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सिर्फ RBI की दर कटौती से नहीं बदलेगी विकास की रफ्तार, जरूरत है ढांचागत सुधार की

नीतिनिर्माताओं के लिए अब तथ्यों का सामना करने से बचने का कोई रास्ता नहीं बचा है: हमारी समस्या चक्रीय नहीं, संरचनात्मक है। बता रहे हैं देवाशिष बसु

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देवाशिष बसु   
Last Updated- June 24, 2025 | 10:47 PM IST

गत 6 जून को भारतीय रिजर्व बैंक ने रीपो दर में 50 आधार अंक (यह घटकर 5.5 फीसदी रह गई) और नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) में 100 आधार अंक की कटौती करके बाजारों को चौंका दिया। सीआरआर में इसे सितंबर से नवंबर तक चरणबद्ध तरीके से 25-25 आधार अंकों की कटौती के रूप में लागू किया जाएगा। उम्मीद है कि इससे व्यवस्था में 2.5 लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त नकदी आएगी और यह उम्मीद जगाता है। इस ऐलान के दिन निफ्टी सूचकांक में एक फीसदी की तेजी आई जबकि अगले दिन मामूली सुधार देखने को मिला।

बहरहाल, सप्ताह के अंत तक सूचकांक दोबारा कटौती के पहले के स्तर तक गिर गया। रिजर्व बैंक अपने रुख को ‘समायोजन’ से ‘तटस्थ’ कर रहा है ऐसे में कोई नरमी चक्र नहीं होगा। केवल 100 आधार अंकों की कटौती से मांग में अपेक्षित सुधार नहीं होगा। रिजर्व बैंक की अपेक्षा है कि सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी गत वर्ष की तरह 6.5 फीसदी रहेगी और उपभोक्ता मूल्य आधारित मुद्रास्फीति थोड़ी कम रहेगी। इसका अर्थ यह हुआ कि कुल वृद्धि अनुमान कमजोर ही हैं। इसकी वजह यह है कि अर्थव्यवस्था के चार मुख्य कारक धीमे पड़े हुए हैं।

पहले खपत की बात करते हैं। अंतिम निजी खपत व्यय (पीएफसीई) जो देश के जीडीपी में करीब 60 फीसदी का हिस्सेदार है उसकी वृद्धि दर कोविड के पहले के 6.8 फीसदी से घटकर 2019-20 में 4.1 फीसदी रह गई। महामारी के बाद सुधारों के एक छोटे दौर के बाद इसमें दोबारा गिरावट आई और रिजर्व बैंक के मुताबिक वित्त वर्ष 24 में यह घटकर 5.4 फीसदी रह गई और राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के मुताबिक तो यह केवल 4.4 फीसदी रह गई।

खपत में वापसी अल्पकालिक रही क्योंकि यह ऋण और सरकार द्वारा कल्याण व्यय में इजाफे पर केंद्रित थी। आखिरकार अधिकांश क्षेत्रों (इंजीनियरिंग, वित्तीय सेवा, खुदरा, सूचना प्रौद्योगिकी, लॉजिस्टिक्स और उपभोक्ता वस्तु) में औसत आय वृद्धि मुद्रास्फीति से कम रही। परंतु ऋण आधारित खपत की अपनी सीमाएं हैं। वर्ष 2023 के मध्य से ही पर्सनल लोन में वृद्धि कम हुई है और वह 22 फीसदी से घटकर करीब 10 फीसदी रह गई, जो घटते खपत की वजह से है।

जीडीपी वृद्धि में दूसरा तत्व है विशुद्ध निर्यात (यानी निर्यात में से आयात को घटाने के बाद आया आंकड़ा)। भारत के निर्यात की हालत ठीक नहीं। मोबाइल फोन के बढ़ते निर्यात जैसी सुर्खियां बटोरने वाली खबरें वस्तु निर्यात के क्षेत्र में हमारे कमजोर प्रदर्शन को छिपा लेती हैं। वित्त वर्ष 24 में वस्तु निर्यात में वृद्धि गिरकर 12.8 फीसदी रह गई और वित्त वर्ष 25 में इसके केवल दो फीसदी बढ़ने की उम्मीद है। साल दर साल देश का शुद्ध निर्यात नकारात्मक बना हुआ है। आयात पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। जीवाश्म ईंधन और स्वर्ण आयात केवल तभी लाभदायक साबित होते हैं जब इनकी कीमतें कम होती हैं। निर्यात में इजाफा नहीं हो रहा है क्योंकि कारोबार की भारी लागत भारतीय निर्यातकों की उत्पादकता और प्रतिस्पर्धी क्षमता को छीन लेती है। देश का सेवा निर्यात और भारी भरकम धनप्रेषण कुछ हद तक कमजोर शुद्ध निर्यात के प्रभाव को कम कर देता है।

