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राष्ट्र की बात: बांग्लादेशी हिंदुओं की चिंता और भारत का रुख

क्या हमें यह याद है कि इससे पहले किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने अमेरिकी राष्ट्रप्रमुख से पड़ोसी देश में हिंदुओं की सुरक्षा में मदद करने का आह्वान कब किया था?

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शेखर गुप्ता   
Last Updated- September 02, 2024 | 7:10 AM IST

यह ऐसा दौर है जहां छोटे-मोटे विवाद भी भू राजनीतिक बहसों के विवाद में बदल जाते हैं। पिछले दिनों नरेंद्र मोदी और जो बाइडन के बीच टेलीफोन पर हुई बातचीत के बाद अमेरिका और भारत के बयानों में जो अंतर है उसे हम इसी आलोक में देख सकते हैं और मजाक के रूप में खारिज कर सकते हैं। इस बात को मुद्दा बनाया गया कि अमेरिका ने मोदी द्वारा बांग्लादेशी हिंदुओं की हालत पर जो चिंता जताई, अमेरिका ने उसका जिक्र नहीं किया। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि भारत को समझदारी दिखाने की जरूरत है।

समझदारी दिखाने की यह बात कई अलग-अलग वजह से भी लागू होती है। हम यह कह सकते हैं कि ये प्रतिक्रियाएं और व्यापक नाराजगी कोई मजाक नहीं है। यह गंभीर मसला है। सबसे गंभीर बात यह है कि भारतीय प्रधानमंत्री जो एक मजबूत और स्थिर सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं उन्हें पड़ोस के हिंदुओं की रक्षा के लिए अमेरिक से गुहार लगानी पड़ी। इससे कुछ गंभीर प्रश्न उत्पन्न होते हैं। मसलन:

  1. क्या हमें याद है कि इससे पहले कब किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने अमेरिका के (अब हमारा अनिवार्य रणनीतिक साझेदार) राष्ट्रप्रमुख से पड़ोसी देश में हिंदुओं की रक्षा में मदद मांगी थी?
  2. या फिर पिछले दिनों जब ऐसा फोन करके एक विदेशी शक्ति से हमारे पड़ोस में हालात को नियंत्रित करने को कहा गया? पुरी दुनिया से यह कहा जाता रहा है कि वह पाकिस्तान को भारत में सीमा पार आतंकवाद फैलाने से रोके। परंतु क्या भारत को इस बात की परवाह है कि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) या अच्छे-अच्छे नामों वाले 10 अन्य आतंकी समूह पाकिस्तान के भीतर क्या कर रहे हैं? जरा देखिए कि टीटीपी पाकिस्तानी सेना के अगवा किए गए कर्नल के साथ क्या कर रही है? टीटीपी द्वारा जारी एक वीडियो में आप उन्हें गिड़गिड़ाते देख सकते हैं।
  3. क्या भारत ने कभी यह माना है कि हमारे निकट पड़ोस में किसी अन्य देश की वैध भूमिका हो सकती है? यहां तक कि इंदिरा गांधी के दौर में जब वॉयस ऑफ अमेरिका ने त्रिंकोमाली में एक ट्रांसमिटर लगाया था तब भी हम नाराज हो गए थे कि एक विदेशी शक्ति हमारे क्षेत्र में ऐसा कैसे कर सकती है।
  4. हिंदू अक्सर पाकिस्तान में उत्पीड़न की शिकायत करते हैं और भारत में शरण चाहते हैं। तमिलों (ज्यादातर हिंदू) को एक समय लाखों की तादाद में श्रीलंका से निकलना पड़ा। नेपाल में मधेशी अक्सर भेदभाव की शिकायत करते हुए भारत की मदद चाहते हैं। क्या भारत कभी अमेरिका या यूरोप के देशों से हस्तक्षेप करने को कहने की कल्पना कर सकता है?
  5. अंतिम सवाल यह है कि क्या हम यह स्वीकार कर रहे हैं कि अमेरिका, बांग्लादेश पर हमसे अधिक प्रभाव रखता है। वह भी तब जब हम हर साल अपने उच्चायोग और चार वाणिज्य दूतावास 20 लाख बांग्लादेशियों को वीजा जारी करते हैं।

