प्रारंभिक तौर पर देखें तो ऐसा अंदाजा लग सकता है कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार ने समाजवादी पार्टी (सपा) की अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सरकार की तुलना में महंगाई का प्रबंधन बेहतर तरीके से किया है। ऐसा इसलिए भी है कि राज्य में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार के दौरान औसत सालाना उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई आधारित) मुद्रास्फीति दर 4.47 प्रतिशत थी जबकि सपा के कार्यकाल में यह 6.98 प्रतिशत थी।
हालांकि अगर देश में समग्र महंगाई की परिस्थितियों के संदर्भ में देखा जाए तो सपा सरकार ने महंगाई को भाजपा की मौजूदा सरकार के मुकाबले थोड़ा बेहतर तरीके से नियंत्रित किया था। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल, 2017 के बाद से लगभग पांच वर्षों के दौरान अखिल भारतीय स्तर पर औसत वार्षिक मुद्रास्फीति 4.4 प्रतिशत रही जो 2012-2017 के दौरान 7.03 प्रतिशत थी। योगी ने मार्च, 2017 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद संभाला था।
लेकिन उत्तर प्रदेश में धार्मिक और जातिगत आधारित चुनाव अभियान में क्या मतदाताओं के लिए महंगाई का मुद्दा अहम है?
सी-वोटर के संस्थापक यशवंत देशमुख का कहना है कि मतदाताओं के लिए महंगाई का मुद्दा अहम है लेकिन यह तब तक राजनीतिक मुद्दा नहीं बनता जब तक कि यह नियंत्रण से बाहर नहीं हो जाता जैसा कि 1998 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में हुआ था जब प्याज की कीमतें आसमान छू रही थीं जिसकी वजह से भाजपा को सत्ता से बेदखल कर कांग्रेस सत्ता में आई थी। उनका कहना है कि विपक्ष ने इसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा नहीं बनाया है कि क्योंकि धर्मनिरपेक्षता और जातिगत पहचान के मुद्दे इस पर हावी हो गए।
लखनऊ विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के पूर्व प्रमुख यशवीर त्यागी का कहना है कि मतदाताओं की प्राथमिकता तय करने में महंगाई भले ही प्रमुख कारक न हो लेकिन अगर महंगाई अधिक होती है तो इससे सत्ता विरोधी रुझान में भी तेजी आती है। उनका कहना है कि मौजूदा महंगाई ईंधन की कीमतों में तेजी की वजह से है क्योंकि इसका व्यापक प्रभाव समाज के सभी वर्गों पर पड़ता है। उनका कहना है कि प्रदेश की सरकार भी इसको समझती है। वह कहते हैं, ‘इसी वजह से सरकार ने इस पर नियंत्रण करने की कोशिश की है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश सरकार प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत केंद्र द्वारा आवंटित राशन से दोगुना राशन दे रही है।’
यह पूछे जाने पर कि पिछली सरकार के कार्यकाल के दौरान औसत महंगाई अधिक थी, इस पर उनका कहना है कि मौजूदा समय में कोविड की वजह से लॉकडाउन लगने से लोगों ने नौकरियां गंवाईं हैं ऐसे में लोगों की आमदनी और खरीद क्षमता पर भी असर पड़ा है।
पंजाब में भी कुछ ऐसे ही हालात हैं। मौजूदा कांग्रेस सरकार के कार्यकाल के दौरान औसत सालाना महंगाई दर काफी कम 4.43 प्रतिशत के स्तर पर रही है जबकि अकाली दल-भाजपा गठबंधन के पांच साल के शासन के दौरान यह 6.19 प्रतिशत रही है। हालांकि अखिल भारतीय औसत महंगाई दर के संदर्भ में देखा जाए तो पिछले पांच साल मौजूदा कार्यकाल की तुलना में थोड़ा बेहतर थे। पंजाब में आम आदमी पार्टी (आप), अकाली दल से लेकर कांग्रेस पार्टी तक नकद समर्थन देने के वादे करती है ऐसे में यह स्पष्ट होता है कि राज्य में महंगाई मुद्दा है। पंजाब विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर आशुतोष कुमार का कहना है, ‘महंगाई मायने रखती है लेकिन महंगाई की परेशानियों के लिए केंद्र या राज्य सरकार को दोषी ठहराने वाले कौन लोग हैं?’ वह कहते हैं जब तक नोटबंदी जितने बड़े आर्थिक कदम नहीं उठाए जाते तब तक केंद्र को दोषी नहीं ठहराया जाएगा। उनका मानना है, ‘राज्य सरकार को ही अधिक महंगाई का खमियाजा भुगतना पड़ता है।’
जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं उन सभी में मणिपुर को छोड़कर पिछली सरकार के कार्यकाल की तुलना में मौजूदा सरकार मेंं औसत वार्षिक महंगाई दर अधिक है। यह संभवत: भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) द्वारा लचीली मुद्रास्फीति को लक्षित करने के कारण हुआ है जिसका गठन अक्टूबर 2016 में हुआ था और इसने राष्ट्रीय स्तर पर मुद्रास्फीति दर को 2 फीसदी अधिक और कम की सीमा के साथ 4 प्रतिशत के दायरे में रखने की बात कही थी। वर्ष 2012-13 और 2013-14 के दौरान राष्ट्रीय स्तर पर उच्च औसत मुद्रास्फीति दर क्रमश: 10.2 प्रतिशत और 9.49 प्रतिशत तक रही लेकिन ऐसा ही रुझान अब नहीं देखने को मिलेगा। इक्रा की मुख्य अर्थशास्त्री अदिति नायर ने कहा, ‘हाल के वर्षों में औसत मुद्रास्फीति दर नीचे चली गई है क्योंकि मुद्रास्फीति के लक्ष्य के परिपक्व होने से मुद्रास्फीति से जुड़ी उम्मीदों को संभालने में मदद मिलती है।’