भारत में विदेशी संस्थागत निवेशकों का निवेश लगातार घट रहा है और इन हालातों में कोई सुधार भी नहीं हो रहा है।
चिंता की बात तो यह है कि इन हालात में और भी गिरावट आ सकती है। जनवरी से लेकर अब तक विदेशी संस्थागत निवेशकों ने भारतीय बाजार से 4.6 अरब डॉलर की पूंजी का निष्कासन किया है।
जबकि पिछले साल इसी समय संस्थागत निवेशकों नें लगभग चार अरब डॉलर की पूंजी भारतीय बाजार में लगाई थी। एशिया में सिर्फ भारतीय बाजार ही नहीं है जहां से विदेशी संस्थागत निवेशक अपनी पूंजी का निष्कासन कर रहे हैं बल्कि एशियन फंडों में किए जाने वाले निवेश में भी जनवरी 2008 से अब तक वित्त्तीय वर्ष 2007 की तुलना में 6.7 अरब डॉलर का कम निवेश देखा गया है।
जहां गुरुवार को सेसेंक्स में 330 अंकों की गिरावट देखी गई और यह 15,000 अंकों के करीब आकर बंद हुआ। दूसरी ओर चीन केशेयर बाजार में छ: फीसदी से भी ज्यादा की गिरावट देखी गई। इसके अलावा लगभग सभी एशियाई बाजार खतरे के निशान पर रहे। यह स्पस्ट है कि भारत की तरह अन्य एशियाई बाजारों से भी तेजी से पूंजी का निष्कासन हो रहा है।
पिछले चार महीनों से जारी पूंजी निष्कासन में सबसे ज्यादा पूंजी निष्कासन पिछले हफ्ते हुआ जब एशियाई बाजारों से विदेशी संस्थागत निवेशकों ने एशियाई बाजारों से 1.4 अरब डॉलर की पूंजी का निष्कासन किया। चिंता की बात तो यह है कि यह पिछले दो हफ्तों के औसत निष्कासन से 2500 लाख डॉलर से भी ज्यादा है। इसके अलावा एशियाई बाजारों का रिस्क प्रीमियम भी खासा ऊंचा है।
जहां निवेशक कोरियाई और मलेशिया के बाजार से अपनी पूंजी निकाल रहे हैं वहीं ताईवान के बाजार में पिछले चार महीनों से जारी पूंजी का प्रवाह भी ठहर गया है। ग्लोबल इमर्जिंग मार्केट से भी पिछले तीन महीनों में इस हफ्ते सबसे ज्यादा धन का निष्कासन किया गया जबकि दूसरी ओर डाइवरसीफाइड ग्लोबल और इंटरनेशनल फंड में 0.8 अरब डॉलर की पूंजी का प्रवाह हुआ।
मेरिल लिंच द्वारा फंड मैनेजरों के बीच कराए गए सर्वेक्षण से बड़े चौकाने वाले परिणाम निकल कर सामने आए। वैश्विक निवेशक जहां रूसी बाजार के प्रति सकारात्मक दिखते हैं जबकि भारत और चीन के बाजार पर उनका विश्वास डगमगाया है। इन हालातों में यह चौकाने वाली बात नहीं है कि निवेशक अब एशियाई अर्थव्यवस्थाओं को कम अहमियत दे रहे हैं। इन देशों को आगे भी जबरदस्त नुकसान देखना पड़ सकता है यदि तेल के दाम वर्तमान स्तर पर स्थिर रहते हैं।
इस स्थिति में सुधार की गुंजाइश तभी लगाई जा सकती है यदि तेल की कीमतें 110 डॉलर प्रति बैरल के आसपास आ जाती हैं। यदि तेल की कीमतें अपने वर्तमान स्तर पर रहती हैं तो इस बात की बहुत कम संभावना है कि वे एशियाई बाजारों की ओर फिर से रुख करें। तेल की बढ़ती अंतरराष्ट्रीय कीमतें भारतीय अर्थव्यवस्था पर दुष्प्रभाव डाल सकती है क्योंकि इसका सबसे ज्यादा प्रभाव महंगाई पर पड़ेगा।
क्योंकि भारत में महंगाई की दर वर्तमान में आठ फीसदी के स्तर पर है और इसके भविष्य में दोहरे अंकों तक पहुंचने की संभावना है। महंगाई का स्पस्ट प्रभाव बढ़ती ब्याज दरों से भी देखा जा सकता है। इसका असर यह पड़ेगा कि रियल एस्टेट के दामों में तेजी आएगी। ऊंची ब्याज दरों से रिटेल और छोटी कंपनियों की मुश्किलें बढ़ जाएंगी क्योंकि वह बढ़ती ब्याज दरों का बोझ उठानें में सक्षम नहीं हैं।
अगर हम वित्त्तीय वर्ष 2008 में रिटेल सेक्टर की ग्रोथ एक अंकों में देखते हैं तो हमें हैरान नहीं होना चाहिए। महंगाई से लोगों की अतिरिक्त आय पर प्रभाव पड़ा है जिससे अर्थव्यवस्था में आगे गिरावट देखी जा सकेगी। हालांकि बड़ी विनिर्माण कंपनियां इस बढ़त को बरकरार रखने में मद्द कर सकती हैं। हालांकि बढ़ती ब्याज दरों का प्रभाव दुपहिया और चार पहिया वाहनों की बिक्री पर भी दिखाई पड़ सकता है।