इन पांचों प्रश्नों का एक ही सरल जवाब है: कभी नहीं, कभी नहीं, कभी नहीं। अब से चार दशक पहले दिसंबर 1971 में भारत का व्यापक रणनीतिक हित तीन सिद्धांतों पर आधारित था। पहला, देश की सरहदों को आगे कोई क्षति नहीं पहुंचनी चाहिए। दूसरा, भारत को परमाणु हथियारों के मामले में पूर्ण स्वायत्तता होनी चाहिए और तीसरा भारतीय उपमहाद्वीप हमारी श्रेष्ठता का क्षेत्र है। मजबूत भारतीय सरकार इसका विस्तार ही करने की कोशिश करेंगी, इसे छोटा करना अस्वीकार्य है।

बीते 53 साल के दौरान देश के 12 प्रधानमंत्रियों ने इन सिद्धांतों को स्थापित, व्याख्यायित और मजबूत किया। तीसरा सिद्धांत अब खतरे में है। यह 1980 के दशक का भारत नहीं है। हमारी अर्थव्यवस्था चार लाख करोड़ डॉलर का आकार हासिल कर रही है और जल्दी ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होगी।

संयुक्त राष्ट्र के पांच स्थायी सदस्यों के अलावा भारत इकलौता देश है जिसके पास परमाणु क्षमता संपन्न पनडुब्बियां हैं। क्वाड समूह में हमारी अहम भूमिक है। यूक्रेन में शांति स्थापना में भारत नैतिक महत्त्व और रणनीतिक वजन रखता है। यही वजह है कि भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों की रक्षा में अमेरिकी राष्ट्रपति से मदद मांगना रहस्यमयी है। यह एक तरह से उसके वर्चस्व को स्वीकार करना है जिसे भारत हमेशा नकारता रहा है और जिसका विरोध करता रहा है।

यह सही है कि बांग्लादेश में हिदुओं के साथ हो रहा व्यवहार दिक्कतदेह मुद्दा है। इसका कारण यह है कि तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने अल्पसंख्यकों के साथ व्यवहार को लेकर अप्रैल 1950 में तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ जो समझौता किया था वह उसका पालन नहीं कर सके। अक्टूबर 1951 में उनकी हत्या कर दी गई और पाकिस्तान ने ऐसी संप्रभु प्रतिबद्धताओं को तवज्जो नहीं दी।

अतीत में भी बड़े अल्पसंख्यक समुदायों पर हमले हुए हैं। कई बार घरेलू राजनीतिक उथलपुथल में तो कई बार भारत में घटी घटनाओं के कारण। 1963 में श्रीनगर में हजरल बल घटनाक्रम और 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस इसका उदाहरण हैं। पूर्वी पाकिस्तान के एक करोड़ से अधिक हिंदू, जिन्होंने 1971 में नरसंहार के बाद भारत में शरण मांगी थी, वे वापस नहीं लौटे। 1950 और 1960 के दशक में कई बार हिंदुओं ने भारत का रुख किया। तथ्य यह है कि लोगों का यह सामूहिक पलायन 1970 के दशक में धीमा पड़ा और फिर बंद हो गया।

शेख हसीना का 15 साल का शासन हिंदुओं के लिए सबसे शांति का समय रहा और कई को सत्ता में अहम मुकाम हासिल हुए। यद्यपि इस दौर में भी दंगे और हमले होने की आशंका हमेशा बनी रहती थी। 2013 में बांग्लादेश के सर्वोच्च न्यायालय ने जमात-ए-इस्लामी को चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर दिया। उस समय भीड़ ने हिंदुओं और उनके उपासना स्थल पर हमले किए। ये निविर्वाद तथ्य हैं।

