आग लगने की बढ़ती घटनाओं के बीच बड़े अस्पतालों ने अपने यहां सुरक्षा इंतजामों की जांच-परख तेज कर दी है। प्रमुख निजी अस्पतालों में तो आग से बचाव के लिए बेहतर इंतजाम होते हैं। हालांकि सरकारी अस्पतालों में अभी भी हालात काफी दयनीय बने हुए हैं। विशेषज्ञों ने चेतावनी देते हुए कहा है कि बीते रविवार की देर रात जयपुर में हुई घटना बताती है कि अस्पतालों का सुरक्षा ढांचा बहुत अधिक मजबूत नहीं है और घटना होने के बाद ही चीजों को दुरुस्त करने पर ध्यान दिया जाता है।
मुंबई के सैफी हॉस्पिटल के चिकित्सा निदेशक हार्दिक अजमेरा ने कहा, ‘हमारे अस्पताल में धुएं का पता लगाने वाले उपकरण, स्प्रिंकलर, हाइड्रेंट और फायर अलार्म के साथ नेक्स्ट-जनरेशन इंटेलिजेंट फायरफाइटिंग सिस्टम मौजूद है। अस्पताल इस मामले में किसी तरह की ढिलाई नहीं बरतता। नियमों का सख्ती से पालन किया जाता है और पूरी अग्निशमन प्रणाली को नियमित रूप से परखा जाता है। नैशनल एक्रेडिटेशन बोर्ड फॉर हॉस्पिटल्स ऐंड हेल्थकेयर प्रोवाइडर्स (एनएबीएच) के मानकों के अनुसार नियमित मॉक ड्रिल के माध्यम से कर्मचारियों को अग्निशमन और निकासी प्रक्रियाओं में प्रशिक्षित किया जाता है।’
आग बुझाने के लिए कई प्रमुख निजी अस्पतालों में तो इस तरह की सुविधाएं मौजूद हैं, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि पैसे की किल्लत के कारण सरकारी अस्पतालों में अभी भी वर्षों पुरानी वायरिंग है। अग्निशमन उपकरणों का रखरखाव भी बेहतर नहीं हैं और इनकी जांच-पड़ताल भी नियमित रूप से नहीं होती है।
मालूम हो कि जयपुर के सवाई मान सिंह अस्पताल के ट्रॉमा सेंटर के इंटेंसिव केयर यूनिट (आईसीयू) में आग लगने से तीन महिलाओं सहित आठ मरीजों की मौत हो गई। बताया जा रहा है कि हादसा स्टोररूम में शॉर्ट सर्किट के कारण हुआ। रिपोर्टों के अनुसार, आईसीयू के भंडारण क्षेत्र में वहां आग लगी, जहां कागज, चिकित्सा उपकरण और रक्त-नमूना ट्यूब रखे थे।
धुआं तेजी से पूरे वार्ड में फैल गया, जिससे मरीजों और कर्मचारियों में अफरा-तफरी मच गई। धुआं इतना ज्यादा था कि कर्मियों का आग बुझाना भी मुश्किल हो गया। एक दिन पहले ही अहमदाबाद में 24 घंटे के भीतर दो अस्पताल में आग लग गई। एक घटना सरदार वल्लभभाई पटेल अस्पताल तो दूसरी वृंदावन चिल्ड्रन्स अस्पताल में हुई। बताया जाता है कि दोनों ही जगह शॉर्ट सर्किट की वजह से हादसा हुआ।
इससे पहले अगस्त में नवी मुंबई के एक निजी अस्पताल में बेसमेंट में आग लग गई थी। बड़ी मशक्कत से 21 मरीजों को निकाला गया था। इसी साल अप्रैल में पूर्वी दिल्ली के एक अस्पताल में लगी आग की घटना ने भी बिजली के कारण आग लगने की घटनाओं के प्रति ध्यान दिलाया था। पूर्वी दिल्ली में ही पिछले साल मई में एक अस्पताल में आग लगने से सात नवजात शिशुओं की मौत हो गई थी।
आग लगने की इस तरह की घटनाएं अस्पतालों की अग्निशमन तैयारियों की पोल खोल देती हैं। पिछले वर्ष आई एक रिपोर्ट में पाया गया कि पिछले पांच वर्षों के दौरान अस्पतालों में आग लगने की 11 बड़ी घटनाएं हुईं, जिनमें 107 लोगों की जान चली गई। खास यह कि इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार अस्पताल के मालिकों और प्रशासकों सहित अधिकांश आरोपी या तो जमानत पर छूट गए या उन्हें किसी तरह की दंडात्मक कार्रवाई का सामना नहीं करना पड़ा।
विशेषज्ञों का कहना है कि लापरवाही या कानूनी प्रावधानों की कमी के कारण आरोपी बच निकले। प्राइमस पार्टनर्स के सह-संस्थापक और समूह मुख्य कार्यकारी अधिकारी निलय वर्मा ने कहा, ‘अस्पताल में रोगी देखभाल, आवश्यक सेवाओं और सुविधाओं के रखरखाव का लगातार पूरा ध्यान रखा जाता है। फिर भी, न चाहते हुए भी कभी-कभी अस्पताल परिसर में सुरक्षा का प्रबंधन का मामला पीछे रह जाता है।’
उन्होंने कहा, ‘अस्पतालों में व्यवस्था और सुरक्षा की समीक्षा एक अंतराल पर होती है, जिसमें सुरक्षा अलार्म में खराबी, ऑक्सीजन बंद करने में देरी, बिजली व्यवस्था के रखरखाव में कमी और आपात स्थिति से निपटने के लिए अप्रशिक्षित कर्मचारी जैसी शिकायतें सामने आती हैं। इस तरह के मामले न केवल आम हैं बल्कि निरीक्षण में लापरवाही को भी दर्शाते हैं।’
उन्होंने कहा कि अधिकांश अस्पताल सुरक्षा ऑडिट और मॉक ड्रिल को जीवन रक्षक उपायों के बजाय केवल औपचारिकता ही मानते हैं। उनका सुझाव है कि ऐसे मामलों से बेहतर तरीके से निपटने के लिए स्वतंत्र एजेंसी से सुरक्षा ऑडिट कराया जाना चाहिए और नियमित रूप से आपातकालीन मॉकड्रिल होनी चाहिए। सुरक्षा टीमें मुस्तैद रहनी चाहिए और जरूरी लाइसेंसिंग प्रक्रियाएं पूरी रहनी चाहिए। साथ ही नियमों का सख्ती से पालन किया जाए और सुरक्षा इंतजामों पर पैसा खर्च करने में कंजूसी नहीं बरती जानी चाहिए।