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कंटेंट की भरमार में धुंधला होता बाजार

इस भीड़भाड़ ने मीडिया कारोबार के सामने गहरा संकट पैदा कर दिया है। गुणवत्ता की अपेक्षा बढ़ रही हैं, लागत बढ़कर दो या चार गुना हो गई है।

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वनिता कोहली-खांडेकर   
Last Updated- January 23, 2025 | 9:45 PM IST

ऐपल टीवी प्लस पर प्रसारित हो रहे ‘स्लो हॉर्सेस’ में स्लॉ हाउस की कहानी दिखाई गई है,जो एमआई5 से खारिज किए गए लोगों का ठिकाना है। मगर ये स्लो हॉर्सेस रीजेंट पार्क के शानदार दफ्तर में बैठे आम एजेंटों के मुकाबले ज्यादा हरकत में रहते हैं और ज्यादा उत्पात मचाते हैं। ऐपल टीवी प्लस पर इस जासूसी शो का चौथा सीजन आ रहा है, जिसमें गैरी ओल्डमैन ने इन स्लो हॉर्स के उस बेढंगे बॉस की भूमिका बेजोड़ तरीके से निभाई है, जिसे कोई पसंद ही नहीं करता। मुझे ऐपल टीवी प्लस का पता देर से चला। दूसरी ओर डिज्नी के बैनर तले बनी बैरी जेनकिंस की ‘मुफासा’ प्यारी फिल्म है, जिसमें द लॉयन किंग की शुरुआत दिखाई गई है। जिस रात आईमैक्स थिएटर में मैंने यह फिल्म देखी कमोबेश पूरा थिएटर खाली पड़ा था। उसी हफ्ते गौरव भारद्वाज का भव्य स्तर पर बनाया गया नाटक ‘हमारे राम’ भी आया। कवितामय संवादों वाले इस नाटक में अद्भुत राम-रावण संवाद दिखाया गया है। राम की शानदार भूमिका राहुल भूचर ने निभाई है आशुतोष राणा ने तो मंच पर रावण को जीवंत ही कर दिया है।

ये कहानियां पिछले दो हफ्तों में मैंने स्ट्रीमिंग सेवा पर, सिनेमा हॉल में और मंच पर देखी हैं। इनके अलावा मैंने ऐपल टीवी प्लस पर जेसन सडेकिस के ‘टेड लासो’ के तीन सीजन देखे और नेटफ्लिक्स पर क्रिस्टोफर मैक्वेरी की ‘मिशन इंपॉसिबल: डेड रेकनिंग पार्ट वन’ देखी। इसके अलावा कुकिंग, शाहरुख खान, जाकिर खान, कपिल शर्मा और ग्राहम नॉर्टन आदि के सैकड़ों रील्स या शॉर्ट वीडियो भी थे। मैं रोजाना तीन अखबार पढ़ती हूं, महीने में चार पत्रिकाएं और किताबें पढ़ती हूं। आजकल मैं नॉर्डिक देशों के लेखकों को जमकर पढ़ रही हूं। मगर इस सबके बीच मुझे काम भी करना होता है। हम जो फिल्में, शो और नाटक देखते हैं या किताबें पढ़ते हैं, वे अलग-अलग हो सकते हैं मगर उनकी कहानी ब्रॉडबैंड इंटरनेट वाले लैपटॉप, टेलीविजन या फोन इस्तेमाल करने वाले 52.3 करोड़ भारतीयों में से ज्यादातर के लिए एक जैसी है। सच कहूं तो देखने, पढ़ने या समझने के लिए सामग्री यानी कंटेंट भरा पड़ा है। कॉमस्कोर के आंकड़ों के अनुसार नवंबर 2024 में समाचार, मनोरंजन और सोशल मीडिया कंटेंट की ऑनलाइन खपत ही रोजाना 2.5 घंटे की थी। टीवी पर रोजाना चार घंटे कार्यक्रम देखे जाते हैं और दूसरे माध्यम भी मिला लें तो एक-तिहाई भारतीय तो रोज करीब 7-8 घंटे इनमें खपाते हैं। (ध्यान रहे कि यह लेख उन 52.3 करोड़ भारतीयों के बारे में है, जिन्हें जरूरत से ज्यादा कंटेंट मिल रहा है। मगर एक बड़ा बाजार वह भी है, जो अभी सस्ते स्मार्टफोन और इंटरनेट से जुड़े टीवी का इंतजार कर रहा है)।

