोके जा चुके हैं। उस समय तक तो किसी बड़े केंद्रीय बैंक ने अपनी बैलेंस शीट में कमी आने का कोई संकेत भी नहीं दिया था।
दरों के निचले स्तर पर बाजार दर पहले ही बढ़नी शुरू हो चुकी थी और ऐसा गैर नीतिगत संकेतों के साथ हुआ। यह सिलसिला अक्टूबर 2021 से शुरू हुआ। अल्पावधि की ये दरें बैंक जमा और ऋण दरों में पारेषण का वास्तविक कारक हैं। अप्रैल 2022 में एसडीएफ दरों में इजाफे के पहले ही इन दोनों में काफी इजाफा हुआ।
अल्पावधि की दरों में इजाफा और नकदी प्रबंधन के साथ सामान्यीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ी और अक्टूबर और नवंबर 2021 तिमाही के दौरान औसत यील्ड का इस्तेमाल करते हुए ऐसा किया गया। इससे अल्पावधि की दरों में इजाफा करने में मदद मिली और उन्हें रीपो दर के आसपास लाया जा सका। ऐसा करते हुए दीर्घावधि के प्रतिफल में कोई बाधा भी नहीं आई। अल्पावधि के फंडिंग उपायों मसलन ट्रेजरी बिल, वाणिज्यिक पत्र, जमा के बैंक प्रमाणपत्र आदि में भी तेजी आई।
तीसरी चिंता यह है आरबीआई द्वारा रुपये का प्रबंधन या कहें उसकी अस्थिरता कहीं मूल्य स्थिरता के प्राथमिक लक्ष्य से ध्यान तो नहीं भटका रही है। क्या विदेशी विनिमय बाजार में हस्तक्षेप की आवश्यकता है? इस बारे में विशेषज्ञों की राय अलग-अलग है। इसके बावजूद फिलहाल हमारा देश खुली अर्थव्यवस्था की असंभव त्रयी से जूझ रहा है। पूंजी खाता मोटे तौर पर खुला हुआ है। इसमें प्रमुख रूप से पोर्टफोलियो पूंजी की आवक हो रही है। रुपया लचीला बना हुआ है और वह विभिन्न बाहरी घटनाक्रम पर प्रतिक्रिया दे रहा है। उदाहरण के लिए अमेरिकी डॉलर की मजबूती, चीन की रेनमिनबी तथा समस्त विदेशी मुद्रा प्रवाह को लेकर भी वह प्रतिक्रिया दे रहा है। घरेलू ब्याज दरों पर नियंत्रण करके ही समेकित घरेलू मांग का पूरा लाभ लिया जा सकता है।
घरेलू नीतिगत नियंत्रण का इकलौता विकल्प यही है कि विनिमय दर का प्रबंधन किया जाए।
इस दलील को मजबूत बनाने के लिए हाल ही में आयोजित एशियाई केंद्रीय बैंकों के बीआईएस सर्वेक्षण में कहा गया कि वैश्विक स्तर पर जी-10 देशों के केंद्रीय बैंकों के कदमों पर आधारित वित्तीय चैनल घरेलू झटकों के प्रभाव को बढ़ाते हैं और तब विदेशी मुद्रा संबंधी हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है।
ओलिविर ब्लांकाउर् के शब्द उधार लें तो मौद्रिक नीति एक विज्ञान है लेकिन नीति निर्माण एक कला है। यह कला कितनी कठिन है इसका उदाहरण जी-10 देशों की प्रतिक्रिया में नजर आया। मुख्य सबक यही है कि बेहतर आर्थिक सूचनाओं के आधार पर ही बेहतर नीतिगत निर्णय लिए जा सकते हैं।
(लेखक ऐक्सिस बैंक के कार्यकारी उपाध्यक्ष एवं मुख्य अर्थशास्त्री हैं। )
