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MPC: मुद्रास्फीति को तय दायरे में लाने के लिए RBI ने किया संशोधन, मगर लक्ष्य तक पहुंचने में कितनी मिली सफलता?

रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति को अपनी शुरुआत के बाद से ही देश में मुद्रास्फीति पर काबू में रखने में कई बड़ी बाहरी चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। बता रहे हैं जनक राज

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जनक राज   
Last Updated- October 04, 2024 | 9:22 PM IST

भारत में मुद्रास्फीति को तय दायरे में लाने के लिए लचीली (एफआईटी) व्यवस्था तैयार करने के मकसद से 2016 में भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934 में संशोधन किया गया। देश में मौद्रिक नीति के इतिहास में यह महत्त्वपूर्ण मौका था क्योंकि इसके साथ ही मौद्रिक नीति से जुड़े फैसले छह सदस्यों वाली मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने लेने शुरू कर दिए। समित में तीन आंतरिक और तीन बाहरी सदस्य होते हैं।

इससे पहले मौद्रिक नीति से जुड़े फैसले करने का अधिकार केवल रिजर्व बैंक के गवर्नर के पास था। हालांकि रिजर्व बैंक ने जुलाई 2005 में तकनीकी सलाहकार समिति (टीएसी) बना दी थी मगर समिति को संविधिक समर्थन नहीं था।

एमपीसी का गठन अन्य प्रमुख केंद्रीय बैंकों में देखे गए प्रचलन के अनुरूप किया गया था, जिसके साथ ही मौद्रिक नीति के निर्णय समिति को सौंप दिए गए। किंतु अमेरिका के फेडरल रिजर्व सिस्टम या यूरो क्षेत्र में यूरोपियन सेंट्रल बैंक में फैसले सामूहिक होते हैं, जबकि भारत में ऐसा नहीं है। यहां एमपीसी (ब्रिटेन की तरह) मतदान के जरिये फैसले होते हैं, जिसमें समिति के सभी सदस्यों के पास एक-एक वोट होता है। मतों की बराबरी की स्थिति में गवर्नर का वोट निर्णायक माना जाता है।

एमपीसी को मुद्रास्फीति 4 प्रतिशत के दायरे में रखने की जिम्मेदारी दी गई है, जिसमें प्रतिशत कमीबेशी स्वीकार्य है। मुद्रास्फीति का लक्ष्य पांच वर्ष में एक बार तय किया जाता है। सवाल यह है कि इस लक्ष्य को हासिल करने में एमपीसी का प्रदर्शन कैसा रहा है? जवाब देने से पहले यह समझना चाहिए कि 4 प्रतिशत लक्ष्य का यह मतलब नहीं है कि मुद्रास्फीति को हमेशा इसी स्तर पर रखा जा सकता है। किसी बाहरी झटके से मुद्रास्फीति लक्ष्य से बेपटरी होती है तो एमपीसी को वक्त के साथ धीरे-धीरे उसे लक्ष्य पर लौटाना होता है।

मुद्रास्फीति की ऊंची दर को तेजी से लक्ष्य तक वापस लाने के लिए कोई भी प्रयास करते समय एमपीसी को नीतिगत दरें तेजी से बढ़ानी होती हैं, जिससे वृद्धि पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है और वित्तीय बाजारों में अनिश्चितता बढ़ सकती है। इस तरह मुद्रास्फीति लक्ष्य को मध्यम अवधि में हासिल करना चाहिए, जिससे एमपीसी को वृद्धि की चिंता और मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के बीच संतुलन बनाने का मौका मिल सके। यह लचीलापन विचलन दर (टॉलरेंस बैंड) में ही शामिल होता है।

अक्टूबर 2016 से उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) आधारित मुद्रास्फीति औसतन 5 प्रतिशत रही है, जबकि इसका लक्ष्य 4 प्रतिशत है। इस बीच 94 महीने में से 67 महीने में सीपीआई मुद्रास्फीति के लक्ष्य से ऊपर रही।

जनवरी-मार्च 2022 से जुलाई-सितंबर 2022 की लगातार तीन तिमाही में मुद्रास्फीति 6 प्रतिशत के अधिकतम स्तर से ऊपर रही। रिजर्व बैंक अधिनियम के मुताबिक अगर लगातार तीन तिमाही तक औसत मुद्रास्फीति 6 प्रतिशत के अधिकतम स्तर से ऊपर या 2 प्रतिशत के न्यूनतम स्तर से नीचे जाती है तो इसे मुद्रास्फीति लक्ष्य हासिल करने में नाकामी माना जाएगा।