यहां तक कि शेख हसीना के नाटकीय पतन के समय भी हिंदुओं और उनके उपासना स्थलों को निशाना बनाया गया। जिन जगहों पर हमले किए गए उनमें इंदिरा गांधी कल्चरल सेंटर भी शामिल है। हालांकि अंतरिम प्रशासन के सर्वोच्च स्तर से यानी मोहम्मद यूसुफ ने स्वयं सुरक्षा बहाल करने की बात कही। उनके प्रशासन ने इसलिए भी तत्परता दिखाई कि भारत ने मजबूत स्वर में अपनी बात रखी।

बहरहाल सड़कों पर चाहे जितना भारत विरोधी माहौल हो लेकिन बांग्लादेश का भद्र वर्ग जानता है कि भारत के साथ रिश्ते कितने अहम हैं। वे भारत को स्थायी रूप से न तो नाराज कर सकते हैं और न ही परेशान कर सकते हैं। हालांकि इस्लामिक चरमपंथी ताकतें ऐसा करने की चाह रखती हैं। बुनियादी बात यह है कि जब भारत के पास बांग्लादेश के हिंदुओं को सुरक्षित रख सकने की क्षमता है तो अमेरिका की बाट क्यों जोहनी?

मोदी सरकार को इस पर सोचना होगा। संभव है ऐसा घरेलू जनता को संतुष्ट करने के लिए किया गया हो। परंतु यह सोचना भी खुद को नुकसान पहुंचाने वाला है कि भारत में सत्ताधारी दल के हिंदू समर्थक इस बात से प्रसन्न होंगे कि भारत बांग्लादेश के हिंदुओं के बचाव के लिए अपनी ताकत इस्तेमाल करने के लिए अपने ऊपर भरोसा करने के बजाय बाइडन के प्रभाव के भरोसे है।

जैसा कि हमने पहले भी कहा, यह हमारी इस बुनियादी रणनीतिक जरूरत के खिलाफ है कि उपमहाद्वीप में हमारा वर्चस्व रहे। किसी महाशक्ति को आमंत्रित करके ऐसा नहीं किया जा सकता है। जब हमारे पड़ोसी देश और ओआईसी हमें अपने ही मुस्लिमों के बारे में भाषण देते हैं तो हम कितना चिढ़ते हैं? क्या भारत दुनिया भर में हिंदू हितों को लेकर ओआईसी का समकक्ष बनना चाहता है? पूरी दुनिया का दोस्त या गुरु बनने की चाह रखने वाले देश के लिए यह आदर्श स्थिति नहीं है।

घरेलू राजनीतिक जरूरतों को रणनीतिक हितों के साथ कैसे संतुलित किया जाए? हम भारतीय इकलौते ऐसे लोग नहीं हैं जो अपने पड़ोस के बारे में कही या वहां घटी हर चीज पर इतना अधिक गौर करते हों। पड़ोसी भी हमारी हर बात का विश्लेषण करते हैं। असम की मुस्लिम विरोधी राजनीति, वहां के मुख्यमंत्री हिमंत विश्व शर्मा द्वारा बार-बार ‘मियां’ शब्द का इस्तेमाल (बांग्लादेशी मुस्लिमों को ध्यान में रखकर) वहां हसीना के उत्तराधिकारी या आम जनता के साथ संतुलित रिश्ता नहीं कायम करने देगा।

बांग्लादेश ने शेख हसीन और अवामी लीग को ठुकरा दिया है। क्या बदले में हम बांग्लादेश को ठुकरा रहे हैं? हसीना का पतन भारत का पतन नहीं होना चाहिए। एक संप्रभु देश वहीं जाता है जहां उसकी जनता उसे ले जाती है। हम अपने पड़ोसी नहीं चुन सकते लेकिन हम कैसे पड़ोसी बनना चाहते हैं, यह हम चुन सकते हैं।

First Published : September 2, 2024 | 7:10 AM IST