मोतीलाल ओसवाल फाइनैंशियल सर्विसेज के चेयरमैन और सह-संस्थापक रामदेव अग्रवाल का मानना है कि भारतीय बाजारों के लिए एकमात्र चिंता पाकिस्तान के साथ मौजूदा तनाव को लेकर है। अग्रवाल अमेरिका में वॉरेन बफेट की शेयरधारक बैठकों में नियमित रूप से शामिल होते रहे हैं। उन्होंने पुनीत वाधवा को फोन पर बातचीत के दौरान कई वर्षों से इन बैठकों में भाग लेने के अपने अनुभव साझा किए। बातचीत के अंश:
भारतीय बाजारों पर आपका मौजूदा नजरिया क्या है?
मेरा मानना है कि भारत बुनियादी तौर पर अच्छी स्थिति में है। बाजारों के लिए एकमात्र चिंता पाकिस्तान के साथ भू-राजनीतिक मुद्दों से जुड़ी हुई है। एक चुनौती यह है कि कॉरपोरेट आय बहुत तेजी से नहीं बढ़ रही है। लेकिन कुल मिलाकर, मेरा मानना है कि भारतीय बाजार अच्छा प्रदर्शन करने की स्थिति में हैं, यह इस पर निर्भर करेगा कि आय वृद्धि कितनी तेजी से बढ़ेगी।
आप कब से वॉरेन बफेट की सालाना शेयरधारक बैठकों में हिस्सा लेते रहे हैं और इन वर्षों में आपका क्या अनुभव रहा?
मैंने इन बैठकों में वर्ष 1995 से जाना शुरू किया। अब तक पिछले 30 वर्षों में मेंने कम से कम 25 बैठकों में हिस्सा लिया है। जब मैंने 1995-96 में जाना शुरू किया था तो यह बहुत छोटा कार्यक्रम होता था। सिर्फ 4,000 लोग ही इसमें शामिल होते थे। हम शुरुआती लोगों में से थे। समय के साथ, इसका दायरा बढ़ता गया। पिछले साल इसमें लगभग 40,000 लोग शामिल हुए थे और इस साल, मेरे खयाल से करीब 45,000 लोग थे।
माना जा रहा था कि यह बफे की आखिरी बैठक हो सकती है, जिससे भी वहां लोगों की संख्या बढ़ गई। यहां तक कि हॉल के वे हिस्से भी , जो आमतौर पर खाली रहते हैं, खासकर पिछली पंक्तियां, पूरी तरह भरे हुए थे। मेरा अनुमान है कि सामान्य से 3,000-4,000 ज्यादा लोग शामिल हुए।
क्या बैठक का स्वरूप अब बदल गया है?
मूल स्वरूप मुख्य रूप से पहले जैसा ही है। लोग हमेशा जिज्ञासु रहते हैं, जिनमें युवा निवेशक और दुनिया भर के लोग शामिल हैं। प्रश्न काफी सुसंगत रहते हैं, जो मुख्य रूप से निवेश धारणा, कंपनी के निर्णयों और व्यवहार संबंधी पहलुओं के बारे में होते हैं।
क्या आपने पिछले कुछ वर्षों में बफे की निवेश शैली में कोई बदलाव देखा है?
हां, कहीं उन्हें अहसास हुआ कि निवेश करते समय ‘खरीदना और मरते दम तक रखना’ हमेशा ही सबसे अच्छी रणनीति नहीं हो सकती। अब हम देखते हैं कि जरूरत पड़ने पर वे बेचने के लिए ज्यादा तैयार हैं।
क्या आपको लगता है कि भारतीय संदर्भ में बफे की निवेश शैली अभी भी प्रासंगिक बनी हुई है?
वॉरेन बफे की निवेश शैली को यहां दोहराना बेहद कठिन है। उनका पैसा स्थायी पूंजी है। उन्हें भारत की तरह रिडम्प्शन या बाहरी दबाव से नहीं जूझना पड़ता जहां ज्यादातर फंड ओपन-एंडेड होते हैं। दूसरा, जहां हमारे जैसे प्रॉपराइटरी निवेशक उनकी निवेश शैली पर अमल की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन दशकों तक वॉरेन बफे की तरह अनुशासित रहना बेहद कठिन है।
तीसरा, जिस पैमाने पर वह काम करते हैं (बहुत बड़ी कंपनियों का 100 प्रतिशत खरीदना), उसकी बराबरी करना मुश्किल है। उनके सिद्धांत अत्यधिक मूल्यवान हैं, लेकिन उनके सटीक दृष्टिकोण की नकल करना आसान नहीं है।
एक फंड मैनेजर और वॉरेन बफेट की शेयरधारक बैठक में बतौर दर्शक आपके निष्कर्ष क्या रहे हैं?
मैं तीन प्रमुख अनुभव बताना चाहूंगा। पहला है व्यवसायों की गुणवत्ता को समझना। ऐसे बेहतरीन व्यवसाय हैं (जैसे नेस्ले, हिंदुस्तान यूनिलीवर और एशियन पेंट्स) जो उपभोक्ता-केंद्रित हैं, उनमें मजबूत मूल्य निर्धारण क्षमता है और वे बड़े पैमाने पर मुक्त नकदी पैदा करते हैं। दूसरा है अच्छे प्रबंधन की पहचान करना। कंपनियों को प्रबंधन टीमें चलाती हैं जिनमें योग्यता, जुनून और सबसे अहम बात ईमानदारी होती है। ये तीन गुण महत्वपूर्ण हैं। तीसरी बात यह है कि भाव काफी मायने रखते है।