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महामारी, बाजार में तेजी और गायब आर्थिक वृद्धि

Last Updated- December 12, 2022 | 4:21 AM IST

पिछले लेख में मैंने कोविड-19 की मार से उत्पन्न प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच शेयर बाजार में तेजी के कारणों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया था। इस महामारी की दूसरी लहर से पूरे देश की बिगड़ी सेहत और ऑक्सीजन की कमी से दम तोड़ रहे लोगों के बीच बाजार में अप्रत्याशित तेजी हैरान करने वाली रही है। सीधी सी बात यह है कि बाजार में तेजी की वजह गुणवत्ता से लैस कंपनियों की मजबूत आय है। इन कंपनियों के वित्तीय नतीजे वित्त वर्ष 2021 की दूसरी तिमाही से सुधरने लगे थे। कंपनियों की आय बढ़ती है तो उनके शेयर चढ़ते हैं और इससे सूचकांक उछलने लगते हैं। हम इसे अमूमन बाजार में तेजी के रूप में परिभाषित करते हैं। बाजार में तेजी तो साफ दि ा रही है और देश-दुनिया में कोविड-19 महामारी का भीषण असर भी दिख रहा है। एक बात जो नजर नहीं आ रही है वह है आय में वृद्धि और इसका कारण।
आश्चर्यचकित करने वाली बात यह है कि आय में मजबूत वृद्धि बाजार में तेजी का तात्कालिक कारण है। ऐसी कंपनियों की कमी नहीं है, जो लगातार मजबूत वित्तीय नतीजे लेकर आ रही हैं। ये कंपनियां सीमेंट से लेकर प्लास्टिक पाइप, रसोई उपकरण बनाने से लेकर फाइबर बोर्ड, सॉ टवेयर सेवाओं से लेकर इस्पात, सिरैमिक्स से लेकर रसायन और परिधान जैसे विभिन्न क्षेत्रों से ताल्लुक रखती हैं। यह बात ध्यान में रखते हुए आय वृद्धि के पहलू का विश्लेषण करना आवश्यक हो जाता है। इन कंपनियों के उ मीद से कहीं बेहतर वित्तीय नतीजे चौंकाने वाले हैं और 2003-07 के दौरान दुनिया के तीन मजबूत आर्थिक क्षेत्रों-यूरोप, अमेरिका और पूर्वी एशिया- में दर्ज शानदार आर्थिक तेजी की याद ाी दिलाते हैं। उस अवधि के दौरान जिंसों (तांबा, तेल, लौह-अयस्क, इस्पात और एल्युमीनियम आदि) की कीमतों में ाी भारी तेजी आई थी। इस वजह से ऑस्ट्रेलिया, रूस और ब्राजील जैसे देश भी उस आर्थिक तेजी का हिस्सा बन गए थे। इस बार भी जिंसों की कीमतें अधिक हैं और चीन, रूस, ब्राजील और अमेरिका में आर्थिक वृद्धि दर मजबूत बनी हुई है।
हालांकि भारत में जो कुछ हो रहा है उसका वैश्विक पटल पर हो रही आर्थिक प्रगति से कोई संबंध नहीं है, बल्कि यहां जो हो रहा है उसकी वजह पूरी तरह स्थानीय है। एक अच्छी बात यह है कि देश में कंपनियों की आय में दिखी तेजी का आधार खोखला नहीं है। दरअसल 2003-07 में आई तेजी में ढांचागत और रियल एस्टेट क्षेत्र में हुए भारी पूंजी निवेश का भी योगदान रहा था। पूंजीगत वस्तु क्षेत्र के अच्छे प्रदर्शन के साथ पेंट्स और उपभोक्ता उत्पाद बनाने वाली कंपनियों जैसे यूनिटेक, जीएमआर, जीवीके, रिलायंस पावर, लैंको और जिंदल