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Editorial: भ्रामक विज्ञापनों पर मजबूत निगरानी जरूरी

Patanjali ads case: मंत्रालय ने अपने आदेश में कहा है कि ई-कॉमर्स कंपनियों को अपने पोर्टल पर सभी पेय पदार्थों को ‘स्वास्थ्यवर्द्धक पेय’ की श्रेणी में रखना बंद कर देना चाहिए।

Last Updated- April 17, 2024 | 9:38 PM IST
भ्रामक विज्ञापनों पर मजबूत निगरानी जरूरी, Editorial: Strong monitoring is necessary on misleading advertisements

देसी आयुर्वेदिक उत्पाद बनाने वाली कंपनी पतंजलि को भ्रामक विज्ञापनों के लिए सर्वोच्च न्यायालय की नाराजगी का सामना करना पड़ा है। मॉन्डलीज जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी वाणिज्य मंत्रालय के एक आदेश के बाद बाजार संबंधी दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है।

मंत्रालय ने अपने आदेश में कहा है कि ई-कॉमर्स कंपनियों को अपने पोर्टल पर सभी पेय पदार्थों को ‘स्वास्थ्यवर्द्धक पेय’ की श्रेणी में रखना बंद कर देना चाहिए। यह आदेश राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग (एनसीपीसीआर) की एक वर्ष तक चली जांच के बाद आया है।

आयोग ने मॉन्डलीज के 78 वर्ष पुराने ब्रांड बॉर्नविटा को लेकर यह जांच की थी। यह सलाह तब आई है जब खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने ऑनलाइन प्लेटफॉर्मों से हाल ही में अनुरोध किया था कि वे डेरी, अनाज या माल्ट आधारित पेय पदार्थ को ‘स्वास्थ्यवर्द्धक पेय’ या ‘ऊर्जा बढ़ाने वाले पेय’ के रूप में वर्गीकृत न करें। उसने कहा कि ऐसा वर्गीकरण ग्राहकों को भ्रमित करता है।

ऐसा दावा करने वाले ऑनलाइन विज्ञापनों को हटाना भी आवश्यक था। ताजा नोटिस शायद अन्य लोकप्रिय पेय पदार्थों पर भी लागू हो जो उपभोक्ताओं को पोषण देने का दावा करते हैं। हालांकि, मुख्य आपत्ति आर्थिक है: एनसीपीसीआर ने पाया कि खाद्य संरक्षा एवं मानक अधिनियम 2006 के तहत ‘स्वास्थ्यवर्द्धक पेय’ की कोई आधिकारिक परिभाषा नहीं है। यह बात भी शामिल की जानी चाहिए कि इन ब्रांडों ने अपने उत्पाद के पैकेट पर स्वास्थ्यवर्द्धक उत्पाद नहीं लिखा है।

परंतु यह घटना उस बढ़ती चिंता की ओर भी इशारा करती है जो स्वास्थ्यवर्द्धक पेशेवरों के मन में उन तमाम खाद्य और पेय पदार्थों के विज्ञापन को लेकर है जो भारत में बच्चों को ल​​क्षित करते हैं। देसी और बहुराष्ट्रीय कंपनियां यह रणनीति अपनाती हैं। वाणिज्य मंत्रालय ने ‘स्वास्थ्यवर्द्धक पेय’ को लेकर जो नोटिस जारी किया है उसकी जड़ें एक वर्ष पुराने विवाद से जुड़ी हैं।

उस समय पैकेट बंद खाद्य पदार्थों की समीक्षा करने वाले रेवंत हिम्मतसिंगका नाम के एक सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर ने बॉर्नविटा में बहुत अधिक मात्रा में चीनी होने और उसके बच्चों पर असर होने की बात कही थी। मॉन्डलीज ने उन्हें एक नोटिस भेजकर कहा था कि वह उस वीडियो को डिलीट कर दें।

हिम्मतसिंगका के पास एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से लड़ने के लिए संसाधन नहीं थे इसलिए उन्होंने माफी मांग ली। कंपनी ने भी स्पष्टीकरण जारी करके कहा कि बॉर्नविटा में चीनी की मात्रा दैनिक उपयोग की तय मात्रा से काफी कम है। परंतु वह वीडियो वायरल हो चुका था और एनसीपीसीआर के पास भी इसकी शिकायत पहुंची। उसने कंपनी को निर्देश दिया कि बॉर्नविटा के भ्रामक विज्ञापन, पैकेजिंग और लेबल सभी हटाए जाएं।

कंपनी के दावों के उलट एनसीपीसीआर ने कहा कि बॉर्नविटा ने ‘माल्टॉडेक्स्ट्रिन’ और ‘लिक्विड ग्लूकोज’ जैसे लेबल का इस्तेमाल करके चीनी की सीमा को कम करके दिखाया। एफएसएसएआई के लेबलिंग और डिस्प्ले नियमन 2020 के मुताबिक इन्हें भी चीनी के लेबल के अंतर्गत ही दिखाया जाना चाहिए था। दिसंबर में कंपनी ने बॉर्नविटा में मिश्रित चीनी की मात्रा को कम कर दिया।

एनसीपीसीआर और वाणिज्य मंत्रालय दोनों के कदम असाधारण हैं लेकिन सवाल यह उठता है कि उपभोक्ता कल्याण से जुड़े सार्वजनिक संस्थान पहले क्यों नहीं सक्रिय हुए। ‘स्वास्थ्यवर्द्धक पेय’ की श्रेणी कई वर्षों से चलन में है लेकिन सरकार को कदम उठाने के लिए एक इन्फ्लुएंसर के अभियान का इंतजार करना पड़ा। इसके साथ ही सैकड़ों और इन्फ्लुएंसर बिना नियामकीय जांच परख के संदिग्ध खाद्य और पेय पदार्थों की तारीफ करते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पतंजलि आयुर्वेद का जो मामला था वह भी ऐसी ही कमी को उजागर करता है। इसे इंडियन मेडिकल एसोसिएशन द्वारा लाया गया था जब सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सरकार अपनी आंखें बंद करके बैठी है। चूंकि वैकल्पिक दवाओं और पैकेट बंद भोजन का बाजार (खासकर बच्चों पर केंद्रित) तेजी से बढ़ रहा है इसलिए उपभोक्ता कल्याण के लिए अ​धिक मजबूत निगरानी संस्था की जरूरत है।

First Published - April 17, 2024 | 9:38 PM IST

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