संपादकीय

Editorial: उत्पादकता बढ़ाने की कवायद

जीनोम-संवर्धित करने की तकनीक मसलन एसडीएन1 आदि पारंपरिक जीन संवर्धित प्रणाली से अलग है क्योंकि इसमें बाहरी डीएनए नहीं शामिल किया जाता।

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बीएस संपादकीय   
Last Updated- May 09, 2025 | 10:43 PM IST

भारत ने हाल ही में चावल की दो जीनोम-संवर्धित किस्में जारी की हैं और यह कृषि क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। साइट डायरेक्टेड न्यूक्लिएज 1 (एसडीएन1) जीनोम परिवर्तन तकनीक की मदद से विकसित डीआरआर धान 100 (कमला) और पूसा डीएसटी राइस 1 नामक ये किस्में न केवल 30 फीसदी तक अधिक पैदावार का वादा करती हैं बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण को हानि तथा क्षेत्रीय कृषि असंतुलन जैसी चुनौतियों से निपटने में भी मददगार साबित हो सकती है। चावल की ये दोनों किस्में अपनी मूल किस्मों यानी क्रमश: सांबा मंसूरी (बीपीटी 5204) और कॉटनडोरा सन्नालू (एमटीयू-1010) की तुलना में बेहतर परिणामों का वादा करती हैं। एक बात जो इन दोनों नई किस्मों को अधिक आकर्षक बनाती है वह है तैयार होने की 15 से 20 दिन की कम अवधि। इसके चलते फसलों को जल्दी बदला जा सकता है और जमीन का अधिक किफायती इस्तेमाल संभव हो सकता है।

इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पानी की कम जरूरत और उच्च नाइट्रोजन-उपयोग दक्षता भारतीय कृषि की एक बड़ी चुनौती को हल कर सकता है, जो है भूजल का अत्यधिक दोहन। खासकर पंजाब और हरियाणा जैसे क्षेत्रों में। ये दोनों राज्य चावल के बड़े उत्पादक हैं और भूजल की सबसे अधिक क्षति वाले राज्यों में भी यही शामिल हैं क्योंकि यहां दशकों से धान की खेती हो रही है जिसमें बहुत अधिक पानी की आवश्यकता होती है। ये जीनोम-संवर्धित चावल की किस्में सूखे से काफी हद तक सुरक्षित हैं और मिट्टी की खराब स्थिति में भी बची रह सकती हैं। ऐसे में ये पूर्वी उत्तर प्रदेश, तटीय पश्चिम बंगाल और ओडिशा तथा महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में बड़ा बदलाव ला सकती हैं। ये वे इलाके हैं जो ऐतिहासिक रूप से धान की कम उत्पादकता के लिए जाने जाते हैं। ऐसा इन राज्यों में मिट्टी और जलवायु के चुनौतीपूर्ण हालात के कारण है। इन इलाकों में धान की खेती को प्रोत्साहन देने से चावल के उत्पादन क्षेत्र का विस्तार होगा। इससे पारिस्थितिकी पर दबाव कम होगा क्योंकि कुछ इलाकों में धान की अत्यधिक खेती की जाती है। इससे कृषि अर्थव्यवस्था में समता आएगी।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जीनोम-संवर्धित करने की तकनीक मसलन एसडीएन1 आदि पारंपरिक जीन संवर्धित प्रणाली से अलग है क्योंकि इसमें बाहरी डीएनए नहीं शामिल किया जाता। इसका अर्थ यह हुआ कि नियामकीय और नैतिक स्तर पर बहुत बाधाएं नहीं होतीं, जनता में इनकी स्वीकार्यता अधिक होती है और इनको अधिक तेजी से अपनाया जा सकता है। विज्ञान के साथ-साथ नीतिगत व्यवस्था को उन्नत बनाने की आवश्यकता है। सरकारी खरीद करने वाली एजेंसियों को इन किस्मों को चिह्नित करना चाहिए और उन्हें सरकारी खरीद तथा वितरण प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए। किसानों को प्रशिक्षित करने तथा खेत के स्तर पर इनके इस्तेमाल के स्पष्ट दिशानिर्देश जारी करके जैव सुरक्षा चिंताओं को दूर किया जा सकता है।

देश की जरूरतों को देखते हुए हमें जीन संवर्धित फसलों पर अपने रुख की समीक्षा करनी चाहिए। साल 2022 में सरकार ने जीएम मस्टर्ड हाइब्रिड, डीएमएच-11 को मंजूरी दी थी। यह एक ऐतिहासिक कदम था जहां जीन संवर्धित फसलों को लेकर सकारात्मकता दिखाई गई थी। समुचित नियमन और वैज्ञानिक पारदर्शिता के साथ जीएम फसलें उत्पादकता बढ़ा सकती हैं। इनसे जैविक दबाव को लेकर प्रतिरोध कम हो सकता है और इनपुट की लागत कम हो सकती है।

 सर्वोच्च न्यायालय ने भी केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि वे जीएम फसलों पर एक राष्ट्रीय नीति तैयार करें। सरकार को इस बारे में समूची संभावनाओं को भी खंगालना चाहिए। इतना ही नहीं जैव प्रौद्योगिकी की संभावनाओं का लाभ लेने के लिए भारत को कृषि शोध एवं विकास में निवेश बढ़ाना चाहिए, जैव प्रौद्योगिकी संस्थाओं के लिए संस्थागत सहायता बढ़ानी चाहिए और जलवायु के प्रति टिकाऊपन को खाद्य सुरक्षा नीतियों में शामिल करना चाहिए। कृषि शोध और विकास व्यय के लिए वर्तमान बजटीय आवंटन केवल 10,466 करोड़ रुपये है और अगले दो-तीन सालों में इसे बढ़ाने की आवश्यकता है। कृषि जैव प्रौद्योगिकी अब दीर्घकालिक रूप से खाद्य और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है।

First Published : May 9, 2025 | 10:21 PM IST