गत माह प्रकाशित अपने आलेख में मैंने यह निष्कर्ष दिया था कि मध्यम अवधि में 3 से 5 फीसदी से अधिक औसत वृद्धि दर दूर की कौड़ी नजर आती है। मध्यम अवधि से मेरा तात्पर्य 2021-22 के बाद के पांच वर्षों से था। बेहतर होगा कि हम इस संभावित घटनाक्रम पर एक नजर डालें।
आर्थिक मोर्चे पर अधिक चिंतित करने वाला पहलू रोजगार और बेरोजगारी से संबंधित है। सालाना 7 फीसदी की अपेक्षाकृत बेहतर वृद्धि दर के बावजूद वर्ष 2004-05 से 2017-18 के बीच भारत का रोजगार-बेरोजगारी परिदृश्य खराब हुआ है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक 2011-12 के बाद इसमें खास गिरावट आई है। बेरोजगारी दर तीन गुनी बढ़कर 6 फीसदी हो गई, युवा (15 से 29) बेरोजगारी की दर भी तीन गुनी बढ़कर 18 प्रतिशत के अप्रत्याशित स्तर तक पहुंच गई है। श्रम शक्ति भागीदारी दर (एलएफपीआर यानी श्रम करने लायक आयु की तुलना में रोजगारशुदा या रोजगार तलाश रहे लोगों का अनुपात) 64 प्रतिशत से घटकर 50 फीसदी रह गई। महिलाओं के लिए एलएफपीआर 43 फीसदी से गिरकर 23 फीसदी रह गई। इन तमाम अनुपातों में भारत अन्य एशियाई देशों मसलन चीन, इंडोनेशिया, वियतनाम और बांग्लादेश के मुकाबले पीछे नजर आता है। बुनियादी तौर पर 2017-18 तक 13 वर्ष की मजबूत आर्थिक वृद्धि में भी बहुत बड़ी तादाद में रोजगार देखने को नहीं मिले। एक के बाद एक सरकारों ने कमजोर आर्थिक नीतियों के बावजूद युवा आबादी के जनांकीय लाभांश का काफी लाभ उठाया।
सीएमआईई सर्वेक्षण के ताजातरीन आंकड़े बताते हैं कि 2017-18 के बाद से वृद्धि दर में गिरावट आने लगी थी और इसके बाद कोविड-19 महामारी के कारण लागू देशव्यापी लॉकडाउन के झटके से 2020-21 के मध्य तक एलएफपीआर में तीन फीसदी की और कमी आई। नतीजतन इस अवधि तक काम करने लायक आबादी के रोजगार में 4 फीसदी तक की कमी आई और यह 40 फीसदी से नीचे आ गया। यानी देश में काम करने लायक एक अरब लोगों में से 40 करोड़ से भी कम रोजगारशुदा हैं।
वर्ष 2021-22 के बाद के वर्षों की धीमी आर्थिक वृद्धि के साथ, खासकर रोजगार आधारित क्षेत्रों और सस्ते विनिर्माण के साथ देश की अर्थव्यवस्था का मौजूदा व्यापक रोजगार संकट बरकरार रहेगा बल्कि मध्यम अवधि में हालात बिगड़ भी सकते हैं। यह आजीविका समेत कई दृष्टि से एक लंबी त्रासदी साबित होगी।
रोजगार और आय में धीमी या नाम मात्र की वृद्धि मौजूदा सामाजिक और राजनीतिक तनाव को और बढ़ाएगी। धर्म, जाति, वर्ग, प्रांत और लैंगिक आधार पर यह तनाव गहरे तक व्याप्त है। देश की विविधता का प्रबंधन करना आजादी के बाद से सभी सरकारों के लिए बड़ी चुनौती रहा है। धीमी आर्थिक वृद्धि इन चुनौतियों में इजाफा करेगी। जिस तरह तेजी के दिनों में विविध समूहों के बीच छोटेमोटे मतभेद छिप जाते हैं, उसी तरह धीमी वृद्धि और रोजगार के अवसरों में ठहराव इन तनावों में इजाफा करेंगे। इससे सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर अप्रिय परिस्थितियों की आशंका बढ़ेगी और अनचाहे परिणाम सामने आएंगे। कानून व्यवस्था और महिलाओं के खिलाफ अपराध की हालत भी बिगड़ेगी।
