पिछले दो हफ्तों में कोविड संक्रमण में गिरावट आने के साथ आवाजाही संबंधी बंदिशों में ढील दी जाने लगी है। कई जगहों से ऐसी खबरें आ रही हैं कि लोग बाजार खुलने के बाद बड़ी संख्या में खरीदारी करने निकल रहे हैं। लोगों ने सतर्कता को तिलांजलि दे दी है और न आपस में शारीरिक दूरी रख रहे हैं और न ही मास्क पहन रहे हैं। ऐसे में एम्स अस्पताल के निदेशक डॉ रणदीप गुलेरिया ने लोगों को आगाह करते हुए कहा है कि अगर हमने संक्रमण से बचने के जरूरी एहतियात नहीं बरते तो अगले छह से आठ हफ्तों में तीसरी लहर आ जाएगी।
सवाल है कि जब अगले कुछ हफ्तों में ही तीसरी लहर आ जाने की चेतावनियां मिलने लगी हैं, तब भी लोग बाजारों एवं अन्य सार्वजनिक जगहों पर क्यों जमा हो रहे हैं? अगर हम मान लें कि लोग अपने निर्णय-निर्माण में अमूमन तार्किक होते हैं तो फिर यह भी सही होगा कि बाजारों एवं अन्य खुली जगहों पर जाने और प्रत्यक्ष मुलाकात से लंबे समय तक दूर रहना लोगों की नजर में असमय मौत के बढ़े खतरे से कहीं ज्यादा बुरा था। या फिर, बेपरवाह लोगों को लगता है कि उनमें कोई खास बात है जो उन्हें सुरक्षा देती है।
लोग इसलिए बाजार जाते हैं कि दूसरे लोग वहां पर सामान बेच रहे होते हैं। साफ है कि खरीदारों के आने के पहले ही विक्रेता वहां पहुंच जाते हैं। लोगों की फौरी जरूरतें पूरा करने के लिए आवाजाही में दी गई छूट से ही बाजारों में भीड़भाड़ देखी जा रही है। इस दौरान हमें बाजारों की तुलना में शॉपिंग मॉलों में कम भीड़ देखने को मिली है।
मुमकिन है कि गतिशीलता सूचकांक में वृद्धि पाबंदियों में ढील देने से हुई है। श्रम भागीदारी दर (एलपीआर) में भी सुधार आया है। लेकिन हमें अब भी उपभोक्ता धारणाओं में किसी तरह का सुधार नहीं दिखाई दे रहा। जून की शुरुआत में ही ढिलाई देना शुरू हुआ था लेकिन इसे तेजी दूसरे हफ्ते में ही मिली। श्रम भागीदारी की स्थिति जून के पहले हफ्ते में सुधरनी शुरू हुई और तीसरे हफ्ते में भी यह सिलसिला बना हुआ है।
एलपीआर 30 मई को समाप्त सप्ताह के 39 फीसदी से सुधरते हुए 6 जून को समाप्त सप्ताह में 39.2 फीसदी हो गया। यह 13 जून को खत्म हफ्ते में 39.8 फीसदी और 20 जून को समाप्त सप्ताह में 40.5 फीसदी हो गया। बीते तीन हफ्तों में आया डेढ़ फीसदी का सुधार खासा असरदार है लेकिन अब भी एलपीआर बेहद निचले स्तर पर है। अप्रैल एवं मई में औसत एलपीआर 40 फीसदी था। लिहाजा पिछले तीन हफ्तों ने दूसरी लहर के औसत स्तर को ही फिर से हासिल किया है। यह कोई बड़ी रिकवरी नहीं है।
