अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप
अमेरिका ने आखिरकार वह टैरिफ लागू कर दिया है जिसकी धमकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप दे रहे थे। सभी उत्पादों पर 10 फीसदी टैरिफ और व्यापार साझेदारों द्वारा लगाए जा रहे शुल्क के बराबर का टैरिफ लागू होने पर अमेरिका को निर्यात होने वाला हमारा काफी सामान पहले से महंगा हो जाएगा। भारत उन देशों में काफी ऊपर है, जिन्हें अमेरिका अनुचित कारोबारी व्यवहार करता हुआ बताता है। भारत ने अमेरिकी धमकियों पर खामोश रहकर समझदारी ही दिखाई है और मुझे लगता है कि अमेरिका की कार्रवाइयों पर वह संयम भी बरतेगा। मेरे हिसाब से भारत ने अब तक समझदारी दिखाई है और वह आगे भी कोई जवाबी कार्रवाई नहीं करना ही समझदारी होगी।
साफ है कि यह घोषणा केवल शुरुआत है और अमेरिका दोस्त-दुश्मन देखे बगैर भारी टैरिफ लगाएगा। अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर इसका फौरी असर बुरा होगा। माना जा रहा है कि कीमतें बढ़ेंगी और उत्पादकता तथा मुनाफा कम होगा। ट्रंप को अमेरिका में भारी समर्थन हासिल है, इसलिए उपभोक्तों और उत्पादकों पर कितना भी बुरा असर हो, शुरुआती दिन और महीने ट्रंप के लिए आसानी से गुजर जाएंगे। इसलिए यह नीति वह जल्दी तो नहीं बदलेंगे।
भविष्य में अमेरिका को कुछ टैरिफ कम करने पड़ सकते हैं और पश्चिमी देशों तथा विकासशील देशों की प्रतिक्रिया बता रही हैं कि शुल्क और उसके अलावा दूसरी बाधाओं में हलचल हो सकती है। दूसरे शब्दों में कहें तो अगले दो-तीन सालों में टैरिफ की दिशा समझ नहीं आ रही। ऐसे में शुल्कों की सीमा और अनिश्चितता से जुड़ी दो बड़ी चुनौतियां हैं और इन दोनों में ही इजाफा होना तय है।
पिछले कुछ समय से भारत में शुल्क दरें बढ़ रही हैं। कई लोग मान रहे हैं कि शुल्क इजाफे ने देश की विनिर्माण कंपनियों को सुरक्षा दी है और वे अर्थव्यवस्था के आकार में इजाफा कर सकती हैं। परंतु आंकड़े एकदम स्पष्ट हैं: संरक्षणवादी रुख ने विनिर्माण की होड़ में खास फायदा नहीं पहुंचाया है। इक्का-दुक्का उदाहरण हो सकते हैं लेकिन वैश्विक निर्यात में भारतीय उद्योग जगत की हिस्सेदारी ठहरी रही बल्कि गिर ही गई। आयात पर ऊंचे शुल्क ने भारतीय उद्योगों को वैश्विक मूल्य श्रृंखला से जुड़ने में दिक्कत भी पैदा की।
इसलिए जरूरी है कि भारत ट्रंप की धमकियों का इस्तेमाल अपने फायदे में करे और शुल्क घटाए। इससे देश के उद्योग जगत और अर्थव्यवस्था को कई लाभ होंगे। पहला, दूसरे देश भी अमेरिका पर जवाबी शुल्क लगाते हैं या अपने शुल्क कम नहीं करते तो भारत के लिए निर्यात के नए बाजार हासिल करने का मौका होगा।
दूसरा, शुल्क घटने के कई फायदे होंगे, जो सूक्ष्म, लघु और मझोले उपक्रमों (एमएसएमई) के क्षेत्र में ज्यादा होंगे। शुल्क कम होंगे तो भारतीय कंपनियों को वैश्विक मूल्यवर्धन नेटवर्क में शामिल होने का भी मौका मिलेगा। कई वैश्विक कंपनियां कच्चे माल के लिए चीन की जगह दूसरा स्रोत तलाश रही हैं, जो भारत के लिए अच्छा मौका हो सकता है।
