आर्थिक सुधारों के समर्थक करीब तीन दशक से मांग कर रहे हैं कि देश में लागू नाना प्रकार के पुरातन, कड़े और प्रक्रियाओं में उलझे श्रम कानूनों में सुधार किया जाए। करीब दो दशक पहले यशवंत सिन्हा जब वाजपेयी सरकार में वित्त मंत्री थे तब उन्होंने कुछ बदलावों का प्रस्ताव रखा था लेकिन व्यापक आलोचना के बाद उन्हें अपने कदम वापस लेने पड़े। लोकसभा में शानदार बहुमत के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार पर पहले दिन से यह आरोप लगता रहा है कि उसने देश के श्रम कानूनों में बदलाव नहीं किया। तीन दशकों से यही दलील दी जा रही थी कि इन कानूनों में बदलाव न होने के कारण श्रम आधारित उद्योग पनप नहीं पाए। जबकि अन्य एशियाई देशों में कानूनों में बदलाव का सकारात्मक असर दिखाई दिया।
अब श्रम कानूनों में वे बदलाव हो चुके हैं जो सुधारों के हिमायती चाहते थे। 29 केंद्रीय कानूनों को चार संहिताओं में समेट दिया गया: वेतनभत्तों से संबंधित कानून पिछले वर्ष पारित किया गया था जबकि कार्य परिस्थितियों, सामाजिक सुरक्षा और औद्योगिक संबंधों को लेकर तीन संहिताएं गत माह संहिताबद्ध हुईं। ये संहिताएं कारोबारियों को कर्मचारियों की छंटनी आदि के मामले में अधिक स्वतंत्रता देती हैं जबकि श्रम संगठनों के प्रतिनिधित्व के दावे की एक बार फिर परीक्षा होगी क्योंकि हड़ताल और तालाबंदी अब मुश्किल हो गए हैं। 300 से कम कर्मचारियों वाली कंपनियों को उस स्थायी आदेश की आवश्यकता भी नहीं है जो कर्मचारियों के आचरण मानक से संबंधित है।
सरकार को भी इस बात की काफी स्वतंत्रता दी गई है कि वह उद्योगों को संहिताओं के दायरे से बाहर रख सके और उनके कामकाज की सीमा तय कर सके। एक तरह से संसद ने सरकार को इस विषय में पूरा अधिकार दे दिया है कि वह जो चाहे करे। देखिए कैसे उत्तर प्रदेश ने हाल ही में एक अध्यादेश के जरिये नियोक्ताओं को कुछ श्रम कानूनों को छोड़कर अन्य से मुक्त करने का प्रयास किया। केंद्र सरकार ने एक 178 रुपये रोजाना का राष्ट्रीय बुनियादी वेतन तय कर दिया। न्यूनतम वेतन इससे कम नहीं हो सकता। 26 कार्य दिवस के हिसाब से यह 4,628 रुपये होता है। वैसे अच्छी बात यह है कि अधिकांश राज्यों का न्यूनतम वेतन इस विसंगतिपूर्ण स्तर से ऊपर है।
क्या नई संहिताएं अतिरिक्त रोजगार मुहैया कराके परीक्षा में खरी उतरेंगी, यह सवाल बाद में, पहले हमें यह मानना होगा कि इन्होंने समकालीन हकीकत को ध्यान में रखते हुए चीजों को आसान किया है। इसमें कई जगह आपराधिक दायित्व समाप्त किया गया है और उनकी जगह जुर्माना चुकाने की व्यवस्था की गई है। तयशुदा अवधि वाले कर्मचारियों, अनुबंधित श्रमिकों, प्रवासी श्रमिकों और असंगठित क्षेत्र के कर्मचारियों को शामिल कर संहिताओं का दायरा भी व्यापक किया गया है। फिर भी असल परीक्षा होगी रोजगार वृद्धि। खासतौर पर संगठित क्षेत्र में जहां उत्पादकता ज्यादा और वेतन भत्ते बेहतर होते हैं। बुनियादी लक्ष्य है व्यापक फैक्टरी रोजगार जिसमें जूते और कपड़े तथा मोबाइल फोन जैसे उत्पाद तैयार होते हैं। इसके बाद घरेलू और निर्यात बाजार के लिए भी वस्तुएं तैयार होनी हैं।
चीन इनमें से कुछ गतिविधियां छोड़ रहा है जिससे हम लाभ उठा सकते हैं। इसके अलावा वेतन-लागत तथा अन्य कारणों से कंपनियां चीन से बाहर निकल रही हैं। अब तक वियतनाम, बांग्लादेश तथा अन्य देश इससे लाभान्वित हुए हैं। भारत भी इसमें हिस्सा चाहता है और वह विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए कदम उठा रहा है।
यदि यह तरीका कारगर रहा तो हर कोई प्रसन्न होगा। यदि नाकामी हाथ लगती है तो यही कहा जाएगा कि श्रम सुधार आवश्यक हैं लेकिन वांछित लक्ष्य प्राप्त करने के लिए केवल इतने से काम नहीं बनने वाला। बल्कि इसके साथ अन्य सुधारों की भी आवश्यकता है जो फैक्टरी की जमीन, परिवहन और औद्योगिक उपभोक्ताओं के लिए बिजली की लागत आदि को कम कर सकें। हालांकि क्रॉस-सब्सिडी को समाप्त करना जटिल मसला है। इसके साथ ही कर तथा अन्य कानूनों की मनमानी व्याख्या समाप्त करनी होगी और रुपये की विनिमय दर का प्रबंधन करना होगा। यदि हम ये सारे कदम उठाने में नाकाम रहे तो इसका अनचाहा परिणाम सामने आ सकता है। उच्च उत्पादकता वाले काम को बढ़ावा देने और वेतन का स्तर बढ़ाने के बजाय श्रमिकों का मौजूदा मेहनताना और कम हो जाएगा। अर्थव्यवस्था की गति धीमी पड़ी है और नई क्षमताओं में निवेश नहीं हो रहा है। ऐसे में जोखिम को कम करके नहीं आंकना चाहिए और बेहतर की उम्मीद करनी चाहिए।