स्टील भी सबका ध्यान खींचने लगीं और प्राइवेट इक्विटी निवेशकों और बैंकों से रकम जुटाने में सफल रहीं। बाद में कुप्रबंधन और अवास्तविक अपेक्षाओं के कारण ये कंपनियां चारों खाने चित हो गईं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तेजी जब चरम पर थी तो टाटा स्टील, टाटा मोटर्स और हिंडाल्को जैसी कंपनियों ने बड़े और महंगे अधिग्रहण किए थे। इनसे उन्हें कोई खास लाभ नहीं हुआ।
वर्तमान समय 2000 के दशक के मध्य से अलग है। पहली बात तो पूरी दुनिया में कोविड-19 महामारी के कहर के बीच आर्थिक तेजी (जैसा कि कंपनियों के नतीजे से दि ा रहा है) पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। वास्तव में निवेशकों की नजरें भी केवल तेजी से चढ़ती कीमतों पर हैं और तेजी का कारण जानने में समय गंवाए बिना वे इसका हिस्सा बनना चाहते हैं। जो लोग शेयर कीमतों में तेजी या गिरावट को अधिक तवज्जो नहीं देते हैं उन्हें तो यह भी नहीं लग रहा है कि मजबूत और टिकाऊ आर्थिक वृद्धि संभव हो पाएगी। भारत इस समय जिस त्रासदी से गुजर रहा है उसमें ऐसे लोगों को अर्थव्यवस्था से बहुत उ मीदें नहीं हैं। अब तक तेजी वास्तविक दिख रही है और केवल एक या दो उद्योग समूहों के शेयर की कीमतें उनकी बुनियाद से मेल नहीं खा रही हैं। हमेशा स्थिति भांप कर बातें करने वाले कारोबारी दिग्गज (एशियन पेंट्स, सेरा सैनिटरीवेयर, एस्ट्रल पॉलिटेक्रिक आदि कंपनियों के प्रमुख) भी काफी उत्साहित दिख रहे हैं। एक अच्छी बात यह है कि 2000 के दशक में आई तेजी की तुलना में इस बार पूंजी की बरबादी भी नहीं हो रही है। ऐसा खासकर इसलिए भी क्योंकि बैंक इस समय आंख मूंदकर रकम देने की स्थिति में नहीं हैं।
क्या जारी रहेगी आय वृद्धि?
हम सभी जानते हैं कि दिसंबर 2019 के अंत या 2020 के शुरू तक मजबूत आर्थिक तेजी का कोई संकेत नहीं था। ‘विकास पुरुष’ के नेतृत्व में पांच वर्षों से अधिक समय गुजरने के बावजूद आर्थिक विकास दर 7.5 प्रतिशत से कम होकर 4.5 प्रतिशत रह गई है। इस बात का कोई आधिकारिक आर्थिक तर्क नहीं दिया गया कि भारत क्यों आर्थिक मोर्चे पर फिसलता चला गया। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख विवेक देवरॉय ने 2019 के अंत में एक आलेख में लिखा था कि कमजोर आर्थिक वृद्धि से निपटने के लिए कुछ खास नहीं किया जा सकता। मोदी सरकार कमजोर आर्थिक वृद्धि दर को लेकर कुछ खास नहीं कर सकती है। देवरॉय ने इसके पीछे कई तर्क दिए। सबसे पहले उन्होंने कहा कि हमें खुश रहना चाहिए कि भारत दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में एक है। उन्होंने यह भी कहा कि देश में महंगाई दर कम है जो एक अच्छी बात है। एक तीसरी बात उन्होंने यह कही कि सरकार को दोष देने के बजाय कमजोर वैश्विक व्यापार आर्थिक वृद्धि में सुस्ती के लिए उत्तरदायी है। देवरॉय ने यह भी कहा कि संरचनात्मक सुधार नहीं हो सकते क्योंकि भूमि एवं श्रम राज्य सूची में आते हैं। कुल मिलाकर, विवेक देवरॉय के अनुसार आर्थिक वृद्धि दर 5 प्रतिशत रहती है तो इससे घबराने की जरूरत नहीं है और यह 6 प्रतिशत तक हो जाएगी। उन्होंने कहा था कि मौजूदा सुधारों से अधिक सक्षम एवं औपचारिक अर्थव्यवस्था उभरेगी लेकिन यह इसमें थोड़ा वक्त लगेगा।
