वैश्विक महामारी से उबरने में उपभोक्ता धारणा असाधारण रूप से सुस्त रही है। संक्रमण में उल्लेखनीय रूप से गिरावट आई है और टीकाकरण प्रभावशाली तरीके से तेज हुआ है। गतिशीलता में सुधार हुआ है और अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे सामान्य रूप की ओर लौटती दिख रही है। आर्थिक गतिविधियों के तीव्र-आवृत्ति वाले कई संकेतक महामारी से पहले के समय की तुलना में अधिक ऊंचे स्तर पर हैं। लेकिन उपभोक्ता धारणा ऐसी नहीं है, जो कोविड से पहले के दिनों की तुलना में काफी नीचे बनी है, क्योंकिउनमें बहुत धीमी रफ्तार से सुधार हुआ है। अक्टूबर 2021 में उपभोक्ता धारणा का सूचकांक अक्टूबर 2020 के मुकाबले 13.2 प्रतिशत अधिक था, लेकिन यह अब भी महामारी से पहले के महीने अक्टूबर 2019 के मुकाबले 44.3 प्रतिशत कम है। इस सूचकांक में फरवरी 2018 से सितंबर 2019 तक इजाफे का रुख रहा। इसके बाद, महामारी आने से पहले यह कमजोर पडऩे लगा। महामारी और इसकी वजह से होने वाले लॉकडाउन के बाद धारणा में तेज गिरावट आई।
उपभोक्ता धारणा का यह सूचकांक सितंबर 2019 में शीर्ष पर था और फिर महामारी द्वारा अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाने से पहले ही कमजोर होकर फरवरी 2020 तक अपने उच्च स्तर से 3.9 प्रतिशत तक लुढ़क गया। मार्च 2020 में जब कोविड -19 का असर आंशिक ही था, धारणा में 7.9 प्रतिशत तक की गिरावट आई। और अगले दो महीने में वह 57 प्रतिशत तक गिरकर मई 2020 में निम्नतम स्तर पर आ गई। यह सुधार बहुत धीमा रहा है। मई 2020 (कोविड-19 महामारी की पहली लहर के बाद इसका सबसे निचला बिंदु) और मार्च 2021 (भारत में दूसरी लहर आने से ठीक पहले) के बीच यह सूचकांक प्रति मास 3.1 प्रतिशत की दर पर दोबारा चढ़ गया। जून और अक्टूबर 2021 के बीच दूसरी लहर से यह सुधार 5.6 प्रतिशत प्रति मास की दर पर ज्यादा तेज रहा। लेकिन ये दरें गिरावट की दर से काफी कम हैं, जो फरवरी और मई 2020 के बीच प्रति मास 26 प्रतिशत से अधिक थी। उपभोक्ता धारणाओं के इस सुस्त सुधार के संबंध में सबसे हैरानी की बात यह है कि आय के सभी प्रमुख समूहों में यह कम हो रही है। उम्मीद यह थी कि अपेक्षाकृत सुसंपन्न परिवारों में अब तक धारणा में बेहतर और पूर्ण सुधार दिखाई देगा। लेकिन साफ तौर पर यह मामला है। मामूली साधनों वाले परिवारों के मुकाबले अमीर परिवारों में सुधार दर ज्यादा सुस्त रही है। यह अन्य आर्थिक संकेतकों में देखी गई सुधार प्रक्रिया की स्थिरता के संबंध में उत्साह के कुछ अंशों का विश्वास दिलाता है। उपभोक्ता धारणा से उम्मीद की जाती है कि वह स्वयं सुधार में नहीं, तो सुधार की शक्ति का निर्धारण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। इसलिए वह खास ध्यान देने की पात्र होती है।