सरकारी दूरदर्शन और इकलौते अखबार के दौर में पले-बढ़े शख्स के तौर पर मेरे लिए उदारीकरण के बाद की यह बाढ़ गजब की रही है। आज भारत में 900 से अधिक समाचार चैनल हैं, हजारों अखबार हैं और 860 से ज्यादा रेडियो चैनल हैं। हम साल में 1600 से ऊपर फिल्में बनाते हैं। इसके बाद 2018 में स्ट्रीमिंग शुरू हो गई और देखने के लिए कंटेंट की बाढ़ आ गई। अब 60 से अधिक वीडियो स्ट्रीमिंग ऐप्स हैं और एक दर्जन से अधिक ऐप संगीत स्ट्रीम कर रहे हैं। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस या एआई से डबिंग या सब-टाइटल तैयार करने का काम बेहद तेज रफ्तार से हो सकता है, जिससे मीडिया कंपनियां पहले से कम खर्च में शो, फिल्म, टेक्स्ट आदि तैयार कर पाएंगी। इसका मतलब है कि पहले ही कंटेंट में डूब रही दुनिया में कंटेंट का नया जमावड़ा हो जाएगा।

इससे तीन सवाल पैदा होते हैं। पहला, इन सबका अंत कहां होगा? शायद तब, जब इंसानों के पास कहने के लिए कहानी ही नहीं होंगी। दूसरा, इसका अर्थ क्या है? शायद मानव इतिहास में सबसे ज्यादा भ्रमित उपभोक्ता? एक शोध कहता है कि स्क्रीन का बहुत ज्यादा इस्तेमाल करने वाले औसतन 8 सेकंड तक ही कहीं टिक पाते हैं। यह गोल्डफिश से भी कम है, जो लगातार 9 सेकंड तक कुछ टिककर देख पाती है। इतना कम ध्यान देने वाले उपभोक्ताओं को आप कहानी कैसे सुनाएंगे या उत्पाद कैसे बेच पाएंगे? बाजार में अरबों विकल्प हैं, जो बढ़ते ही जा रहे हैं। प्रसारकों, स्ट्रीम करने वालों, प्रकाशकों, बाजारविदों और इनफ्लुएंसरों के बीच अब कहानी सुनाने की ही होड़ है। बाजार कितना बड़ा है, देख लीजिए : यूट्यूब पर ही हर मिनट 500 घंटे के वीडियो अपलोड होते हैं। इतना ज्यादा कंटेंट हमारे दिमाग पर किस तरह असर डाल रहा है, दुनिया भर में इस पर अध्ययन किया जा रहा है।

हैरत की बात नहीं है कि कि चीजों का आनंद लेने, सराहने और उन पर चर्चा करने की हमारी क्षमता कम हो रही है। शायद इसीलिए स्टारडम कम हो रहा है, बहुत कम फिल्में सफल हो रही हैं और गूगल, मेटा जैसे प्लेटफॉर्मों की तूती बोल रही है। इससे पहले मीडिया का पूरा अर्थशास्त्र इस बात पर चलता था कि कोई सामग्री कितनी बार देखने के काबिल है। कोई कामयाब फिल्म, शो या संगीत लंबे अरसे तक चलता रहता था और उसे तैयार करने वाली कंपनी के पास कमाई के खूब मौके होते थे। अब गूगल और मेटा मुश्किल से चौथाई कीमत पर सभी श्रेणियों और स्थानों के दर्शकों को यह सब कंटेंट मुहैया करा रही हैं। दोबारा देखना भूल जाइए, उपभोक्ताओं को कोई किताब या शो याद रह जाए तो ही बड़ी बात है।

पहले इंटरनेट और उसके बाद सोशल मीडिया ने जिस तरह कंटेंट को सर्वसुलभ बना दिया, उससे मनोरंजन करने वालों और पाने वालों, सूचना देने वालों और लेने वालों, लेखक और पाठक, श्रोता और संगीतकार के बीच का भेद समाप्त हो गया। ऑनलाइन दुनिया खुली हुई है, दुनिया भर में फैली है और वहां कोई भी कुछ भी पेश कर सकता है। लोग बच्चों के बारे में बता रहे हैं, पाक कला के जौहर दिखा रहे हैं या बता रहे हैं कि वे हस्तियों की कितनी अच्छी नकल कर लेते हैं। जब सब लोग कंटेंट बनाएंगो तो देखेगा-सुनेगा कौन? यही तीसरा सवाल है।

इस भीड़भाड़ ने मीडिया कारोबार के सामने गहरा संकट पैदा कर दिया है। गुणवत्ता की अपेक्षा बढ़ रही हैं, लागत बढ़कर दो या चार गुना हो गई है। पैसे कमाने के लिए जूझ रही स्ट्रीमिंग सेवाएं काफी हद तक टीवी की तरह हो रही हैं। कमाई बढ़ाने के लिए अब वे भी विज्ञापन दिखा रही हैं और खेल, गेम्स तथा लोकप्रिय कार्यक्रम शामिल कर रही हैं। फिल्मकार अपने दर्शकों को समझने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

पिछले साल मेरी बातचीत लेखक और विज्ञापन जगत की शख्सियत प्रसून जोशी से हुई थी। वह इस दौर को ‘कंटेंट का अपच’ कह रहे थे। यह गजब की उथल-पुथल का दौर है, जिसके आखिर में शायद अमृत निकल आए।

First Published : January 23, 2025 | 9:34 PM IST