आर्थिक स्थिति की हकीकतों की तुलना में वित्तीय बाजारों के कुछ क्षेत्र तेजी से आगे बढ़ सकते हैं। इसकी वजह वैश्विक केंद्रीय बैंकों की ओर से उठाए गए प्रोत्साहन के कदम हैं। हालांकि इससे वित्तीय स्थिरता के लिए चुनौती पैदा हो सकती है।
वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट (एफएसआर) में इस तरह की चिंता को लेकर व्यापक परिप्रेक्ष्य में चेतावनी दी गई है, लेकिन भारत का सीधा उल्लेख नहीं किया गया है। हालांकि भारत में स्थिति बहुत ज्यादा अलग नहीं है। शायद यही वजह है कि भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्ति कांत दास ने इस बिंदु पर बहुत जोर दिया है। दास ने रिपोर्ट के आमुख में लिखा है, ‘वित्तीय बाजारों के कुछ क्षेत्रों में गतिविधियों और उस क्षेत्र की वास्तविक गतिविधियों के बीच अंतर बढ़ रहा है।’
एफएसआर में कहा गया है कि भारत के वित्तीय बाजार वित्तीय व मौद्रिक प्रोत्साहन की प्रतिक्रिया में व्यापक रूप से स्थिर हैं और विदेशी मुद्रा भंडार का पर्याप्त स्तर प्रतिरोधक का काम रहा है।
निश्चित रूप से नीतिगत प्रतिक्रिया का मुख्य मकसद ‘वित्तीय बाजारों के ठहराव को रोकना, वित्तीय मध्यस्थों के दुर्बल होने से रोकना और सामान्य तरीके से कामकाज सुनिश्चित रखना, खासकर कमजोर व वंचितों के लिए वित्त का प्रवाह बरकरार रखना और इसके साथ ही वित्तीय स्थिरता बनाए रखना और उसे मजबूत रखना और टिकाऊ व समावेशी विकास’ होता है। एफएसआर में कहा गया है, ‘लेकिन महामारी की वजह से वित्तीय दुर्बलता बढ़ गई है, जिसमें बहुत ज्यादा आर्थिक संकुचन की स्थिति में कॉर्पोरेट और परिवारों के कर्ज का बोझ शामिल है।’
रिजर्व बैंक ने वित्त वर्ष 2020-21 में सकल घरेलू उत्पाद में संकुचन का अनुमान लगाया है, इसके बावजूद पिछले एक महीने में बीएसई का बेंचमार्क इक्विटी सूचकांक सेंसेक्स करीब 3,000 अंक चढ़ा है।
अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक संकुचन 4 से 10 प्रतिशत तक रहने का अनुमान लगाया है और कहा है कि पहली तिमाही में जीडीपी में 10 से 20 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है क्योंकि देशव्यापी लॉकडाउन की वजह से आर्थिक गतिविधियां रेंगने लगी थीं।
केंद्रीय बैंक ने जनवरी 2019 के बाद से रीपो रेट में 135 आधार अंकों की कटौती की है और उसी के मुताबिक बॉन्ड प्रतिफल कम हुआ है। वहीं नकदी के अप्रत्याशित कदम की वजह से बॉन्ड प्रतिफल कमजोर बना हुआ है, हालांकि सिर्फ केंद्र ने ही 12 लाख करोड़ रुपये की उधारी योजना की घोषणा की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि उच्च आवृत्ति सूचकांकों से पता चलता है कि मार्च की शुरुआत से शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में मांग में तेज गिरावट आई है। इसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार के वित्त में 2020-21 के दौरान कुछ गिरावट आ सकती है क्योंकि ‘कोविड-19 से जुड़े व्यवधानों के कारण वित्तीय राजस्व बुरी तरह प्रभावित हुआ है और राजकोषीय प्रोत्साहनों के कारण व्यय का भी दबाव है।’
केंद्र से कम धन मिलने के कारण राज्यों के वित्त पर भी अतिरिक्त बोझ पड़ेगा और वे ज्यादा प्रभावित होंगे।
मार्च महीने में जहां पोर्टफोलियो प्रवाह नकारात्मक रहा था, वहीं मई और जून महीने में इसमें तेजी आई है क्योंकि प्रतिफल को देखने वाले निवेशकों ने भारत सहित उभरते बाजारों में आसान धन कमाने पर ध्यान दिया। लेकिन एफएसआर में कहा गया है कि इस धन की वजह से बाजार से हटकर सोने चांदी जैसे क्षेत्रों में निवेश की धारणा (रिस्क ऑफ) से विपरीत रुख बना है। वैश्विक वित्तीय परिदृश्य में डॉलर की कमी का भी डर है, वहीं वित्तीय प्रतिफल में गिरावट का मतलब यह होगा कि संस्थागत निवेशक जैसे निवेश फंड, पेंशन फंड, और जीवन बीमाकर्ता जोखिम वाले और ज्यादा गैर नकदी निवेश का रुख करेंगे, जिससे उन्हें लक्षित मुनाफा मिल सके।
भारत का कॉर्पोरेट क्षेत्र भी कुछ बेहतर नहीं कर रहा है। निजी कॉर्पोरेट क्षेत्र का प्रदर्शन 2019-20 की लगातार तिमाहियों में कमजोर हुआ है। वहीं कोविड-19 के कारण पिछली तिमाही में संकुचन आया है। रिजर्व बैंक के विशेष उल्लिखित खाते के विश्लेषण में पाया गया है कि ज्यादातर कमजोर कंपनियां एए रेटिंग से नीचे वाली हैं।
साल के दौरान 1,640 सूचीबद्ध गैर वित्तीय कंपनियों की नॉमिनल बिक्री और शुद्ध मुनाफे में पिछले साल की तुलना में 3.4 प्रतिशत गिराट आई है, जिसमें 10.2 प्रतिशत की गिरावट सिर्फ चौथी तिमाही में आई है। ऐसी स्थिति तब रही, जब सितंबर 2019 में कॉर्पोरेट कर की दरों में कटौती की गई और कर की प्रभावी दरें 2019-20 में पिछले साल की तुलना में 3 प्रतिशत के करीब नीचे लाई गईं। इसके अलावा एफएसआर में कहा गया है, ‘खराब प्रदर्शन का नेतृत्व विनिर्माण क्षेत्र मेंं किया और सेवा क्षेत्र की कंपनियां, खासकर आईटी क्षेत्र लाभ में बना रहा।’
2019-20 की दूसरी छमाही में निजी कॉर्पोरेट क्षेत्र की हाल के वर्षों की डिलिवरेजिंग ठहर गई, क्योंकि ज्यादा उधारी की वजह से कर्ज और संपत्ति का अनुपात बढ़ा है। एफएसआर में कहा गया है कि बढ़ी हुई उधारी का इस्तेमाल वित्तीय संपत्तियों के सृजन में हुआ था, न कि पूंजीगत सृजन में किया गया। इसकी वजह से बैंकों ने जोखिम से बचने की कवायद शुरू की और 2019-20 के दौरान थोक कर्ज में वृद्धि 2.79 प्रतिशत ही रही। बैंकों ने खुदरा पर ज्यादा भरोसा किया, जहां वित्त वर्ष के आखिर में कर्ज में 6.1 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई।