लेख

अमेरिका बनाम चीनः भारत का अधिक दांव वाला व्यापारिक सफर

भारत, अमेरिका के साथ व्यापार समझौते के लिए इच्छुक है। भारत के लिए अमेरिका जैसे बड़े उपभोक्ता बाजार को छोड़ देना समझदारी नहीं है।

Published by
प्रसेनजित दत्ता   
Last Updated- May 11, 2025 | 10:19 PM IST

कई टिप्पणीकारों ने इस बात को तवज्जो दी है कि अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध से भारत के विनिर्माण क्षेत्र को फायदा हो सकता है। लेकिन इस पर कम चर्चा होती है कि इस अवसर का लाभ हासिल करने के लिए भारतीय नीति निर्माताओं को बेहद चुनौतीपूर्ण राह तय करनी होगी। ऐसा इसलिए क्योंकि अमेरिका और चीन दोनों ही इन दिनों ‘दुश्मन का दोस्त भी दुश्मन’ मानने वाले सिद्धांत का पालन कर रहे हैं।

अमेरिका एक ऐसा व्यापारिक साझेदार चाहता है जो उन वस्तुओं की आपूर्ति कर सकें जो पहले चीन से आती थीं। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि वह ‘सामान के मूल देश’ की बहुत बारीकी से जांच करेगा। अमेरिका नहीं चाहता कि चीन में पूरी तरह से या ज्यादातर बने सामान किसी अन्य देश के माध्यम से अमेरिका के बाजार में अप्रत्यक्ष तरीके से प्रवेश करें। यानी आदर्श स्थिति में अमेरिका यह चाहता है कि उसके व्यापारिक साझेदार चीन के साथ अपना व्यापार करना पूरी तरह से बंद कर दें।

वहीं दूसरी ओर चीन भी उतना ही स्पष्ट है कि वह महत्त्वपूर्ण सामग्री और अन्य सामान की आपूर्ति रोककर अमेरिका को घुटनों पर लाना चाहता है। दुर्लभ तत्व ऐसा ही एक उदाहरण हैं। चीन का इरादा किसी ऐसे अन्य देश को दुर्लभ तत्त्वों की बिक्री न करने का है जहां से इन सामग्रियों का उपयोग करके तैयार किए गए सामान अमेरिका भेजे जा सकते हैं।

खबरों के मुताबिक, उसने पहले ही दक्षिण कोरिया से कहा है कि वह अमेरिकी रक्षा फर्मों को दुर्लभ तत्त्वों से बने उत्पाद न दे। वह वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला पर अपने प्रभुत्व वाले कई क्षेत्रों में विनिर्माण प्रौद्योगिकी और विशेषज्ञता से उन देशों को वंचित करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है, जो इन्हें अमेरिका को बेच सकते हैं।

दूसरी ओर भारत, अमेरिका के साथ व्यापार समझौते के लिए इच्छुक है। भारत के लिए अमेरिका जैसे बड़े उपभोक्ता बाजार को छोड़ देना समझदारी नहीं है। वास्तव में, अमेरिका कुछ उन देशों में से एक है जिनके साथ भारत का व्यापार संतुलन अनुकूल है। दूसरी तरफ स्थिति यह है कि भू-राजनीतिक मोर्चे पर चीन के साथ अपने अच्छे अनुभव न होने के बावजूद, भारत निकट भविष्य में आयात के मामले में उस पर अपनी निर्भरता कम नहीं कर सकता है।

चीन इलेक्ट्रॉनिक्स और फार्मास्यूटिकल क्षेत्र से लेकर इलेक्ट्रिक वाहन (ईवी) बैटरियों  और सौर पैनलों तक, कई क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण इनपुट की आपूर्ति करता है। चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा लगभग 100 अरब डॉलर तक बढ़ गया है, क्योंकि लगभग सभी विनिर्माण क्षेत्र, चीन से आने वाले इनपुट पर निर्भर हैं।

लेकिन इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारत इन कई उद्योगों की आपूर्ति श्रृंखला तंत्र में आत्मनिर्भर बनाना चाहता है। हालांकि, कड़वी हकीकत यह है कि इसके पास विशेषज्ञता और प्रौद्योगिकी की कमी है और इसे इनकी आपूर्ति के लिए चीन के सहयोग की दरकार है। यही कारण है कि सौर पैनल निर्माण से लेकर इलेक्ट्रॉनिक्स और ईवी जैसे कई उद्योगों में, भारतीय कंपनियां चीनी विशेषज्ञों के लिए वीजा प्रतिबंधों में ढील देने के लिए सरकार पर दबाव डाल रही हैं। समस्या यह है कि व्यापार युद्ध में किसी भी पक्ष के पीछे हटने के कोई संकेत नहीं दिखने के कारण, भारत-अमेरिका व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद चीन, भारत को विनिर्माण के लिए आवश्यक तकनीकी विशेषज्ञता और प्रौद्योगिकी देने से इनकार कर सकता है।

