यह सही है कि कोविड-19 से संक्रमित होने वालों की तादाद और रोज होने वाली मौतों का आंकड़ा अस्वीकार्य रूप से ऊंचा है लेकिन फिर भी ऐसी तमाम वजह हैं जिनके चलते अर्थव्यवस्था को खोलने का सिलसिला नहीं रोका जा सकता। दर्ज मामलों की तुलना में मौत के आंकड़े जून से लगातार घट रहे हैं और अब यह दर 1.3 फीसदी रह गई है। महामारी के विशेषज्ञ इसे लेकर कई तरह की परिकल्पना पेश कर रहे हैं: मरीजों के उपचार के चिकित्सा प्रोटोकॉल में सुधार, गंभीर बीमारों के लिए सटीक चिकित्सा, वायरस की क्षमता का कमजोर होना और वायरल लोड कम होने के कारण अपेक्षाकृत कम संक्रमण होना।
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) का ऐंटीबॉडी के प्रसार से जुड़ा राष्ट्रीय सर्वेक्षण बताता है कि प्रति 2,000 से प्रति 1,000 मरीजों में से एक के लिए वायरस घातक है। इन प्रमाणों के बीच नियामक प्रतिबंधों को लगातार शिथिल कर रहे हैं। मृत्यु दर कम होने के कारण लोगों में भी डर कम हो रहा है। पहली तिमाही में जीडीपी में 24 प्रतिशत की गिरावट के लिए व्यापक तौर पर आर्थिक गतिविधियों पर लगे प्रतिबंध ही उत्तरदायी थे। परंतु अब हालात तेजी से बदले हैं और कई संकेतक मसलन कारों की बिक्री, वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) ई-वे बिल, बिजली की मांग और पेट्रोल डीजल की मांग संकट से पहले के स्तर पर पहुंच रहे हैं। टिकाऊ वस्तुओं के विक्रेता भी मांग से ज्यादा आपूर्ति को लेकर चिंतित हैं। सालाना आधार पर होने वाली तुलनाओं को पिछले वर्ष की कमजोर दूसरी छमाही से मदद मिल रही है लेकिन इसमें दो राय नहीं कि हालात सुधर रहे हैं। अब सालाना आधार पर गिरावट वाले महीने बीत चुके हैं और पूरे वर्ष की जीडीपी में गिरावट का 8 से 10 फीसदी तक का बोझ हम वहन कर चुके हैं। ऐसे में यह देखना बेहतर होगा कि बीते छह महीनों में कितनी आर्थिक क्षति हुई। यह नुकसान अर्थव्यवस्था के विभिन्न हिस्सेदारों में इसी प्रकार बंटेगा: इसमें सरकार, वेतनभोगी, औपचारिक और अनौपचारिक फर्म शामिल हैं। ऐसा करने से यह तय करने में भी मदद मिल सकती है कि सरकार लंबी अवधि के नुकसान को कम करने और आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए कहां हस्तक्षेप कर सकती है। निवेशकों को भी यह अनुमान लगाने में आसानी होगी कि कौन से क्षेत्रों में पहले बेहतरी आएगी और किनमें बाद में?