तुलनात्मक रूप से मामूली आय वाले परिवारों के मुकाबले में अधिक अमीर परिवारों में उपभोक्ता धारणा बेहतर रहती है। यह बात महामारी से पहले और उसके दौरान लगभग हमेशा सच रही है। अधिक अमीर परिवारों में धारणा में गिरावट गरीब परिवारों की तुलना में कुछ कम गंभीर थी। लेकिन महामारी के निम्न स्तर से उनका यह सुधार मामूली साधनों वाले परिवारों की धारणा में सुधार के मुकाबले बदतर है।
फरवरी 2020 और मई 2020 के बीच कुल उपभोक्ता धारणा की दर प्रति मास 26.6 प्रतिशत गिरी है। सालाना 10 लाख रुपये या अधिक कमाने वाले परिवारों ने प्रति मास 23 प्रतिशत की धीमी दर से धारणा में गिरावट देखी। सालाना पांच लाख रुपये और 10 लाख रुपये के बीच की आय वाले परिवारों ने प्रति मास 23 प्रतिशत के साथ इससे भी धीमी दर पर धारणा में गिरावट देखी। शेष धारणा में प्रति मास लगभग 26 प्रतिशत या उससे अधिक की दर से गिरावट आई है। इस प्रकार अपेक्षाकृत गरीब परिवारों ने उपभोक्ता धारणा में अधिक गिरावट देखी, जबकि अमीर परिवारों ने लॉकडाउन के प्रति अधिक लचीलापन दिखाया।
यह सुधार अमीर परिवारों के लिए समान रूप से अनुकूल नहीं था। जिन परिवारों ने प्रति वर्ष पांच लाख रुपये से कम कमाई की उनकी उपभोक्ता धारणा में मई 2020 और मार्च 2021 के बीच प्रति माह तीन प्रतिशत का इजाफा हुआ। लेकिन जिन्होंने प्रति वर्ष पांच लाख रुपये से अधिक कमाई की, उनका सुधार उस रफ्तार से आधे से भी कम रहा। इसी तरह कोविड-19 की दूसरी लहर के बाद अमीर परिवारों में सुधार की यह रफ्तार क्रमानुसार धीमी थी।
जून 2021 और अक्टूबर 2021 के बीच प्रति वर्ष 1,00,000 रुपये से कम कमाई करने वाले परिवारों में उपभोक्ता धारणा में प्रति मास 8.7 प्रतिशत की दर के साथ सुधार हुआ। यह काफी तेज हिस्सा है। जिस दर पर धारणा में गिरावट आई थी, यह उस दर से काफी बेहतर है। अलबत्ता आय बढऩे पर यह दर विकृत हो जाती है। जिन परिवारों ने 1,00,000 रुपये और 2,00,000 के बीच कमाई की, उनकी धारणा में प्रति मास 5.7 प्रतिशत की कम दर पर सुधार देखा गया। प्रति वर्ष 2,00,000 रुपये और 5,00,000 रुपये के बीच कमाई करने वाले परिवारों के मामले में सुधार की यह दर और गिरकर प्रति मास 4.3 प्रतिशत रह गई। पांच लाख रुपये और 10 लाख रुपये के बीच कमाई करने वाले परिवारों के लिए यह दर और गिरकर प्रति मास 2.8 प्रतिशत रह गई। तथा प्रति वर्ष 10 लाख रुपये से अधिक की कमाई करने वाले परिवारों के लिए सुधार की यह दर प्रति मास दो प्रतिशत के साथ सबसे धीमी थी। परिवारों की आय के स्तर और उपभोक्ता धारणा में सुधार की दर के बीच का यह विपरीत संबंध निराशाजनक और सहज बोध के विपरीत है। लेकिन आंकड़े स्पष्ट हैं।
इस महामारी के निशान कमजोर धारणा के रूप में बने हुए दिखते हैं। उपभोक्ता धारणा कानिरंतर निम्न स्तर और अपेक्षाकृत अमीर परिवारों के बीच उनके सुधार की खास तौर पर धीमी दर अर्थव्यवस्था के सुधार से जुड़ा उत्साह हल्का कर देगी।
(लेखक सीएमआईई के प्रबंध निदेशक एवं मुख्य कार्याधिकारी हैं)