लेख

महंगाई और इसके सामाजिक-आर्थिक परिणाम

केंद्रीय बैंक महंगाई की वजह से पैदा राजनीतिक-आर्थिक परिणामों से निपटने में सक्षम नहीं हैं। जितनी जल्दी यह बात स्वीकार की जाएगी और सही दिशा में जितनी तेजी से संयुक्त उपाय किए जाएंगे, आगे चलकर परिणाम उतने ही कम खतरनाक होंगे। बता रहे हैं रथिन रॉय

Published by
रथिन रॉय
Last Updated- May 02, 2023 | 12:07 AM IST

महंगाई तभी चिंता का कारण बनती है जब वस्तु एवं सेवाओं की कीमतें आय की तुलना में अधिक तेजी से बढ़ती हैं। अगर महंगाई 10 प्रतिशत बढ़ती है और प्रत्येक परिवार की आय में भी 10 प्रतिशत का इजाफा होता है तो यह विशेष चिंता की बात नहीं होती है।

हालांकि, महंगाई केवल किसी एक देश में बढ़ती है तो उस स्थिति में मुद्रा विनिमय दर से जुड़े प्रभाव सहित दूसरे परिणाम भी दिखने लगते हैं। वस्तुतः महंगाई मौलिक रूप से एक वितरण प्रक्रिया है जिसे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कीन्स के सिद्धांतों को मानने वाले लोग सहज स्वीकार करते हैं।

अफसोस की बात है कि महंगाई नियंत्रित करने के लिए तैयार किया गया समकालीन विश्लेषणात्मक ढांचा इस सिद्धांत को नहीं मानता है। यह विश्लेषणात्मक ढांचा महंगाई को केवल आपूर्ति पक्ष से जोड़कर देखता है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए समकालीन विश्लेषणात्मक ढांचे को सबसे पहले किसी अर्थव्यवस्था में ‘संभावित उत्पादन’ को परिभाषित करना होता है।

विकसित देशों में यह परिभाषा सभी संसाधनों के पूर्ण इस्तेमाल से हुए उत्पादन पर आधारित होती है। तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं में यह परिभाषा अधिक मानक एवं अनुमानित होती है। संभावित उत्पादन और वास्तविक उत्पादन के अंतर को ‘उत्पादन अंतर’ के रूप में परिभाषित किया जाता है। वास्तविक उत्पादन संभावित उत्पादन के जितने पास होगा महंगाई उतनी होगी।

मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण के लिए दुनिया के केंद्रीय बैंक प्रतिचक्रीय नीति अपनाते हैं। इस नीति के तहत पूंजी पर आने वाली लागत को निर्देशित मूल्य बनाया जाता है, जबकि पारिश्रमिक का निर्धारण बाजार पर छोड़ दिया जाता है।

महंगाई का एक लक्ष्य निर्धारित किया जाता है और जब यह (महंगाई) इस स्तर को पार करती है यह उत्पादन में अंतर कम होने का संकेत मिलता है। जब उत्पादन अंतर कम होता जाता है तो केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ा देता है और जब अंतर बढ़ता है तो दरें घटा देता है। मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण की यह सरल एवं आवश्यक शर्त होती है।

मगर इस सरल पद्धति के साथ उकताहट बढ़ रही है। ब्रिटेन से लेकर भारत तक मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण प्रभावी साबित नहीं हो रहा है। बैंक ऑफ इंगलैंड (बीओई) और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) दोनों रीपो रेट के साथ प्रयोग करते हैं।

बीओई सुसंगत तर्क के साथ ऐसा करता है तो आरबीआई भारी भरकम एवं क्लिष्ट विश्लेषण के साथ इस नीतिगत दरों में बदलाव करता है। मगर दोनों ही मामलों में परिणाम समान होते हैं। महंगाई दर मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण ढांचे के अनुरूप व्यवहार करने से सीधे तौर पर मना कर देती है।

Also Read: बुनियादी ढांचे के विकास में देरी की कीमत

मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण में सफल नहीं रहने का एक परिणाम यह है कि दोनों ही देश जीवन-यापन पर खर्च बढ़ने के संकट से गुजर रहे हैं। ब्रिटेन में आवश्यक गतिविधियों जैसे रेलवे, शिक्षा, राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा और नागरिक सेवा में पिछले एक दशक से वेतन स्थिर है। मगर बैंकरों को मिलने वाले बोनस की तरह ही मकानों और हाल में बुनियादी खाद्य पदार्थों की कीमतों में भारी बढ़ोतरी हुई है।

सरकार पोषित स्वास्थ्य सेवा लगभग धराशायी हो गई है और स्कूल में बच्चे भूखे रह जाते हैं क्योंकि उनके माता-पिता स्कूल में दिए जाने वाले भोजन के लिए खर्च वहन नहीं कर पाते हैं। छात्र ऋण लेकर पढ़ते हैं मगर बाद में उन्हें काफी कम वेतन पर अपने करियर की शुरुआत करनी पड़ती है।