उपभोक्ता धारणा में तो ऐसा सुधार भी नहीं देखने को मिला है। उपभोक्ता धारणा सूचकांक में 6 जून को खत्म हफ्ते में 4.8 फीसदी का बड़ा सुधार देखने को मिला था। इसकी वजह यह थी कि ग्रामीण उपभोक्ता धारणा सूचकांक में 8.8 फीसदी की तीव्र वृद्धि हुई थी। उसके बाद के दो हफ्तों में ग्रामीण उपभोक्ता धारणा सूचकांक में क्रमश: 0.4 फीसदी और 4.2 फीसदी की गिरावट देखी गई है। शहरी उपभोक्ता धारणा सूचकांक में 23 मई को समाप्त सप्ताह से लेकर 13 जून तक लगातार चार हफ्तों में गिरावट रही। गत 20 जून को खत्म सप्ताह में यह स्थिर रही।
बंदिशें हटते ही बाजारों में भीड़ का सिलसिला शुरू हो गया था लेकिन उपभोक्ता धारणा में गिरावट का ही रुख रहा। अप्रैल एवं मई में भी इस धारणा में कमी ही आई थी। अप्रैल में यह 3.8 फीसदी और मई में 10.8 फीसदी तक गिरी थी। लगता है कि जून में आवाजाही बढऩे के बावजूद उपभोक्ता धारणा में फिसलन का दौर जारी ही रहेगा। यह बात अलग है कि अभी तक जून के आंकड़ों में वह गिरावट नजर नहीं आई है। 20 जून को उपभोक्ता धारणा सूचकांक का 30-दिवसीय चल औसत 48.76 था। मई के 48.58 स्तर की तुलना में यह 0.4 फीसदी ज्यादा था। लेकिन इसका कारण यह है कि जून के पहले हफ्ते में ग्रामीण क्षेत्र का सूचकांक 8.8 फीसदी बढ़ा था। उसके बाद से बंदिशें हटने, मॉनसून की अच्छी प्रगति और खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि की घोषणा के बावजूद उपभोक्ता धारणा में लगातार गिरावट ही रही है।
यह अनुमान लगाना समझदारी नहीं होगी कि उपभोक्ता अपने खातों से पैसे निकालने को तैयार हैं। गत 20 जून को खत्म हफ्ते में सिर्फ 2 फीसदी परिवारों ने ही माना कि टिकाऊ उपभोक्ता उत्पादों के लिए यह समय अनुकूल है। जून 2020 के बाद से हालात इतने खराब नहीं रहे हैं। इस दौरान ऐसे परिवारों का अनुपात भी बढ़ा है जिनकी नजर में यह समय खरीदारी के लिए बहुत खराब है। गत 6 जून को खत्म हफ्ते में ऐसा मानने वाले परिवारों का अनुपात 53.5 फीसदी था लेकिन अब यह 61.5 फीसदी हो चुका है।
मुमकिन है कि बाजारों में दिख रही भीड़ भी छंटने लगे। अगर वास्तव में ऐसा होता है तो फिर तीसरी लहर आने की आशंका कम हो जाएगी। अगर भीड़ कम नहीं होती है तो भी उपभोक्ता पिरामिड परिवार सर्वे के मुताबिक उन लोगों के जोर-शोर से खरीदारी करने की उम्मीद कम ही है। यह स्थिति तो और भी बुरी होगी क्योंकि बाजारों में भीड़ बढऩे से तीसरी लहर आने का खतरा तो बढ़ेगा लेकिन खर्च नहीं बढ़ेगा। पाबंदियों में दी गई छूट के आधार पर रिकवरी का अनुमान नहीं लगा सकते हैं। रुकी हुई मांग से अर्थव्यवस्था को दूसरी लहर के चंगुल से निकाल पाने की संभावना कम ही लग रही है।
सबसे अच्छा तरीका टीकाकरण में तेजी लाना है। सिर्फ टीकाकरण ही नई लहर का खतरा दूर कर सकता है, उपभोक्ता धारणा सुधार सकता है और आर्थिक बहाली के लिए जरूरी खुली खरीद-बिक्री की मंजूरी दे सकता है।