यह हैरान करने वाली बात है कि ऐसे निराशावादी स्पष्टीकरण के महज छह महीने बाद कि हमें क्यों ऊंची वृद्धि दर की उ मीद नहीं करनी चाहिए, ाारतीय कंपनियों के नतीजे हरेक तिमाही में मजबूत हो रहे हैं। यह तब हो रहा है जब दुनिया वैश्विक महामारी की चपेट में हैं और लॉकडाउन के बीच कारोबार प्रभावित हुए हैं और अनगिनत सं या में लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा है। सितंबर तिमाही में ऐसा लगा था कि लॉकडाउन की वजह से कंपनियों की लागत कम हो गई जिसका सकारात्मक असर उनके वित्तीय नतीजों पर हुआ। दिसंबर तिमाही तक यह लगा कि लॉकडाउन के कारण थमी मांग अचानक बढऩे से कंपनियों का कारोबार अचानक बढ़ गया है। सच्चाई यह है कि पिछले नौ महीनों के दौरान कंपनियों की बिक्री बढ़ी है और इस समय उनकी क्षमताएं मांग पूरा करने में असमर्थ साबित हो रही हैं। मजबूत मांग से निपटने के लिए उन्हें अपनी क्षमता बढ़ाने की योजना तैयार करनी होगी। इस बड़ी प्रगति पर अब तक मैंने कोई स्पष्टीकरण नहीं देखा है। हो सकता है कि जीएसटी के कारण कर व्यवस्था का एकीकरण इसकी वजह हो या विभिन्न योजनाओं के मद में सरकार द्वारा खर्च किए जाने से मांग को ताकत मिल रही है। यह भी संभव है कि अब ज्यादातर भारतीय कंपनियों के निर्यात पर केंद्रित होने से विदेश में उनके उत्पादों की मांग काफी बढ़ गई है। इस तेजी के कारण भले ही नजर नहीं आ रहे हैं लेकिन फिलहाल कम से कम आर्थिक तेजी की बात से इनकार तो नहीं किया जा सकता है।
(लेखक डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट मनीलाइफ डॉट इन के संपादक हैं। )

First Published - May 28, 2021 | 11:50 PM IST

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Last Updated- December 12, 2022 | 4:21 AM IST

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आश्चर्यचकित करने वाली बात यह है कि आय में मजबूत वृद्धि बाजार में तेजी का तात्कालिक कारण है। ऐसी कंपनियों की कमी नहीं है, जो लगातार मजबूत वित्तीय नतीजे लेकर आ रही हैं। ये कंपनियां सीमेंट से लेकर प्लास्टिक पाइप, रसोई उपकरण बनाने से लेकर फाइबर बोर्ड, सॉ टवेयर सेवाओं से लेकर इस्पात, सिरैमिक्स से लेकर रसायन और परिधान जैसे विभिन्न क्षेत्रों से ताल्लुक रखती हैं। यह बात ध्यान में रखते हुए आय वृद्धि के पहलू का विश्लेषण करना आवश्यक हो जाता है। इन कंपनियों के उ मीद से कहीं बेहतर वित्तीय नतीजे चौंकाने वाले हैं और 