इसका परिणाम यह हुआ है कि औद्योगिक क्षेत्र में हलचल बढ़ गई है और लोगों के बीच असंतुष्टि बढ़ती जा रही है। बीओई इस वास्तविकता से काफी दूर दिखाई दे रहा है और ब्याज दरों में बदलाव के साथ व्याप्त असंतुलन को दूर करने का भरसक प्रयास कर रहा है।

यह पारिश्रमिक पाने वालों को मांग नरम करने के लिए कहता रहा है। पूंजी की लागत नियंत्रित करने की विडंबना और मुक्त बाजार को पारिश्रमिक तय करने की अनुमति देने की भूल का एहसास नहीं हो रहा है।

भारत में स्थिति थोड़ी भिन्न है मगर बेहतर नहीं कही जा सकती है। आरबीआई रीपो रेट में बदलाव तो कर रहा है मगर इससे अनौपचारिक अर्थव्यवस्था पर कोई असर नहीं हो रहा है। औपचारिक रोजगार बहुत कम हैं और महंगाई ऊंचे स्तरों पर रहने के दौरान पारिश्रमिक नहीं बढ़े हैं।

Also Read: चीन-पाक चुनौती के बीच भारत की सामरिक ​स्थिति

महंगाई से एकमात्र सरकारी सेवा के लोग ही बचे हुए है। यही वजह है कि सरकारी नौकरियों की मांग अधिक है मगर अवसर बहुत कम हैं। भारत में 17.5 करोड़ युवा लोग शिक्षा से दूर हैं और न ही वे रोजगार पाने के लिए प्रयास कर रहे हैं।

80 करोड़ लोग 3 डॉलर प्रति दिन की आय से नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं। भारत में सरकार भले ही आर्थिक प्रगति होने का डंका पीट रही है मगर एक बड़ी आबादी कठिनाइयों से जूझ रही है। यह स्थिति पिछले 15 वर्षों में इतनी बदतर हो गई है कि सरकार आर्थिक आंकड़े जारी करने और यहां तक कि सटीक तरीके से जनगणना करने से भी डरती है।

भारत के आर्थिक इतिहास से अवगत लोग समझ पाते होंगे कि महंगाई बड़ा सामाजिक एवं आर्थिक तनाव खड़ी कर सकती है। सरकार इस स्थिति के जवाब में स्थायी राहत के उपाय खोज रही है, जो इस बात का संकेत है कि वह न तो यह समझती है कि महंगाई क्यों बढ़ रही है और न ही नीतिगत स्तर पर कुछ करने में सक्षम है।

यही कारण है कि भारत सरकार 80 करोड़ लोगों का पेट भरने में लगी हुई है। सरकार ने खाद्य सब्सिडी कम कर दी है मगर खाद्य महंगाई लगातार बनी रही तो उसे यह निर्णय वापस लेना पड़ सकता है। ऊंची महंगाई वाले और तुलनात्मक रूप से ऊंची आय वाले दक्षिणी एवं पश्चिमी राज्यों में ‘फूड किचन्स’ की शुरुआत की गई है।

सरकार ने कृषि क्षेत्र में फिर हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है। सरकार आयात प्रतिबंध हटाने के साथ विभिन्न खाद्य पदार्थों के निर्यात पर पाबंदी लगा रही है और राज्यों को जीवाश्म ईंधन पर कराधान रोकने के लिए कह रही है।

Also Read: यूक्रेन युद्ध में भारत की तटस्थता और पर्दे के पीछे का सच

भारत और ब्रिटेन दोनों से सबक पूरी तरह स्पष्ट हैं। दोनों ही देशों को तत्काल अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत एवं बनाना होगा। इसके लिए निवेश और राजकोषीय, मौद्रिक और औद्योगिक नीतियों को समझदारी के साथ आगे बढ़ाना होगा तभी उत्पादन क्षमता और उत्पादन बढ़ेंगे।

जब ऊंची महंगाई दर तांडव करती है तो सामाजिक एवं राजनीतिक टकराव की आशंका बढ़ जाती है और विकास परियोजनाएं पटरी से उतर जाती हैं। ऐसा इसलिए होता है कि संसाधनों का इस्तेमाल स्थिरता भुगतान- महंगाई के कारण पैदा टकराव को दूर करने के लिए व्यय बढ़ाना- के लिए होता है।

मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण, मौद्रिक नीति समिति आदि केवल तकनीकी रस्साकशी थी जो तब काम कर रही थी जब महंगाई संरचनात्मक कारकों या बाहरी उठापटक से नहीं भड़क रही थी। केंद्रीय बैंक महंगाई की वजह से पैदा राजनीतिक-आर्थिक परिणामों से निपटने में सक्षम नहीं हैं। जितनी जल्दी यह बात स्वीकार कर जाएगी और सही दिशा में जितनी तेजी से संयुक्त उपाय किए जाएंगे आगे चलकर परिणाम उतने ही कम खतरनाक होंगे।

(लेखक ओडीआई, लंदन में प्रबंध निदेशक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

First Published : May 1, 2023 | 7:54 PM IST