नागरिक समाज और भारत सरकार के बीच पिछले कुछ समय से अच्छे ताल्लुकात नहीं हैं लेकिन हाल के दिनों में यह टकराव बढ़ गया है। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार नियमन की सख्ती के बाद सन 2017 से 2021 के बीच करीब 6,677 गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) को विदेशी फंडिंग पाने से संबंधित लाइसेंस गंवाना पड़ा। ताजा कदम घरेलू फंडिंग तक पहुंच को सीमित करने से संबंधित है। हाल ही में कम से कम दो संस्थानों को सरकार से पत्र मिले हैं जिनमें आदेश दिया गया है कि वे फंड जुटाने की अपनी गतिविधियां रोक दें।
इसके साथ ही राज्यों को भी यह निर्देश दिया गया है कि वे उन क्षेत्रों में एनजीओ की गतिविधियों को सीमित करें जहां की प्राथमिक जिम्मेदारी केंद्र सरकार के पास है। डेक्कन हेरल्ड और आर्टिकल 14 नामक वेबसाइट द्वारा प्रकाशित खबरों के मुताबिक जिन दो संस्थानों को पत्र लिखे गए हैं वे हैं सेव द चिल्ड्रन (यह बाल अधिकारों पर काम करने वाले एक वैश्विक संगठन का भारतीय हिस्सा है) तथा साइटसेवर्स इंडिया। 57 वर्ष पुराना यह संगठन नेत्र स्वास्थ्य सेवाओं पर काम करता है तथा नेत्रहीनों के अधिकारों के लिए काम करता है।
यह बात अहम है कि इन एनजीओ ने न तो कोई नियम तोड़ा है और न ही उन्हें दंडित किया गया है। बस सरकार उनकी गतिविधियों से चिढ़ी हुई है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने राज्यों को एक पत्र लिखा है जो एनजीओ द्वारा फैलाए जा रहे झूठ को लेकर शिकायत करता है और स्थानीय प्रशासन से कहता है कि वे सरकार की पोषण योजनाओं के बारे में जागरूकता बढ़ाएं। सेव द चिल्ड्रन के मामले में एक विज्ञापन को वापस लेने का आदेश दिया गया है जिसमें एक अत्यधिक कुपोषित आदिवासी बच्चे को दिखाया गया है।
सरकार का मानना है कि यह उसके गरीबी उन्मूलन उपायों पर अभियोग के समान है। साइटरसेवर्स के मामले में स्वास्थ्य मंत्रालय ने उससे अनुरोध किया है कि वह देश में अंधत्व नियंत्रण के लिए आम जनता से फंड जुटाने की कोशिशें बंद करे क्योंकि उसकी यह कोशिश सरकार के नैशनल कंट्रोल फॉर ब्लाइंडनेस ऐंड विजुअल इंपेयरमेंट के खिलाफ है जहां सरकार नि:शुल्क सेवाएं देती है। यह बात सरकार के इस नजरिये को दिखाती है कि वह सामाजिक कार्य करने वाले संगठनों को विरोधी की दृष्टि से देखती है लेकिन इसके साथ ही इन आलोचनाओं की प्रासंगिकता भी समझ से परे और अलाभकारी है।
उदाहरण के लिए सरकार के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण समेत एक के बाद एक अनेक आंतरिक सर्वेक्षणों ने यह बताया है कि बच्चों में कुपोषण एक गंभीर मसला है। इस बात को देखते हुए निश्चित तौर पर यह सरकार के हित में है कि वह प्रतिष्ठित संस्थानों के साथ मिलकर बच्चों का पोषण सुधारने की दिशा में काम करे। बांग्लादेश का अनुभव बताता है कि एनजीओ के सहयोग से उसने अपने मानव विकास सूचकांकों में महत्त्वपूर्ण सुधार किया है। इससे सबक लेने की आवश्यकता है। यह विडंबना ही है कि सेव द चिल्ड्रन अतीत में कई योजनाओं में सरकार के साथ मिलकर काम कर चुका है। इसी प्रकार नेत्रहीनता या एक हद तक दृष्टि बाधा भी एक समस्या है, खासकर गरीब लोगों में। ऐसे में नेत्र संबंधी स्वास्थ्य को बढ़ावा देने वाले किसी भी कार्यक्रम को तवज्जो दी जानी चाहिए।
इन एनजीओ पर प्रतिबंधों की विशिष्टता से परे भी दो संबद्ध प्रश्न हैं। पहली बात सरकार एनजीओ जगत को संदेश देने की कोशिश कर रही है जो चिंता की बात है। चूंकि अपनी प्रकृति के अनुरूप ही सरकार स्वास्थ्य, शिक्षा आादि सामाजिक सेवाएं देती है तो ऐसे में इन क्षेत्रों में उपयोगी काम कर रहे एनजीओ के पास क्या विकल्प है? क्या उन सभी को अपना काम इस प्रकार समेट लेना चाहिए ताकि करदाताओं के पैसे से काम करने वाली सरकार की भावना का उल्लंघन न हो? दूसरा, शिक्षा और आदिवासी कल्याण के लिए काम करना कारोबारी सामाजिक जवाबदेही के तहत आने वाली गतिविधियों की सूची में है। ऐसे में कंपनियां उन कार्यक्रमों को लेकर भ्रमित हो सकती हैं जिनमें वे पहले ही निवेश कर चुकी हैं। भारत जैसे देश में सामाजिक सेवा क्षेत्र में संरक्षणवाद लागू करना उचित नीति नहीं जान पड़ती।