आर्थिक उदारीकरण के 30 साल बाद भी भारत का कॉर्पोरेट जगत रायसीना हिल्स से मिलने वाले संकेतों को लेकर खासा संवेदनशील बना हुआ है। भारतीय कंपनियों ने महामारी की दूसरी लहर में कोविड-19 संबंधित स्वास्थ्य ढांचे में निवेश के लिए जिस तरह से आपाधापी मचा रखी है उससे तो यही बात झलकती है।
पिछले साल इसी तरह कंपनियों का जोर प्रवासी श्रमिकों की मदद करने पर था। जब कंपनियों के सामाजिक दायित्व (सीएसआर) का प्रावधान 2013 में कंपनी कानून में जोड़ा गया था तो सीएसआर की चिंता शिक्षा के इर्दगिर्द ही थी क्योंकि तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार शिक्षा का अधिकार कानून लेकर आई थी। उस दशक में ‘महिला सशक्तीकरण’ भी काफी चर्चा में था, लिहाजा व्यावहारिक कंपनियों ने इन दोनों को मिलाते हुए अपने सीएसआर निवेश का केंद्र महिलाओं एवं बालिकाओं की शिक्षा को बना लिया।
फिर 2014 में नरेंद्र मोदी सत्ता में आए और कंपनियों की सामाजिक चिंता के मुद्दे बदल गए। फिर शौचालयों का निर्माण ही कंपनियों की सीएसआर गतिविधि के केंद्र में आ गया। वैसे मोदी की नजर में भी बालिकाओं को शिक्षा देना एक अहम मुद्दा बना रहा है, लिहाजा उस दिशा में किए गए सीएसआर निवेश को लेकर खूब प्रचार किया गया। यह सिलसिला उस समय तक कायम रहा जब तक इस सरकार ने कंपनी अधिनियम में सीएसआर प्रावधान का पालन करने या फिर उसकी वजह बताने संबंधी नियम पर कठोर रुख नहीं अपनाया। सरकार ने सीएसआर निवेश नहीं करने वाली कंपनियों को नोटिस भेजने शुरू कर दिए। यह 2019 का साल था जब नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) कानून के जल्दबाजी में क्रियान्वयन की दोहरी मार ने आर्थिक वृद्धि और कंपनियों के लाभ को इस हद तक प्रभावित किया था कि सीएसआर निवेश 18,655 करोड़ रुपये से घटकर 7,823 करोड़ रुपये ही रह गया। पीयूष गोयल ने बाद में कहा था कि इस नियम का अनिवार्यत: लागू होना एक ‘हादसा’ था जिसे सही किया जाएगा।
लेकिन ऐसा होने के बजाय वर्ष 2021 की शुरुआत में सरकार ने इस नियम का पालन नहीं करने पर 25 लाख रुपये का जुर्माना लगाने का आदेश जारी कर दिया। अनुपालन संबंधी दबाव उस वक्त बढ़ाया गया जब कंपनियां महामारी के समय लगे लॉकडाउन के असर से जूझ रही थीं और उन्हें सीएसआर फंड का भी इंतजाम करना था। संयोगवश, बेहद विवादास्पद रहा पीएम-केयर्स फंड पिछले साल सीएसआर फंडिंग के लायक घोषित कर दिया गया जिससे अधिकांश कंपनियों की समस्या दूर हो गई।
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) के समय बने लेकिन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार द्वारा खुले दिल से अपनाए गए सीएसआर कानून को लेकर बुनियादी वैचारिक समस्या 2017-18 में शौचालय निर्माण को लेकर इंडिया इंक के बीच दिखा जोश था। मारुति सुजूकी से लेकर ओएनजीसी और एनटीपीसी एवं बोइंग तक सैकड़ों कंपनियों ने गांवों एवं छोटे कस्बों में शौचालय बनवाने में निवेश किए। यह सामूहिक प्रयास मददगार साबित हुआ लेकिन इससे भारत को खुले में शौच से मुक्ति तब तक नहीं मिल पाई जब तक खुद प्रधानमंत्री एवं उनके भरोसेमंद आईएएस अफसर परमेश्वरन अय्यर ने मोर्चा नहीं संभाला।
दूसरे शब्दों में, सीएसआर का बदलावकारी असर इसकी परिभाषा से ही सीमित हो जाता है। पहले सीएसआर ही इस कानून के अमल में आने का कारण था। फिर सीएसआर को सरकार की प्राथमिकताओं से तालमेल बिठाने का सवाल आया। लेकिन वजह के चलन से बाहर होते ही निवेश भी कम होता गया। शिक्षा क्षेत्र में सीएसआर निवेश बहुत कम रहने के पीछे यह भी एक कारण है। लॉकडाउन की सीधी मार झेलने वाले प्रवासी कामगारों की तकलीफ कम करने की दिशा में किए गए सामूहिक सीएसआर प्रयास अगर किए गए प्रयासों की ही तरह असरदार होते तो दूसरी लहर आने पर फिर से अपने गांव लौटने वाले मजदूरों की संख्या बहुत कम रहती।
ऐसी कोशिशों से कंपनियों की छवि चमकाने के सिवाय कोई भी मकसद पूरा नहीं होता है। ये कंपनियां ऑक्सीजन प्लांट लगाने, फील्ड अस्पताल बनाने, आइसोलेशन वार्ड बनाने के काम में जुटी हुई हैं। नए सीएसआर कानून में यह प्रावधान है कि सीएसआर फंड से बनाई गई परिसंपत्तियां उसके असली लाभार्थियों या गैर-लाभकारी कंपनी या किसी सार्वजनिक अधिकरण को हस्तांतरित करनी होती हैं। इन कोविड-19 परिसंपत्तियों के लाभार्थियों के बदलते रहने से कंपनियों के पास आखिरी दो विकल्प ही बाकी रह जाते हैं। लेकिन दूसरी लहर के धीरे-धीरे कमजोर पड़ते जाने से कोविड मरीजों के इलाज में मदद के लिए बनाई गई इन परिसंपत्तियों का अब सक्रिय इस्तेमाल नहीं हो पाएगा, लिहाजा कंपनियां खुद को एक अजीब दुविधा में पा रही हैं। अगर संयोग से भारत में कोविड महामारी की तीसरी लहर नहीं आती है तो फिर ये स्वास्थ्य परिसंपत्तियां और लंबे समय तक निष्क्रिय अवस्था में पड़ी रहेंगी। ऐसे में यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि महामारी का खतरा कम होते ही इनमें से कई स्वास्थ्य प्रतिष्ठानों को खत्म कर दिया जाएगा।
स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं के मामले में बेहद खराब स्थिति वाले भारत में यह पैसे एवं संसाधन की बड़ी बरबादी ही होगी। कंपनियों पर महज एक बाध्यता थोपने के बजाय अगर सरकार ने उन सीएसआर परिसंपत्तियों को पुनर्वितरणकारी भागीदारी में देने वाला एक मॉडल तैयार करने का काम किया होता तो वह कहीं अधिक मददगार होता। मसलन, गुरुग्राम में आननफानन में बनाए गए एक ऑक्सीजन प्लांट या अस्पताल को हरियाणा के ही नूह में स्थानांतरित करना अधिक फायदेमंद हो सकता था। इससे भारत में अधिक मजबूत एवं समान स्वास्थ्य सुविधाएं दे पाने में मदद मिलती। सीएसआर का यह निर्देश अपने-आप में दोषपूर्ण संकल्पना है। लेकिन महामारी लंबे समय में इसका इस्तेमाल भारत के फायदे में करने का एक रास्ता मुहैया कराती है।