बजट 2021 को आजादी के बाद अर्थव्यवस्था के समक्ष उत्पन्न सबसे असामान्य चुनौती के दौर में तैयार किया गया है। कोविड महामारी और उस पर लगाम के लिए लगाए गए लॉकडाउन के चलते वर्ष 2020-21 की पहली छमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) यानी आर्थिक उत्पादन में 16 फीसदी की अप्रत्याशित गिरावट आई थी लेकिन लॉकडाउन शिथिल होने के बाद हालात तेजी से सुधरे हैं। आधिकारिक अनुमानों के मुताबिक दूसरी छमाही में जीडीपी 2019-20 के स्तर के करीब पहुंच जाएगा। चालू वित्त वर्ष के लिए जीडीपी में रिकॉर्ड 7.7 फीसदी की गिरावट के शुरुआती अनुमान जताए गए थे। इससे रोजगार को होने वाली क्षति बहुत अधिक थी और रिकवरी की प्रक्रिया काफी सुस्त रही है। अब भी करोड़ों लोग रोजगार एवं कमाई का नुकसान झेल रहे हैं। अचरज की बात है कि इस साल अधिकांश समय मुद्रास्फीति बढ़ी हुई ही रही है। राजस्व के लुढ़कने और खर्च बढऩे से राजकोषीय घाटे एवं सरकारी ऋण रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गए। विदेश व्यापार धराशायी हो गया और उसकी रिकवरी भी कुछ हद तक कमजोर ही रही है। इस चुनौतीपूर्ण परिप्रेक्ष्य में वित्त मंत्री और उनकी टीम ने काफी हद तक एक अच्छा बजट पेश किया है।
वित्त मंत्री ने बजट आंकड़ों के प्रति पारदर्शिता लाने एवं सच्चाई दिखाने में खास तौर पर अच्छा काम किया है क्योंकि हाल के वर्षों में ये आंकड़े काफी भ्रामक रहे हैं। दूसरी बात, उन्होंने आम तौर पर कमजोर सरकारी उद्यमों के निजीकरण के बारे में अपनी सरकार की निर्णायक प्रतिबद्धता दर्शाई है जो करीब 20 साल पहले के वाजपेयी-शौरी दौर की याद दिलाता है। तीसरा, वित्त मंत्री ने गंभीर स्थिति में पहुंच चुके सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण के लिए एक कार्यक्रम शुरू करने की भी घोषणा की है। भारत के लंबे समय से तनावग्रस्त बैंकिंग क्षेत्र पर अब भी सार्वजनिक बैंकों का ही दबदबा है। इन बैंकों का निजीकरण ही फंसे कर्ज, ह्रासोन्मुख पूंजी और सरकारी खजाने से किए जाने वाले पुनर्पूंजीकरण के बेहद महंगे एवं लंबे दुष्चक्र का अंत कर पाएगा।
थोड़ा रुककर भारत के समक्ष विद्यमान बड़ी चुनौतियों को इंगित करना और इनसे निपटने के लिए बजट में किए गए प्रावधानों को समझना उपयोगी होगा। चुनौतियां इस तरह है:
1. वित्त वर्ष 2021-22 में मजबूत वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए उत्पादन स्तरों को बहाल करना
2. वर्ष 2021-22 के आगे भी मध्यम-अवधि की तीव्र वृद्धि को प्रोत्साहन देना
3. महामारी, लॉकडाउन एवं नोटबंदी जैसे झटकों से रोजगार एवं आजीविका पर पड़े व्यापक असर को दूर करना
4. उपभोक्ता मुद्रास्फीति को छह फीसदी से अधिक स्तर पर जाने से रोकना
5. पूर्व एवं दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ व्यापार एवं निर्यात की रिकवरी को प्रोत्साहित करना।
अगर सरकारी अनुमान सही हैं तो जीडीपी पहले ही 2019-20 के स्तर को हासिल कर चुकी है। इसका सीधा मतलब है कि जीडीपी में कोई और प्रगति न होने पर भी यह 2019-20 की तुलना में करीब नौ फीसदी की वृद्धि दिखाएगा। करीब 1-3 फीसदी की अतिरिक्त वृद्धि मुमकिन होने से 2021-22 में सालाना वृद्धि करीब 10-12 फीसदी के दायरे में रह सकती है। राजकोषीय घाटा लगातार जीडीपी के करीब 7 फीसदी स्तर पर रहने और स्वास्थ्य एवं ढांचागत व्यय पर जोर रहने और विश्वास बढ़ाने वाले सुधारात्मक प्रयासों की वजह से वित्त मंत्री का बजट वर्ष 2021-22 में दो अंकों की वृद्धि के प्रति आश्वस्त करता है।