ऐसे मामलों में केंद्रीय बैंक को एक रिपोर्ट में केंद्र सरकार को (1.) मुद्रास्फीति लक्ष्य हासिल करने में नाकामी के कारण, (2.) इसे सुधारने के लिए रिजर्व बैंक द्वारा तय किए गए उपाय और (3.) मुद्रास्फीति लक्ष्य हासिल करने के लिए अनुमानित समयसीमा बतानी होती है। रिजर्व बैंक ने इस सिलसिले में नवंबर 2022 में केंद्र सरकार के पास रिपोर्ट जमा की थी।

किंतु एफआईटी व्यवस्था के दौरान मुद्रास्फीति के रिकॉर्ड को ठीक से समझना होगा। एफआईटी को अपनाने से पहले लगभग पांच वर्षों (जनवरी 2012-सितंबर 2016) में सीपीआई मुद्रास्फीति औसतन 7.3 प्रतिशत रही। इस 57 महीनों में से 8 महीनों में मुख्य मुद्रास्फीति 10 प्रतिशत या उससे अधिक रही थी और 20 महीनों में 9 प्रतिशत से अधिक रही। नवंबर 2013 में यह 11.5 प्रतिशत के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई। इसके विपरीत एफआईटी व्यवस्था अपनाने के बाद मुख्य मुद्रास्फीति 94 में से 10 महीनों में 7 प्रतिशत या उससे अधिक रही और अप्रैल 2022 में यह 7.8 प्रतिशत के शीर्ष स्तर तक गई।

इस प्रकार एफआईटी के तहत मुद्रास्फीति दर उससे पहले के पांच वर्ष की तुलना में काफी कम थी। इससे पता चलता है कि परिवारों के लिए मुद्रास्फीति संबंधी अपेक्षाएं बेहतर तरीके से थामी गईं, जो एफआईटी के दौर में तीन महीने बाद के लिए 7.9 से 11.9 प्रतिशत और एक वर्ष बाद के लिए 8.3 से 11.5 प्रतिशत तक हो गईं। इससे पहले के पांच वर्षों में यह तीन महीने आगे के लिए 8.8 से 12.8 प्रतिशत और एक वर्ष आगे के लिए 9.3 से 13.5 प्रतिशत रहीं।

यह भी अहम बात है कि पिछले आठ वर्षों में कुछ असाधारण घटनाएं घटित हुईं, जिनमें 2020-21 में कोविड-19 महामारी और फरवरी 2022 में शुरू होकर अब तक चल रहा रूस-यूक्रेन युद्ध प्रमुख हैं। कोविड महामारी ने वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला को बुरी तरह उलट दिया और रूस-यूक्रेन युद्ध ने वस्तुओं विशेष रूप से तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों को आग लगा दी। दुनिया भर के केंद्रीय बैंक वैश्विक मुद्रास्फीति में अचानक वृद्धि से हक्के बक्के रह गए क्योंकि कई प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में यह कई दशकों के उच्च स्तर पर पहुंच गई।

उदाहरण के लिए अमेरिका में मुद्रास्फीति बढ़कर 9.1 प्रतिशत और ब्रिटेन में 11.1 प्रतिशत हो गई, जो दोनों देशों में पिछले 40 साल की सबसे ऊंची महंगाई है। यूरो क्षेत्र में तो यह 10.6 प्रतिशत तक पहुंच गई, जो 2 प्रतिशत के लक्ष्य से काफी ऊपर है और आज से पहले कभी नहीं देखी गई। ध्यान देने वाली बात है कि अमेरिका में मुद्रास्फीति लगातार 42 महीने और ब्रिटेन तथा यूरो क्षेत्र में 38-38 महीने लक्ष्य से ऊपर रही है। किंतु इन अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रास्फीति अब नीचे जा रही है और धीरे-धीरे लक्ष्य के करीब पहुंच रही है।

कुल मिलाकर भारत में एफआईटी लागू होने के बाद ज्यादातर समय सीपीआई मुद्रास्फीति 4 प्रतिशत के लक्ष्य से ऊपर रही, जिसका कारण आपूर्ति से जुड़े कई गंभीर झटके मिलना था। किंतु भारत में मुद्रास्फीति को अच्छी तरह बांधा गया और एफआईटी से पहले के पांच वर्षों की तुलना में कुल सीपीआई मुद्रास्फीति दर कम रही। फिर भी मुख्य मुद्रास्फीति को लक्ष्य के अनुरूप रखना जरूरी है, जिससे एफआईटी व्यवस्था की विश्वसनीयता और भी बढ़ जाएगी।

(लेखक सेंटर फॉर सोशल ऐंड इकनॉमिक प्रोग्रेस, नई दिल्ली में सीनियर फेलो हैं और रिजर्व बैंक के कार्यकारी निदेशक रह चुके हैं)

First Published : October 4, 2024 | 9:22 PM IST