भारत को यह भी समझना चाहिए कि उसे आर्थिक, विनिर्माण और तकनीकी आत्मनिर्भरता के लिए अपना रास्ता खुद बनाना होगा क्योंकि न तो अमेरिका और न ही चीन को एक स्थिर साझेदार के रूप में देखा जा सकता है। राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका ने दिखाया है कि वह अपने सबसे करीबी सहयोगियों, कनाडा से लेकर यूरोपीय संघ तक के खिलाफ भी जा सकता है। भारत के पास इस बात पर यकीन करने का कोई कारण नहीं है कि उसका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के साथ वस्तुओं और सेवाओं के लेनदेन से अधिक का कोई संबंध होगा।

इस बीच, चीन ने दशकों से भारत के मित्रता के प्रयासों को लगातार ठुकराया है। यह एक ऐसा रुख है जो दोनों देशों में राजनीतिक परिवर्तनों के बावजूद नहीं बदला है। चीन भी भारत को महत्त्वपूर्ण प्रौद्योगिकी हासिल करके एक संभावित प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभरते हुए नहीं देखना चाहता है। भारतीय नीति निर्माताओं को यह समझने की जरूरत है कि भारत अब तक अपनी आर्थिक वृद्धि को लेकर बेफिक्र रहा है जो काफी हद तक सेवाओं और बुनियादी ढांचे पर सरकारी खर्च के माध्यम से संभव हुआ है। भारतीय अर्थव्यवस्था के विनिर्माण बनाम सेवाओं के समीकरण के बारे में अकादमिक जगत और सरकारी, दोनों हलकों में कई चर्चाएं हुई हैं। समस्या यह है कि आज की दुनिया में, भले ही सेवा क्षेत्र सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाला क्षेत्र हो फिर भी आपको अपनी सुरक्षा के लिए विनिर्माण की आवश्यकता होती है। निश्चित रूप से, भारत बाहरी परिस्थितियों पर प्रतिक्रिया में रातों-रात विनिर्माण क्षेत्र में महाशक्ति नहीं बन सकता है। महज कुछ क्षेत्रों में भी वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी निर्माता बनने के लिए भारत को एक स्पष्ट दृष्टिकोण और बहु-दशकीय योजनाओं की आवश्यकता होगी जिन्हें पूरी मेहनत से क्रियान्वित किया जाए।

भारत की कई विनिर्माण समस्याएं अंदरूनी हैं जो अनावश्यक और पुराने जमाने के नियमों और लाल फीताशाही से लेकर बिजली और लॉजिस्टिक्स की अधिक लागत से जुड़ी हुई हैं। इसके अलावा नीतिगत अस्थिरता और न्यायिक स्तर पर अनुबंधों को लागू करने में देरी जैसी अन्य समस्याएं भी हैं। शिक्षा, कौशल और श्रम उत्पादकता के मुद्दों को भी हल करने की आवश्यकता है और इन्हें रातों-रात ठीक नहीं किया जा सकता है।

इन सबके लिए निश्चित रूप से स्पष्ट सोच वाले नीति निर्माण और दशकों तक लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्ध रहने वाले धैर्य की आवश्यकता है। यह मुश्किल है लेकिन असंभव नहीं है क्योंकि अगर एक कम्युनिस्ट देश माओ के समाजवादी औद्योगिक शक्ति बनाने के आर्थिक और सामाजिक अभियान तथा सांस्कृतिक क्रांति जैसी नीतियों को सहने के बावजूद इसे सुनिश्चित कर सका है तब भारत जैसे कुछ हद तक उदार अर्थव्यवस्था वाले एक बड़े लोकतांत्रिक देश के लिए ऐसा करना मुश्किल नहीं होना चाहिए। लेकिन इसके लिए दीर्घकालिक दृष्टि, इच्छाशक्ति और लगातार फॉलो-अप करने की आवश्यकता है।

(लेखक बिजनेस टुडे और बिजनेसवर्ल्ड के पूर्व संपादक और संपादकीय सलाहकार संस्था प्रोजेक व्यू के संस्थापक हैं)

 

First Published : May 11, 2025 | 10:19 PM IST