लेकिन मध्यम-अवधि में सात फीसदी से अधिक की उच्च वृद्धि सुनिश्चित करना कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण होगा। पिछली नीतियों एवं महामारी के झटके ने मध्यम-अवधि की वृद्धि संभावनाओं को तीन बड़े आघात दिए हैं। पहला, सरकारी कर्ज की मात्रा बहुत ज्यादा है (मार्च 2021 तक इसके जीडीपी के रिकॉर्ड 90 फीसदी रहने के आसार हैं) जो इस महामारी वर्ष में केंद्र एवं राज्यों के मिले-जुले 14 फीसदी के अप्रत्याशित घाटे का नतीजा है। वर्ष 2021-22 में संयुक्त घाटे के 11 फीसदी के उच्च स्तर पर रहने की आशंका के बीच सरकारी कर्ज अनुपात में इस साल गिरावट आने के आसार कम ही हैं। दूसरा, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के हालिया अनुमानों के मुताबिक, बैंकिंग प्रणाली में गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) का अनुपात सितंबर 2021 तक 14 फीसदी या उससे भी अधिक हो सकता है जो उत्पादक आर्थिक गतिविधियों एवं निवेश को वित्त मुहैया कराने की प्रणाली की क्षमता को बेहद कमजोर करेगा। सरकारी बैंकों के निजीकरण और आधे-अधूरे बैड बैंक बनाने के बारे में की गई बजट घोषणा भविष्य के लिए उम्मीद जगाती है। लेकिन गुणवत्तापूर्ण क्रियान्वयन होने पर भी भारतीय बैंकिंग में तनाव के उच्च स्तर दूर करने में वर्षों लग जाएंगे।
तीसरा, वर्ष 2017 के बाद से हमारी व्यापार नीतियों में बढ़ता संरक्षणवाद हमारी वृद्धि संभावनाओं पर तगड़ा असर डालेगा। इस मामले में बजट इस लिहाज से निराशाजनक था कि पहले से ही ऊंचे आयात शुल्क में लगातार बढ़ोतरी की गई है। वैश्विक एवं क्षेत्रीय मूल्य शृंखलाओं में भारत की भागीदारी बढऩे की बजट आकांक्षा ऐसी छेड़छाड़ से शायद ही पूरी हो पाएगी।
संक्षेप में कहें तो यह बजट 2021-22 के बाद भी वृद्धि को मजबूत बनाने के लिए बहुत कम प्रयास करता है। मैं पहले भी कह चुका हूं कि मध्यम-अवधि में पांच फीसदी वृद्धि के औसत को भी पार कर पाना मुश्किल होगा। बजट में नौकरियों एवं आजीविका को लेकर दुखद स्थिति दूर करने के लिए कुछ खास नहीं है। वर्ष 2017-18 के आधिकारिक श्रमशक्ति सर्वे से पता चला कि श्रम बाजार की सेहत के सारे संकेतक बहुत ही निचले स्तर पर हैं। उसके बाद दो वर्षों में तेजी से सुस्त होती आर्थिक वृद्धि और महामारी एवं लॉकडाउन के तगड़े आघातों ने हालात को बिगाड़ा ही है, खासकर अनौपचारिक क्षेत्र में जहां भारत के 85 फीसदी कामगार कार्यरत हैं। हां, लॉकडाउन के समय के निचले स्तर से हालात सुधरना जारी रहने से रोजगार के मौके भी बेहतर होंगे। हालांकि भारतीय अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वाली संस्था सीएमआईई द्वारा किए जाने वाले सर्वे दिखाते हैं कि रोजगार के मोर्चे पर हालात काफी शोचनीय बने हुए हैं।
चौथा, सरकार एवं आरबीआई दोनों को अगले साल मुद्रास्फीति को 6 फीसदी से नीचे रखने में काफी मुश्किल होगी। बजट के सारे राजस्व एवं व्यय लक्ष्य हासिल हो जाने पर भी बेहद ऊंचे राजकोषीय घाटे वाले एक अन्य साल में वित्तीय प्रावधान में बाजार से करीब 10 लाख करोड़ रुपये की उधारी की जरूरत होगी जो महामारी-पूर्व की तुलना में 60-70 फीसदी अधिक होगा। ब्याज दरों में खासी वृद्धि किए बगैर उधारी कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए निश्चित रूप से आरबीआई को तरलता स्थिति असाधारण रूप से सहज रखनी होगी। निजी गतिविधि में सुधार आने से अतिरिक्त तरलता मुद्रास्फीति को और बढ़ा सकती है। केंद्र का बजट घाटा अगर एक फीसदी भी कम होता तो मुद्रास्फीति को छह फीसदी से नीचे रखने के मौके कहीं अधिक होते।
आखिर में, बजट ने संरक्षणवादी व्यापार नीतियों में कटौती नहीं की है लिहाजा जीडीपी में निर्यात की हिस्सेदारी कम होने का सिलसिला आगे भी जारी रहने के आसार हैं। इससे हमारे भुगतान संतुलन की मध्यम-अवधि व्यवहार्यता कमजोर होगी और वृद्धि आवेगों में सुस्ती आएगी। लेकिन हम एक बजट से ही अपनी सभी आर्थिक समस्याएं दूर होने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं।
(लेखक इक्रियर के मानद प्राध्यापक और भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं)