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अमेरिकी डॉलर को कौन हटा सकता है शिखर से?

अमेरिकी मुद्रा डॉलर के प्रभुत्व और भारत की सफलता के बीच काफी कम टकराव दिख रहा है

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अजय शाह   
Last Updated- July 12, 2023 | 10:00 PM IST

अमेरिका सन 1820 तक प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के दृष्टिकोण से दुनिया के शीर्ष देशों में शामिल था। सन 1920 तक यह दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई। जर्मनी में नाजी शासन से पहले कहीं भी पूंजी नियंत्रण व्यवस्था नहीं थी, इस कारण अमेरिकी अर्थव्यवस्था पूरी दुनिया से निवेश आकर्षित करने और पूंजी जुटाने में सफल रही। इस समय डॉलर के प्रभुत्व पर झुंझलाहट और इसे सर्वमान्य अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के ओहदे से हटाने के लिए चीन और रूस जैसे देश प्रयास भी कर रहे हैं।

मगर ऐसा नहीं लगता कि अमेरिकी डॉलर के वजूद में कोई बड़ी गिरावट आएगी। इन बातों को दृष्टिगत रखते हुए हमारी सोच रुपये के वजूद और वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत के स्थान के इर्द-गिर्द घूमने लगती है। कभी-कभी किसी मुद्रा को अंतरराष्ट्रीय व्यापार (व्यापारिक लेनदेन के लिए बिल तैयार करने में मुद्रा का इस्तेमाल होता है) या आधिकारिक भंडार (केंद्रीय बैंक के पास रखी मुद्रा) के संदर्भ में ‘अंतरराष्ट्रीय’ माना जाता है।

मगर मुद्रा बाजार में सबसे अधिक अधिक गतिविधियां जिससे संबंधित होती है वह है अंतरराष्ट्रीय वित्त। मुद्रा बाजार में जितनी गतिविधियां होती हैं उनमें अधिकांश पूंजी खाते से जुड़े लेनदेन होते हैं। इस अंतरराष्ट्रीय वित्त का अमेरिकी डॉलर सबसे महत्त्वपूर्ण माध्यम होता है। इसे लेकर एक निजी निर्णयकर्ता और फिर वृहद आर्थिक हालात के स्तर पर कल्पना करना लाभदायक होता है। किसी व्यक्ति के पास निवेश करने के लिए रकम होती है तो ऐसे में वह क्या करेगा?

वैश्विक स्तर पर निवेश की संभावनाओं के दृष्टिकोण से न्यूयॉर्क और लंदन में संस्थागत क्षमता काफी मजबूत है। या अगर कोई व्यक्तिगत निवेशक पूंजी जुटाना चाहता है तो न्यूयॉर्क और लंदन रकम जुटाने के लिए सबसे माकूल स्थान हैं। इनमें ज्यादातर निवेश अमेरिकी डॉलर में होते हैं और रकम भी इसी में जुटाए जाते हैं।

तंत्रगत प्रभाव
पूंजी उपलब्ध कराने वाले अमेरिकी डॉलर में परिचालन करते हैं क्योंकि पूंजी का इस्तेमाल करने वाले डॉलर में लेनदेन करते हैं या फिर इसे ऐसे समझा जा सकता है कि पूंजी का इस्तेमाल करने वाले डॉलर में लेन-देन करते हैं इसलिए पूंजी उपलब्ध कराने वाले डॉलर में परिचालन करते हैं। यह अमेरिकी डॉलर बॉन्ड-मुद्रा-डेरिवेटिव धुरी पर आधारित होता है जो दुनिया में सर्वाधिक तरल या आसानी से भुनाने योग्य मानी जाती है। अमेरिका में संस्थागत गुणवत्ता से भी इसे मजबूती मिलती है। न्यूयॉर्क में परिसंपत्ति रखने वाला कोई गैर-निवासी महंगाई, कराधान, पूंजी नियंत्रण या विमुद्रीकरण को लेकर चिंतित नहीं रहता है।

ये वे कारक हैं जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के बाद अमेरिका का प्रभुत्व पूरी दुनिया में स्थापित किया है। जो अमेरिकी डॉलर में लेनदेन करते हैं उनके लिए यह व्यवस्था सुविधाजनक होती है क्योंकि उनके लिए मुद्रा से जुड़े जोखिम कम हो जाते हैं। बाकी अन्य लोगों के लिए अंतरराष्ट्रीय कारोबार अमेरिकी डॉलर में जरूर होता है मगर घरेलू मुद्रा में डॉलर को बदलने पर मुद्रा से जुड़े जोखिम की आशंका बनी रहती है।

पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों का सामना कर रहे देश (जैसे ईरान, रूस और उत्तर कोरिया) और भविष्य में टकराव की आशंका देखने वाले देश (जैसे चीन) उन आर्थिक ढांचे का विरोध कर रहे हैं जो विकसित लोकतांत्रिक देशों पर आधारित हैं। इन देशों ने पश्चिमी देशों द्वारा तैयार ढांचे के इस्तेमाल के बिना कारोबार करने का रास्ता तलाशने की बात करते रहे हैं और इस दिशा में प्रयास कर भी चुके हैं। मगर ये संभावनाएं सीमित हैं।

वृहद आर्थिक हालात के दृष्टिकोण से पूंजी खाते से जुड़ा खुला दृष्टिकोण से मिलने वाला लाभ बचत को निवेश से अलग बनाए रखने की क्षमता को दर्शाता है। कुछ वर्षों में भारत को लेकर आशाएं बंधी हैं। देश में घरेलू निवेश बढ़ रहा है और निवेश बचत से अधिक है। कभी-कभी हम चालू खाते का घाटा का सामना करते हैं यानी वैश्विक वित्तीय प्रणाली से पूंजी का आयात करते हैं।

इसका उलटा तब होता है जब भारत में निराशा का माहौल रहता है और निवेश बचत से कम रहता है। इस स्थिति में हम वैश्विक वित्तीय प्रणाली में पूंजी का निर्यात करते हैं। यहां पर वैश्विक वित्तीय प्रणाली से अभिप्राय विकसित लोकतांत्रिक देशों से है। इन सभी देशों में पूंजी को लेकर खुलापन है। इन देशों के संस्थान और नीति व्यवस्था संभावनाओं के आधार पर पूंजी इस्तेमाल करना या बाहर भेजने के भारत की उपयोगिता को तरजीह दे रहे हैं। इनमें ज्यादातर गतिविधियां डॉलर वाले वित्तीय अनुबंधों में होती हैं।

1990 के दशक में डॉलर में अंतरराष्ट्रीय लेन-देन समाप्त करने के लिए जापान ने एक बड़ा अभियान चलाया था। जापान ने अपने इस अभियान में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। उस समय जापान दुनिया की दूसरी अर्थव्यवस्था थी। वहां अच्छे संस्थान थे और महंगाई नियंत्रण, कराधान और पूंजी नियंत्रण के मामले में दुनिया उस पर भरोसा करती थी। अपनी मुद्रा येन को एक बड़ी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के रूप में स्थापित करने के लिए जापान ने बड़ी औद्योगिक नीतियां शुरू की थीं। मगर उनका यह प्रयास विफल रहा। इसके बाद यूरोप में यूरो का उदय हुआ।

यूरो अब एक महत्त्वपूर्ण मुद्रा बन चुकी है। कुछ मामलों में यूरोपीय संघ एक आर्थिक समूह के रूप अमेरिका को टक्कर दे रहा है। एक अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के रूप में यूरो ने अपनी खास पहचान बनाई है और दुनिया के कई दूसरे देश भी इसे अपना रहे हैं। मगर अमेरिकी डॉलर के दबदबे के बीच यूरो का वजूद अब भी कमजोर ही माना जा सकता है। चीन की सरकार ने वैश्विक स्तर पर आरएमबी को एक महत्त्वपूर्ण मुद्रा का दर्जा देने के लिए बड़े कार्यक्रमों की शुरुआत की है। मगर 1990 के दशक में जापान के इसी तरह के प्रयास की तुलना में चीन का अभियान कमजोर ही कहा जा सकता है। चीन में भी भारत की तरह ही पूंजी नियंत्रण का प्रशासनिक तंत्र है।

चीन का केंद्रीय बैंक मुख्य रूप से आरएमबी की विनिमय दर अमेरिकी डॉलर के अनुसार तय करता है। इस लिहाज से इसका अपना कोई स्वतंत्र विनिमय दर भी नहीं है। महंगाई या कराधान के प्रश्नों पर चीन के संस्थानों की गुणवत्ता विश्वास बहाल नहीं कर पाती है। टोक्यो की तरह इसके पास आकर्षक वित्तीय प्रणाली नहीं है इसलिए बाहरी निवेशक या रकम जुटाने वाले यहां अपनी गतिविधियां नहीं चला सकते हैं। इन कारणों से चीन की महत्त्वाकांक्षा पूरी होती नहीं दिख रही है।
जहां तक भारत का प्रश्न है तो दो अलग-अलग पहलू काम कर रहे हैं।

भारत अंतरराष्ट्रीयकृत वित्तीय सेवाओं के उत्पादन का प्रमुख केंद्र बन सकता है और इसे बनना भी चाहिए। इसका रास्ता पर्सी मिस्त्री की 2007 में आई रिपोर्ट ‘मुंबई ऐज एन इंटरनैशनल फाइनैंशियल सेंटर’ और न्यायमूर्ति श्रीकृष्ण की ‘वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग (2011-14)’ से होकर जाता है। इस कार्य सूची में रुपया के लिए एक अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के रूप में अपना अस्तित्व तैयार करना जरूरी नहीं है, बल्कि मौजूदा वैश्विक वित्तीय आर्थिक प्रणाली के साथ जुड़ना और इनके साथ अंतर परिचालन करना है।

रुपये की भूमिका काफी अलग मसला है। नीति-निर्धारकों को स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले की स्थिति बहाल करने की आकांक्षा रखना चाहिए जब रुपया पर भरोसा हुआ करता था और पूरे दक्षिण एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया, पश्चिम एशिया और पूर्वी अफ्रीका में इसका इस्तेमाल होता था। इसके लिए महंगाई, कराधान, पूंजी नियंत्रण और विमुद्रीकरण के विषयों पर अच्छे संस्थानों के साथ 50 साल के अनुभव वाले की जरूरत है। फरवरी 2015 में महंगाई 4 प्रतिशत तक नियंत्रित रखने पर एक संस्थागत पहल हुई थी। अब हमें 50 साल के लिए एक ऐसी व्यवस्था तैयार करनी चाहिए जिसमें महंगाई दर औसत 4 प्रतिशत रहनी चाहिए और अनिश्चितता भी कम होनी चाहिए।
(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)

First Published : July 12, 2023 | 10:00 PM IST