मगर भारतीय उद्योग का कुछ हिस्सा अमेरिकी आयात से पटने का जोखिम भी है क्योंकि कई क्षेत्रों में होड़ करने की क्षमता नहीं है। ऐसे में भारत को समझदारी से प्रतिक्रिया देनी चाहिए। सबसे पहले भारत को अपने शुल्क घटाने चाहिए मगर अमेरिका की तरह झटके से नहीं बल्कि चरणबद्ध तरीके से। किंतु इस चक्कर में यह काम टाला नहीं जाना चाहिए। भारतीय और विदेशी कंपनियों को अपने निवेश संबंधी निर्णय लेने के लिए समय सीमा तय की जानी चाहिए और योजनाबद्ध तरीके से क्षमताओं का विकास करना चाहिए।
दूसरा, भारत को अपने उद्योग जगत की मदद के लिए अन्य क्षेत्रों की तलाश करनी होगी। देश की औद्योगिक नीति को अब बचाव नहीं बल्कि सहारे के मंत्र पर चलना होगा। शुल्क और दूसरे अवरोधों के जरिये उद्योगों को बचाने के बजाय हमें अन्य तरीकों से कारोबारों की मदद की राह तलाशनी होगी। उत्पादन से संबद्ध प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना ऐसी ही व्यवस्था है मगर इकलौती नहीं है। उदाहरण के लिए देश में जमीन की कीमतें बेजा तरीके से ऊंची हैं। किसानों को उत्पीड़न से बचाना भी इसकी एक वजह है। सरकार को इस लागत का बड़ा हिस्सा उठाना होगा क्योंकि ऐसा नीतिगत कदमों की वजह से है। इसी प्रकार देश में बिजली वितरण कंपनियों की खामियों के कारण बिजली बहुत महंगी है। कृषि और घरेलू उपभोक्ताओं को रियायती दरों पर बिजली मुहैया कराना भी इसकी एक वजह है। उद्योग जगत पर यह बोझ नहीं थोपा जाना चाहिए। ऐसा करना न केवल अनुचित है बल्कि रोजगार को नुकसान पहुंचाने वाला भी है। ऐसे में यदि क्रॉस सब्सिडी जारी रहती है तो लागत उद्योग को नहीं सरकार को वहन करनी चाहिए।
इसमें शक नहीं कि दोनों अर्थव्यवस्थाओं के बीच कई किस्म के तालमेल हैं। अमेरिका के आर्थिक ढांचे में पूंजी बहुत है और भारत के पास किफायती श्रम शक्ति है। अमेरिका तकनीकी रूप से अत्यधिक कुशल है और भारत की प्रतिष्ठा प्रशिक्षित कर्मचारियों की है। अमेरिका में स्टार्ट अप की मजबूत व्यवस्था है और भारत की स्टार्टअप संभावनाएं भी बेहतर हैं। दोनों अर्थव्यवस्थाएं एक दूसरे की पूरक हैं। भारत-अमेरिका मुक्त व्यापार समझौते की संभावनाओं को देखें तो भारत इसे एक बड़े आर्थिक अवसर में बदल सकता है।
हमें शुल्क में कमी को एक सामान्य नीतिगत प्रतिक्रिया के रूप में देखना चाहिए, जो संतुलित होनी चाहिए। चरणबद्ध कमी एक पहलू है जबकि अन्य माध्यमों से उद्योगों का समर्थन दूसरा। कुछ उत्पादों को शुल्क कटौती से बाहर रखना अलग मसला है। कृषि ऐसा ही क्षेत्र है- अनाज, मत्स्य पालन और डेरी आदि को संरक्षण की जरूरत होगी। कृषि के भीतर भी ऐसे क्षेत्र हैं जहां भारत और अधिक खुलापन ला सकता है। मेवे, बेरीज और कई तरह के फल जो भारत में नहीं उगाए जाते वे इसके उदाहरण हैं। एथनॉल के क्षेत्र में भी भारत खुलापन ला सकता है। जो कृषि उत्पाद जो भारत की खाद्य सुरक्षा को प्रभावित नहीं करता और बड़ा रोजगार नहीं देता उसमें व्यापार अवरोध कम किए जा सकते हैं।
कुछ उत्पाद ऐसे हैं जिन्हें न्याय और सुरक्षा की दृष्टि से बचाना आवश्यक है, उन्हें छोड़कर भारत को शुल्क में चरणबद्ध कमी आरंभ कर देनी चाहिए। ये घोषणाएं विश्वसनीय होनी चाहिए। उन्हें अमेरिका की भविष्य की नीतियों पर निर्भर नहीं होना चाहिए। अगर भविष्य में अमेरिका शुल्क में एकतरफा कमी करता है तो भी भारत को इस दिशा में बढ़ते रहना चाहिए। भारत को अपने बचाव के लिए नहीं बल्कि 2047 तक विकसित भारत बनाने के लिए शुल्क घटाने चाहिए।