वृद्धि का तीसरा कारक है निजी पूंजीगत व्यय। नई चमकती दमकती फैक्ट्रियों के निर्माण के तमाम प्रमाण हमारे सामने हैं लेकिन सबसे व्यापक और विश्वसनीय आंकड़े इतनी अच्छी तस्वीर नहीं पेश करते। सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के एक दूरदर्शी सर्वेक्षण के मुताबिक वास्तविक वांछित निजी पूंजीगत व्यय वित्त वर्ष 25 के 6.56 लाख करोड़ रुपये से घट कर वित्त वर्ष 26 में 4.9 लाख करोड़ रुपये रह जाएगा। यह करीब 26 फीसदी की गिरावट होगी। यह सर्वेक्षण बड़े उपक्रमों तक सीमित था और छोटे तथा मझोले उपक्रमों की स्थिति और खराब है। धीमे व्यय की एक वजह धीमी मांग भी है। इसकी एक वजह राज्य भी है जो एक फलते-फूलते, प्रतिस्पर्धी और नवाचारी कारोबारी माहौल की राह में आड़े आता है।

यह बात हमें वृद्धि के चौथे इंजन की ओर ले जाती है- सरकारी पूंजीगत व्यय। शायद मौजूदा माहौल में यह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। भारत पुराने दबदबे वाले मॉडल पर टिका हुआ है और ठहरी हुई वृद्धि के दौर में भी नागरिकों और कारोबारियों से बहुत भारी मात्रा में पैसे उगाहे जा रहे हैं। ध्यान रहे कि विनिर्माण और निर्यात क्षेत्र की वृद्धि निहायत धीमी है और बड़ी कंपनियां भी अपना राजस्व दो अंकों में करने को लेकर संघर्ष कर रही हैं। परंतु वित्त वर्ष 20 से 25 के बीच वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी से सरकार की प्राप्तियां 19.46 फीसदी वार्षिक की जबर्दस्त गति से बढ़ीं।

वित्त वर्ष 23 और 24 में जीएसटी संग्रह और भारी उधारी के दम पर सरकार ने व्यय में काफी इजाफा किया। वित्त वर्ष 24 के केंद्रीय बजट में 10 लाख करोड़ रुपये के भारी भरकम पूंजीगत आवंटन की घोषणा की गई जिसे वित्त वर्ष 25 में बढ़ाकर 11 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया। इसे रेलवे, सड़क, शहरी परिवहन, जल संबंधी कार्यों, ऊर्जा में बदलाव और रक्षा उत्पादन पर खर्च किया जाना था। इससे वृद्धि को दो साल तक गति मिली।

हालांकि भारी आवंटन के बावजूद वास्तविक सरकारी पूंजीगत व्यय वित्त वर्ष 25 में आश्चर्यजनक रूप से धीमा रहा। उस वर्ष कोई वृद्धि नहीं हुई जबकि राजस्व व्यय बढ़ा और राजस्व घाटा 22 फीसदी हो गया। एक ऐसे समाज में जहां विधि के नियम कमजोर हैं, बेतहाशा भ्रष्टाचार है और लालफीताशाही का बोलबाला है वहां वृद्धि के कारक के रूप में सरकारी पूंजीगत व्यय की सीमा जाहिर है। इतना ही नहीं अगर कर और व्यय के नीचे प्रसार की उम्मीद थी तो वह भी नाकाम साबित हुई है। देश में ग्रामीण क्षेत्रों में मेहनताने और रोजगार वृद्धि में स्थिरता आई है। इसने खपत वृद्धि को प्रभावित किया है।

स्पष्ट है कि रिजर्व बैंक और मौद्रिक नीति समिति का काम ढांचागत मुद्दों को हल करना और जादू की छड़ी से वृद्धि तैयार करना नहीं है। अगर मौजूदा आर्थिक रणनीति के नाकाम होने के किसी प्रमाण की आवश्यकता है तो वेतन वृद्धि इसका प्रमाण है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कर्मचारी भविष्य निधि में शुद्ध पेरोल यानी वेतन के मामलों का जुड़ाव वित्त वर्ष 24 में 5.1 फीसदी ऋणात्मक रहा और वित्त वर्ष 25 में यह 1.3 फीसदी ऋणात्मक है।

मानसिक श्रम वाले कामों से संबंधित नौकरियों के लिए जॉबसीक सूचकांक वित्त वर्ष 23 से ही स्थिर है। रोजगार सृजन में कमी दिखाती है कि 6.5 फीसदी की हेडलाइन जीडीपी वृद्धि कितनी नाकाम साबित हुई है। यह उपभोग को भी बाधित करता है जो अर्थव्यवस्था की जीवन रेखा है। नीति निर्माता तथ्यों का सामना करने से बच नहीं सकते। हमारे सामने ढांचागत मुद्दा है न कि चक्रीय।

(लेखक मनीलाइफडॉटइन के संपादक और मनीलाइफ फाउंडेशन में ट्रस्टी हैं)

First Published : June 24, 2025 | 10:45 PM IST