2003-07 के दौरान दुनिया के तीन मजबूत आर्थिक क्षेत्रों-यूरोप, अमेरिका और पूर्वी एशिया- में दर्ज शानदार आर्थिक तेजी की याद ाी दिलाते हैं। उस अवधि के दौरान जिंसों (तांबा, तेल, लौह-अयस्क, इस्पात और एल्युमीनियम आदि) की कीमतों में ाी भारी तेजी आई थी। इस वजह से ऑस्ट्रेलिया, रूस और ब्राजील जैसे देश भी उस आर्थिक तेजी का हिस्सा बन गए थे। इस बार भी जिंसों की कीमतें अधिक हैं और चीन, रूस, ब्राजील और अमेरिका में आर्थिक वृद्धि दर मजबूत बनी हुई है।
हालांकि भारत में जो कुछ हो रहा है उसका वैश्विक पटल पर हो रही आर्थिक प्रगति से कोई संबंध नहीं है, बल्कि यहां जो हो रहा है उसकी वजह पूरी तरह स्थानीय है। एक अच्छी बात यह है कि देश में कंपनियों की आय में दिखी तेजी का आधार खोखला नहीं है। दरअसल 2003-07 में आई तेजी में ढांचागत और रियल एस्टेट क्षेत्र में हुए भारी पूंजी निवेश का भी योगदान रहा था। पूंजीगत वस्तु क्षेत्र के अच्छे प्रदर्शन के साथ पेंट्स और उपभोक्ता उत्पाद बनाने वाली कंपनियों जैसे यूनिटेक, जीएमआर, जीवीके, रिलायंस पावर, लैंको और जिंदल स्टील भी सबका ध्यान खींचने लगीं और प्राइवेट इक्विटी निवेशकों और बैंकों से रकम जुटाने में सफल रहीं। बाद में कुप्रबंधन और अवास्तविक अपेक्षाओं के कारण ये कंपनियां चारों खाने चित हो गईं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तेजी जब चरम पर थी तो टाटा स्टील, टाटा मोटर्स और हिंडाल्को जैसी कंपनियों ने बड़े और महंगे अधिग्रहण किए थे। इनसे उन्हें कोई खास लाभ नहीं हुआ।
वर्तमान समय 2000 के दशक के मध्य से अलग है। पहली बात तो पूरी दुनिया में कोविड-19 महामारी के कहर के बीच आर्थिक तेजी (जैसा कि कंपनियों के नतीजे से दि ा रहा है) पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। वास्तव में निवेशकों की नजरें भी केवल तेजी से चढ़ती कीमतों पर हैं और तेजी का कारण जानने में समय गंवाए बिना वे इसका हिस्सा बनना चाहते हैं। जो लोग शेयर कीमतों में तेजी या गिरावट को अधिक तवज्जो नहीं देते हैं उन्हें तो यह भी नहीं लग रहा है कि मजबूत और टिकाऊ आर्थिक वृद्धि संभव हो पाएगी। भारत इस समय जिस त्रासदी से गुजर रहा है उसमें ऐसे लोगों को अर्थव्यवस्था से बहुत उ मीदें नहीं हैं। अब तक तेजी वास्तविक दिख रही है और केवल एक या दो उद्योग समूहों के शेयर की कीमतें उनकी बुनियाद से मेल नहीं खा रही हैं। हमेशा स्थिति भांप कर बातें करने वाले कारोबारी दिग्गज (एशियन पेंट्स, सेरा सैनिटरीवेयर, एस्ट्रल पॉलिटेक्रिक आदि कंपनियों के प्रमुख) भी काफी उत्साहित दिख रहे हैं। एक अच्छी बात यह है कि 2000 के दशक में आई तेजी की तुलना में इस बार पूंजी की बरबादी भी नहीं हो रही है। ऐसा खासकर इसलिए भी क्योंकि बैंक इस समय आंख मूंदकर रकम देने की स्थिति में नहीं हैं।
क्या जारी रहेगी आय वृद्धि?
