यद्यपि, पिछले एक महीने में शेयर बाजार में 30 पीसदी की तेजी आई है लेकिन इससे यादा खुश होकर अल्पकालीन लाभ की आशा लेकर दांव लगाने की आवश्यकता नहीं है।
निवेश के महत्वपूर्ण नियमों में से एक है वित्तीय बाजारों और वास्तविक अर्थव्यवस्था के बीच के संबंधों को समझना। अर्थव्यवस्था हमेशा आगे रहती है लेकिन समयांतराल भिन्न-भिन्न होते हैं। वास्तविक अर्थव्यवस्था में गिरावट आने से कई महीने पहले ही शेयर बाजार धराशायी हो सकता है।
सितंबर से अक्टूबर 2008 के बीच शेयर बाजार में जो कुछ भी हुआ और वास्तविक अर्थव्यवस्था की फिलहाल जो हालत है, उसे देखते हुए लगता है कि वास्तविक अर्थव्यवस्था की तुलना में शेयर बाजार के पिछड़ने में लगभग छह महीने का वक्त लग सकता है।
अक्टूबर 2008 में शेयर बाजार चार साल के न्यूनतम स्तर पर चला गया था। उस समय निफ्टी फिसल कर 2,250 अंकों पर आ गया था। हाल ही में जारी किए गए आंकडों के अनुसार औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) में फरवरी में रिकॉर्ड कमी आई है। थोक मूल्य सूचकांक लगभग स्थिर है। 28 मार्च को समाप्त हुए सप्ताह में सालाना आधार पर इसमें 0.26 प्रतिशत की बढ़त दर्ज की गई है।
पिछले उदाहरण बताते हैं कि साल 2009-10 की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन साल 2008-09 की चौथी तिमाही की तुलना में कुछ बेहतर रहेगा। अगर ऐसा होता और सुधार का क्रम बना रहता है तो वास्तविक अर्थव्यवस्था अपने निचले स्तर को छू चुकी है, वह भी बाजार के न्यूनतम स्तर पर पहुंचने के लगभग 5-6 महीने बाद।
यह मानना मुश्किल है कि अर्थव्यवस्था अपने निचले स्तर को छू चुकी है। लेकिन ऐसा संभव है कि कोई व्यक्ति इसके समर्थन के लिए वर्तमान बाजार गतिविधियों की ओर इशारा करे। पिछले महीने विदेशी संस्थागत निवेशकों की लगातार खरीदारी से बाजार में 30 प्रतिशत से अधिक की तेजी आई।
इस बढ़त के पीछे दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि पैसा जानता है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या हो रहा है और हम इस बदलाव को साल 2009-10 की दूसरी छमाही में देख पाएंगे जब अर्थव्यवस्था में तेजी का दौर शुरू होगा।
दूसरी वजह अपेक्षाकृत जटिल है। जनवरी-फरवरी में लगभग 7,000 करोड़ रुपये की बिकवाली के बाद पिछले महीने विदेशी संस्थागत निवेशकों ने भारतीय शेयर बाजार में लगभग 2,000 करोड़ रुपये लगाए थे। आम चुनाव के मद्देनजर ये 2,000 करोड़ रुपये हवाला के हो सकते हैं।
अगर ऐसा है तो शेयर बाजार की तेजी अस्थायी है और जल्दी ही मुनाफावसूली देखने को मिल सकती है। निश्चय ही, फंड का स्रोत चाहे जो भी हो, वास्तविक अर्थव्यवस्था का निचला स्तर दिखना अभी शेष है।
अगर बाजार की यह तेजी दीर्घावधि के फंड प्रवाह के कारण है तो विदेशी संस्थागत निवेशक सामूहिक रूप से हिम्मत दिखाते हुए सौदा कर रहे हैं। भारत का राजकोषीय घाटा (कारोबार, वित्तीय) खतरनाक दिखता है, निर्यात धराशायी हो गया है, मुद्रा कमजोर चल रहा है, विदेशी मुद्रा भंडार दबाव में है, घरेलू मांग में कमजोरी है और राजनीतिक स्थिति भी स्पष्ट नहीं है।
मूल्यांकन जिस स्तर पर हैं उन्हें पारंपरिक मानदंडों के आधार पर सही साबित करना कठिन है। 15 से 16 के पीई (कैलेंडर वर्ष 2008 की चार तिमाहियों पर आधारित) को सही साबित करने के लिए निफ्टी को साल 2009-10 में आय में 15 से 20 फीसदी की बढ़त दर्ज करनी होगी। पिछला अनुभव भी यह बताता है कि भारतीय बाजार का मूल्यांकन 50 फीसदी से अधिक बार 16 के पीई से कम किया गया है।
अगर किसी एक पार्टी या एक गठजोड़ को बहुमत नहीं मिला या कमजोर सरकार आती है तो नीतियां प्रभावित होंगी। बुनियादी परियोजनाएं वैश्विक मंदी से प्रभावित होती रही हैं। लेकिन इस पर कॉर्पोरेट निवेश का प्रभाव काफी कम रहा है क्योंकि विभिन्न परियोजनाएं सरकारी धन से चल रही हैं। गलत नीति या फिर नीतियों के अभाव से इन परियोजनाओं के प्रभावित होने के आसार बन सकते हैं।
यह मानते हुए कि सारी सलाह गलत साबित नहीं होंगी, साल 2009-10 एक अच्छा साल साबित होना चाहिए। वास्तविक अर्थव्यवस्था साल 2008-09 की दूसरी छमाही की तुलना में मामूली रुप से बेहतर होने की संभावना है। इसका मतलब है कि बहुत ज्यादा लाभ होने की संभावना कम है। सुधार की गति धीमी रह सकती है और यह साल ऐसा रह सकता है जिसमें शेयर की कीमतों का प्रभाव कोई नाटकीय परिवर्तन नहीं ला पाएगा।