प्रतीकात्मक तस्वीर
इस वर्ष घटी आर्थिक घटनाओं के परिणामों पर दुनिया भर में काफी चिंता का माहौल है। काफी कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि डॉनल्ड ट्रंप के दूसरी बार राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका में क्या नीतिगत बदलाव आते हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक ने गत सप्ताह अपने आर्थिक अनुमान जारी कर दिए। उन्होंने इसमें अनिश्चितता का संकेत दिया, जो हमें अमेरिकी नीतिगत बदलावों से परे भी दिखती रहेगी। दोनों बहुपक्षीय संस्थानों का मानना है कि इस वर्ष वैश्विक वृद्धि स्थिर रहेगी मगर उनके अनुमान अलग-अलग हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का अनुमान है कि 2025 में विश्व अर्थव्यवस्था 3.3 फीसदी दर से विकसित होगी जबकि विश्व बैंक का अनुमान 2.7 फीसदी वृद्धि का है। किंतु आईएमएफ ने अपने अनुमान में स्पष्ट कहा है कि वृद्धि दर इस सदी के पहले दो दशकों की तुलना में कम रहेगी।
विश्व बैंक के मध्यम अवधि के अनुमान में खास तौर पर उभरते बाजारों और विकासशील देशों के लिए उसका आकलन ऐसी तस्वीर पेश करता है, जो नीति निर्माताओं को चिंतित कर सकती है। रिपोर्ट कहती है कि वैश्विक वृद्धि में 60 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले ये देश जिस प्रति व्यक्ति आय के साथ इक्कीसवीं सदी के दूसरे चरण में प्रवेश कर रहे हैं उसके कारण उन्हें विकसित देशों के स्तर तक पहुंचने में पहले से भी अधिक समय लगेगा। मध्यावधि में धीमी वैश्विक वृद्धि का नतीजा भारत को भी भुगतना होगा। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के पहले अग्रिम अनुमानों के मुताबिक चालू वित्त वर्ष में भारत की अर्थव्यवस्था 6.4 फीसदी दर से बढ़ेगी। यह गत वित्त वर्ष में हासिल 8.2 फीसदी की गति से बहुत धीमी है। अर्थशास्त्र के विद्वानों का तर्क है कि भारतीय अर्थव्यवस्था महामारी के बाद की तेज वापसी के पश्चात अपनी सामान्य वृद्धि दर की ओर लौट रही है। ऐसे में मध्यम अवधि की वृद्धि संभावनाओं को तेज करने पर ध्यान देना होगा।
मध्यम अवधि में वृद्धि के पूर्वानुमान तो चुनौती भरे हैं ही, निकट भविष्य में भी अनेक जोखिम हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी संकेत किया है: ‘टैरिफ की नई लहर के रूप में संरक्षणवादी नीतियों के गहराने से व्यापार में तनाव बढ़ सकता है, निवेश घट सकता है, बाजार क्षमता में कमी आ सकती है, व्यापार का प्रवाह बिगड़ सकता है और आपूर्ति श्रृंखला में उथलपुथल मच सकती है।’ इससे मध्यम और निकट दोनों अवधियों में वृद्धि को झटका लग सकता है। अमेरिका में ट्रंप प्रशासन से संरक्षणवादी नीतियों के साथ जिस तरह की मौद्रिक नीति की अपेक्षा है, उससे निकट भविष्य में अमेरिका की वृद्धि दर बढ़ सकती है। किंतु इसकी वजह से राजकोषीय और मौद्रिक नीतियों में भारी बदलाव हुए तो दुनिया भर में धन के प्रभाव और डॉलर की ताकत पर असर पड़ सकता है। अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने अपने अनुमानों में बदलाव करते हुए दर में कटौती की रफ्तार मंद रखने की बात कही, जिसके बाद दुनिया भर में बॉन्ड यील्ड चढ़ गईं। हालांकि ज्यादा लोग फेड का रुख पलटने की बात नहीं कह रहे हैं मगर अमेरिका में शिथिल राजकोषीय नीति के साथ शुल्कों में इजाफा हुआ तो फेड को अपने रुख पर फिर विचार करने के लिए विवश होना पड़ेगा। दरें बढ़ने की संभावना बनी तो वैश्विक वित्तीय बाजारों में तगड़ी उठापटक हो सकती है।
भारतीय नीति निर्माताओं के सामने फिलहाल जो चुनौती है वह है वित्तीय स्थिरता बनाए रखना और दुनिया भर में कमजोर रुझानों के बीच देश में वृद्धि की संभावनाएं तेज करने की कोशिश। मुद्रा बाजार की गतिविधियां पिछले कुछ महीनों से चर्चा में हैं और उन पर काफी बहस देखने को मिली है। उदाहरण के लिए रिजर्व बैंक ने रुपये को थामने के लिए नवंबर में 20 अरब डॉलर खर्च कर दिए। आज के हालात में अमेरिकी नीतिगत कदमों से रुपये पर दबाव जारी रह सकता है। रिजर्व बैंक को मुद्रा का अवमूल्यन होते रहने देना चाहिए और प्रक्रिया को सहज बनाने के लिए ही हस्तक्षेप करना चाहिए। रुपये की कीमत सही होगी तो ही निकट और मध्यम अवधि में बाहरी प्रतिकूल हालात से निपटने में भारत को मदद मिल सकेगी।