हम सभी जानते हैं कि दिसंबर 2019 के अंत या 2020 के शुरू तक मजबूत आर्थिक तेजी का कोई संकेत नहीं था। ‘विकास पुरुष’ के नेतृत्व में पांच वर्षों से अधिक समय गुजरने के बावजूद आर्थिक विकास दर 7.5 प्रतिशत से कम होकर 4.5 प्रतिशत रह गई है। इस बात का कोई आधिकारिक आर्थिक तर्क नहीं दिया गया कि भारत क्यों आर्थिक मोर्चे पर फिसलता चला गया। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख विवेक देवरॉय ने 2019 के अंत में एक आलेख में लिखा था कि कमजोर आर्थिक वृद्धि से निपटने के लिए कुछ खास नहीं किया जा सकता। मोदी सरकार कमजोर आर्थिक वृद्धि दर को लेकर कुछ खास नहीं कर सकती है। देवरॉय ने इसके पीछे कई तर्क दिए। सबसे पहले उन्होंने कहा कि हमें खुश रहना चाहिए कि भारत दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में एक है। उन्होंने यह भी कहा कि देश में महंगाई दर कम है जो एक अच्छी बात है। एक तीसरी बात उन्होंने यह कही कि सरकार को दोष देने के बजाय कमजोर वैश्विक व्यापार आर्थिक वृद्धि में सुस्ती के लिए उत्तरदायी है। देवरॉय ने यह भी कहा कि संरचनात्मक सुधार नहीं हो सकते क्योंकि भूमि एवं श्रम राज्य सूची में आते हैं। कुल मिलाकर, विवेक देवरॉय के अनुसार आर्थिक वृद्धि दर 5 प्रतिशत रहती है तो इससे घबराने की जरूरत नहीं है और यह 6 प्रतिशत तक हो जाएगी। उन्होंने कहा था कि मौजूदा सुधारों से अधिक सक्षम एवं औपचारिक अर्थव्यवस्था उभरेगी लेकिन यह इसमें थोड़ा वक्त लगेगा।
यह हैरान करने वाली बात है कि ऐसे निराशावादी स्पष्टीकरण के महज छह महीने बाद कि हमें क्यों ऊंची वृद्धि दर की उ मीद नहीं करनी चाहिए, ाारतीय कंपनियों के नतीजे हरेक तिमाही में मजबूत हो रहे हैं। यह तब हो रहा है जब दुनिया वैश्विक महामारी की चपेट में हैं और लॉकडाउन के बीच कारोबार प्रभावित हुए हैं और अनगिनत सं या में लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा है। सितंबर तिमाही में ऐसा लगा था कि लॉकडाउन की वजह से कंपनियों की लागत कम हो गई जिसका सकारात्मक असर उनके वित्तीय नतीजों पर हुआ। दिसंबर तिमाही तक यह लगा कि लॉकडाउन के कारण थमी मांग अचानक बढऩे से कंपनियों का कारोबार अचानक बढ़ गया है। सच्चाई यह है कि पिछले नौ महीनों के दौरान कंपनियों की बिक्री बढ़ी है और इस समय उनकी क्षमताएं मांग पूरा करने में असमर्थ साबित हो रही हैं। मजबूत मांग से निपटने के लिए उन्हें अपनी क्षमता बढ़ाने की योजना तैयार करनी होगी। इस बड़ी प्रगति पर अब तक मैंने कोई स्पष्टीकरण नहीं देखा है। हो सकता है कि जीएसटी के कारण कर व्यवस्था का एकीकरण इसकी वजह हो या विभिन्न योजनाओं के मद में सरकार द्वारा खर्च किए जाने से मांग को ताकत मिल रही है। यह भी संभव है कि अब ज्यादातर भारतीय कंपनियों के निर्यात पर केंद्रित होने से विदेश में उनके उत्पादों की मांग काफी बढ़ गई है। इस तेजी के कारण भले ही नजर नहीं आ रहे हैं लेकिन फिलहाल कम से कम आर्थिक तेजी की बात से इनकार तो नहीं किया जा सकता है।
(लेखक डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट मनीलाइफ डॉट इन के संपादक हैं। )

First Published - May 28, 2021 | 11:50 PM IST

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