राष्ट्रीय लेखा से जुड़े तार्किक अनुमान बताते हैं कि आय के मामले में जीडीपी में 20 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ होगा जिसमें आधा सरकार के हिस्से जबकि वेतनभोगियों और कंपनियों के हिस्से चौथाई-चौथाई हिस्सा है।
केंद्र और राज्य सरकारें मोटे तौर पर अपने व्यय का प्रबंधन कर रही हैं, उन्हें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर में नुकसान हो रहा है और उनकी ऋण आवश्यकताएं बढ़ी हैं। परंतु केंद्र और राज्य सरकारों के नुकसान के बंटवारे की अनिश्चितता राज्य सरकारों के पूंजीगत व्यय को प्रभावित करती है। यह समस्या केवल जीएसटी क्षतिपूर्ति की तुलना में कहीं अधिक जटिल है और इसे हल होने में वक्त लगेगा।
रोजगार जाने, वेतन कटौती होने, वित्तीय बचत पर कम प्रतिफल आदि ने हालत और बिगाड़ दी क्योंकि इससे खपत भी प्रभावित हुई। आर्थिक गतिविधियों पर रोक का सबसे बुरा असर सेवाओं पर पड़ा है। केवल चंद अत्यधिक कौशल वाले रोजगार ही अप्रभावित हैं। मिसाल के तौर पर चिकित्सा और कानून आदि। ऐसे में स्पष्ट है कि गतिविधियों पर रोक ने जहां उच्च आय वाले लोगों की खपत को प्रभावित किया, वहीं दूसरी ओर इसने कम आय वाले लोगों की आय को प्रभावित किया। जाहिर है महामारी के चरम पर रहने के दौरान सभी वर्गों की आय प्रभावित हुई होगी। परंतु उच्च आय वाले परिवारों के पास वित्तीय बचत भी अधिक होगी और इसी तरह कम आय वाले परिवारों पर कर्ज का बोझ बढ़ा होगा।
रोजगार में सुधार भी शायद स्वत: नहीं होगा क्योंकि रोजगार प्रदान करने वाली कंपनियों को भी नुकसान हुआ है। हमारे अनुमान के मुताबिक 20 लाख करोड़ के नुकसान में संगठित फर्मों की हिस्सेदारी 10 प्रतिशत और असंगठित फर्म की 15 प्रतिशत है। जाहिर है भविष्य के निवेश के लिए कम जोखिम वाली पूंजी की उपलब्धता भी प्रभावित हुई। फर्म आमतौर पर अपनी जोखिम पूंजी के समान राशि उधार लेती हैं। ऐसे में अर्थव्यवस्था में निवेश का असर दोगुना होकर जीडीपी के 5 फीसदी के बराबर हो जाता है। इससे आने वाले वर्षों में वृद्धि दर धीमी होने की आशंका बढ़ जाती है।
संगठित क्षेत्र की फर्म आकार में बड़ी होती हैं इसलिए भी उनकी स्थिति बेहतर है। उन्हें ऋण की कम लागत का भी लाभ मिला। असंगठित क्षेत्र की फर्म की पहुंच औपचारिक ऋण तक नहीं थी और वे अपनी बचत के बल पर ही भविष्य के निवेश की योजना बना सकती हैं। उनकी संभावित वृद्धि दर संगठित क्षेत्र की कंपनियों से कम रहने की आशा है। यदि उनमें से कुछ कंपनियां बंद होती हैं तो उनमें काम करने वाले श्रमिक सेवा क्षेत्र या विनिर्माण से वापस कृषि कार्यों की ओर लौट जाते हैं। हाल के कुछ आंकड़ों ने ऐसा दिखाया भी है। जाहिर है उन्हें वापस लौटने में वक्त लगेगा। आम परिवारों की स्थिति और कंपनियों की खस्ताहाल बैलेंस शीट, प्रतिबंध हटने के बाद भी खपत और निवेश को कमजोर बनाए रखते हैं। मांग में सुधार के कारण नजर आ रही बेहतरी कुछ माह में धुंधली पड़ जाएगी। राज्य सरकार की वित्तीय स्थिति पर पड़ रहे दबाव और निवेश की भावना पर बने दबाव के बीच निवेश में सुधार काफी वक्त ले सकता है। कम आय वर्ग वाले परिवारों की मांग भी कम बनी रह सकती है, हालांकि उच्च आय वाला तबका व्यय शुरू कर सकता है क्योंकि उसने लॉकडाउन के दौरान बचत की होगी। ऐसे में जिस वर्ग को सबसे अधिक मदद की आवश्यकता हो सकती है वे हैं शहरी गरीब, असंगठित क्षेत्र के कामगार और छोटे असंगठित कारोबार। हमारी दृष्टि में नीति निर्माताओं के सामने असली चुनौती होगी ऐसी नीति तैयार करना जो इन वर्गों के फायदे में हो।
हमें याद रखना होगा कि चुनौती केवल राजकोषीय गुंजाइश की नहीं है। मैंने गत अगस्त में एक लेख में कहा था कि बड़ा और लगातार भुगतान संतुलन अधिशेष विसंगति उत्पन्न कर सकता है और राजकोषीय प्रोत्साहन की मदद से घरेलू मांग को बढ़ावा देना भविष्य के लिए बेहतर होगा। रिजर्व बैंक के मौजूदा बाजार हस्तक्षेप रुपये का अधिमूल्यन रोकने वाला है। यह अधिशेष नकदी की स्थिति बनाएगा। इस राशि का इस्तेमाल नीतिगत उपायों के जरिये सरकारी उधारी की फंडिंग में किया जा सकता है।
(लेखक क्रेडिट सुइस के एशिया-प्रशांत रणनीति सह-प्रमुख एवं भारत रणनीतिकार हैं)