अर्थव्यवस्था

बैंकिंग क्षेत्र में नियामक सुधारों और मजबूत गवर्नेंस की तत्काल जरूरत

अब रिजर्व बैंक और आगे की सोच के साथ काम कर रहा है। ऐसे में अंतर को उचित ठहराने के बजाय नियामक का लक्ष्य अब समय पर समस्या की बुनियादी दिक्कतों को दूर करने का है।

Published by
बीएस संवाददाता   
Last Updated- June 22, 2023 | 11:17 PM IST

अपेक्षाओं और वास्तविक नतीजों में अक्सर अंतर होता है। अगर बैंकिंग कारोबार में इस तरह का अंतर उत्पन्न होता है तो यह वित्तीय ​स्थिरता के लिए जो​खिम पैदा कर सकता है और पूरी अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकता है। ऐसे में यह महत्त्वपूर्ण है कि बैंकिंग नियामक हमेशा सतर्क रहे और तयशुदा नियामकीय ढांचे से विचलन को रोके। इस प्रक्रिया में यह भी आवश्यक है कि वह नवाचार और तकनीक अपनाने में पीछे न रह जाए।

वै​श्विक वित्तीय संकट के बाद बैंकिंग तंत्र में फंसे हुए कर्ज की जो समस्या हुई उसके लिए आं​शिक रूप से भारतीय रिजर्व बैंक को भी जिम्मेदार माना गया। ऐसा लगता है कि उसने संकट से सबक लिया है और निगरानी प्रक्रिया में सुधार कर रहा है ताकि समय पर समस्याओं का पता लगाया जा सके। इस समाचार पत्र के साथ एक साक्षात्कार में रिजर्व बैंक के निवर्तमान डिप्टी गवर्नर एम के जैन ने इस बात को रेखांकित किया कि कैसे बैंकिंग क्षेत्र में निगरानी की व्यवस्था का विकास हुआ।

अब रिजर्व बैंक और आगे की सोच के साथ काम कर रहा है। ऐसे में अंतर को उचित ठहराने के बजाय नियामक का लक्ष्य अब समय पर समस्या की बुनियादी दिक्कतों को दूर करने का है। रिजर्व बैंक अब डेटा विश्लेषण पर भी अ​धिक निर्भर है। उसका इरादा वि​भिन्न समाचारों और सोशल मीडिया पोस्ट से आने वाली सूचनाओं के विश्लेषण का दायरा बढ़ाने का भी है। नियामक ने बैंकिंग तंत्र के अंशधारकों के साथ द्विपक्षीय संचार में भी इजाफा किया है।

इससे भी अहम बात यह है कि वह निगरानी के काम में सुधार के लिए मानव संसाधन क्षमता तैयार कर रहा है। ऐसे इरादे और पहल के साथ आशा यही की जानी चाहिए कि बैंकिंग क्षेत्र की संभावित समस्याओं से समय रहते निपटा जा सकेगा। सभी जानते हैं कि बैंकिंग व्यवस्था को संकट से उबरने में काफी समय लगता है।

इसका असर अर्थव्यवस्था के उत्पादक क्षेत्रों में ऋण के प्रवाह पर भी पड़ता है जिससे वृद्धि प्रभावित होती है। यदि ​बैंकिंग तंत्र में दिक्कत उत्पन्न होती है तो बेहतरीन बैंकिंग व्यवहार और समुचित नियमन के साथ उससे बचा जाना चाहिए। बहरहाल, बेहतरीन नियामकीय इरादों के बावजूद भारत के समक्ष जो​खिम अ​धिक हैं क्योंकि हमारे यहां सरकारी बैंकों का दबदबा है। नियामक के पास निजी बैंकों की तुलना में इन बैंकों पर सीमित अ​धिकार हैं ब​ल्कि सरकारी बैंकों में अक्सर संचालन संबंधी दिक्कतें भी सामने आती हैं।

इनसे जो​खिम उत्पन्न हो सकता है। जैसा कि इस समाचार पत्र में प्रका​शित भी हुआ है कि छह सरकारी बैंकों में गैर कार्यकारी चेयरमैन नहीं हैं। कुछ मामलों में तो ये पद दो वर्ष या उससे अधिक समय से खाली हैं। दो सरकारी बैंकों में तो 2015 में चेयरमैन और प्रबंध निदेशक के पदों को अलग-अलग किए जाने के बाद से ही गैर कार्यकारी चेयरमैन नहीं है।

इसके अलावा सरकारी बैंकों में कुछ ही स्वतंत्र निदेशक हैं। ध्यान देने की बात यह है कि हाल ही में रिजर्व बैंक के निदेशक शक्तिकांत दास ने एक संबोधन में बैंकों के निदेशक मंडल से अपनी अपेक्षाओं की बात की थी। परंतु अगर बैंकों के बोर्ड में जरूरी तादाद में ऐसे निदेशक नहीं होंगे तो उसका असर बैंकों के संचालन पर पड़ेगा।

खराब संचालन और ऋण मानकों के कारण बीते दशक में सरकारी बैंकों का फंसा कर्ज काफी बढ़ा है। हालांकि ऋण संबंधी फैसलों में सरकारी हस्तक्षेप की समस्या हल हो गई नजर आती है लेकिन मौजूदा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार सरकारी बैंकों में अहम पदों पर नियु​क्ति में देरी की समस्या से नहीं निपट पा रही है।

संचालन और परिचालन दोनों ही नजरियों से यह अहम है कि बैंकों के महत्त्वपूर्ण पदों को खाली न रहने दिया जाए। इस संदर्भ में यह भी ध्यान देने लायक है कि सरकार को सरकारी बैंकों और निजी बैंकों के बीच नियामकीय मतभेदों को दूर करना चाहिए। इससे जो​खिम कम करने और बैंकिंग तंत्र को मजबूत बनाने में मदद मिलेगी।

First Published : June 22, 2023 | 11:17 PM IST