धीमी वृद्धि दर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच पहले से व्याप्त तनाव को और बढ़ाएगी। संघीय ढांचे और संस्थानों पर भी इसका प्रभाव होगा, इसका समझदारी से प्रबंधन करना होगा। मध्यम अवधि में धीमी वृद्धि भारत की वैश्विक छवि को प्रभावित करेगी। भूराजनीति आसान क्षेत्र नहीं है। सन 1990 और 2000 के दशक मेंं हमारी मजबूत आर्थिक वृद्धि, वैश्विक स्तर पर हमारे कद में इजाफे का सबब बनी। भारतीय अर्थव्यवस्था में धीमापन हमारे अंतरराष्ट्रीय कद पर नकारात्मक असर डाल सकता है। इससे हमारी भूराजनीतिक स्थिति प्रभावित होगी। जब कोई देश मजबूत और समृद्ध होता है तो अन्य देश उसके साथ दोस्ताना रिश्ते रखते हैं। इसका उलटा भी सत्य है। याद रहे भारत और अमेरिका के बीच परमाणु समझौता और असैन्य परमाणु सौदों में भागीदारी के लिए परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह की रियायत हमें उसी समय मिली थी जब अर्थव्यवस्था उछाल पर थी। आठ वर्ष बाद भारत के समूह की सदस्यता के आवेदन को तवज्जो नहीं मिली।
हमारे पास पड़ोस में भी मुश्किलें कम नहीं हैं। पश्चिम में पाकिस्तान और उत्तर में चीन के साथ हमारा सीमा विवाद है तथा अन्य समस्याएं भी हैं। मध्यम अवधि में धीमी आर्थिक वृद्धि के साथ भारत के लिए चीन और पाकिस्तान का मुकाबला करने के लिए सशस्त्र बलों का वित्त पोषण, हथियारों का आधुनिकीकरण और जरूरी उपकरण जुटाना मुश्किल होगा। अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे मित्र देशों के साथ गठजोड़ अवश्य हमारी रक्षा क्षमताओं में इजाफा करेगा लेकिन यह एक सीमा तक ही हो सकता है। इस बात की संभावना बहुत कम है कि इनमें से कोई भी देश भारत की किसी भी लड़ाई में रक्षा सैन्य कदमों में सहयोग करेगा। यानी रक्षा क्षमता के मामले में हमें आत्मनिर्भर ही रहना होगा। लेकिन उसके लिए मजबूत अर्थव्यवस्था और तेज आर्थिक विकास की आवश्यकता होगी। जब तक हम ये हासिल नहीं कर लेते तब तक शायद हमारी सामरिक जरूरतें पर्याप्त तरीके से पूरी न हो सकें।
अल्पावधि में हमें जीडीपी की तुलना में रक्षा व्यय को मौजूदा स्तर से बढ़ाना होगा। असल चुनौती होगी सरकारी व्यय की उन श्रेणियों को नुकसान पहुंचाये बिना इसमें इजाफा करना जो आर्थिक वृद्धि में मददगार हैं। यानी तथाकथित गैर जरूरी और लोकलुभावन व्यय में कमी करनी होगी। मसलन व्यापक पैमाने पर दी जाने वाली सब्सिडी और सरकारी कर्मचारियों का भारी भरकम वेतन आदि। इससे सरकार के सामने भी चयन का प्रश्न उत्पन्न होगा।
मुझे लगता है कि अगर मध्यम अवधि में वृद्धि दर 3.5 फीसदी से अधिक बेहतर हुई तो हालात शायद अधिक बेहतर हैं। परंतु उसके लिए राजकोषीय, मौद्रिक और वित्तीय नीतियों में अनुशासन की आवश्यकता होगी और सतत आर्थिक सुधारों को आजमाना होगा। सरकार ने कृषि विपणन और श्रम कानूनों में जो हालिया सुधार किए हैं वे उपयुक्त हैं। परंतु अभी काफी कुछ किया जाना बाकी है। हमें सुधार के दौर से गुजर रही दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं, खासकर एशियाई अर्थव्यवस्थाओं की वृद्धि के आवेग का लाभ उठाना होगा। उसके लिए हमें बीते तीन वर्ष की संरक्षणवादी नीतियों को पलटना होगा और क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी के लाभों को समझना होगा। कई दशक का विकास संबंधी अनुभव बताता है कि उच्च आर्थिक वृद्धि के लिए तेज निर्यात वृद्धि वाली खुली अर्थव्यवस्था की आवश्यकता होगी। बिना खुली अर्थव्यवस्था के तेज निर्यात वृद्धि हासिल नहीं हो पाएगी। बिना उसके तीव्र समग्र आर्थिक वृद्धि हासिल नहीं होगी।
(लेखक इक्रियर के मानद प्रोफेसर और भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं)
