उद्योग विशेषज्ञों ने गुरुवार को बिजनेस स्टैंडर्ड इन्फ्रास्ट्रक्चर समिट 2025 में कहा कि भारत के शहरी बुनियादी ढांचे की योजना को लागत गणना और गति के महज आकलन तक सीमित नहीं किया जा सकता। हालांकि भारत के अधिकांश शहरों की योजना काफी सुनियोजित थी, फिर भी तेजी से विकास (खासकर 1991 के बाद) मौजूदा बुनियादी ढांचा प्रणालियों, नीतियों और नियमों से कहीं आगे निकल गया है।
बिजनेस स्टैंडर्ड के ध्रुवाक्ष शाह द्वारा संचालित पैनल चर्चा में उद्योग जगत के अधिकारियों ने सामूहिक रूप से इस बात पर जोर दिया कि भारत में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं या धन की कमी नहीं है, लेकिन क्रियान्वयन की गति अक्सर गुणवत्तापूर्ण नियोजन की कीमत पर आती है। राइट्स के अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक (एमडी) राहुल मिथल ने कहा, बुनियादी ढांचे के तीन तत्वों (योजना, रकम का इंतजाम और क्रियान्वयन) में से योजना इसका मुख्य हिस्सा है। उन्होंने कहा, 500 करोड़ रुपये की बुनियादी ढांचा परियोजनाएं हैं, लेकिन इनके लिए विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) लगभग 1 करोड़ रुपये से 1.5 करोड़ रुपये तक की होगी। यही वजह है कि कभी-कभी किसी बुनियादी ढांचा परियोजना में इसे सबसे कम महत्व दिया जाता है।
उन्होंने कहा कि दो पैकेट प्रणाली के माध्यम से विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) के ठेके देने के बजाय उद्योग को गुणवत्ता और लागत-आधारित चयन (क्यूसीबीएस) पद्धति अपनानी चाहिए, जो विशेषज्ञता और लागत के बीच संतुलन बनाती है। ध्रुवाक्ष शाह के सवालों का जवाब देते हुए मिथल ने बताया कि देश में लगभग 50 से 55 फीसदी संस्थान वास्तव में गुणवत्ता के आधार पर या क्यूसीबीएस पर डीआरपी योजनाकारों पर काम करते हैं।
इन्फ्राविजन फाउंडेशन के मुख्य कार्याधिकारी जगन शाह ने कहा, भारत को इस क्षेत्र में केवल वृद्धिशील प्रावधानों की नहीं बल्कि भविष्य की दृष्टि से प्रेरित दूरदर्शी नियोजन की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि शहरी नियोजन में तकनीकी बदलावों और सेवा वितरण में बदलावों का पहले से अनुमान लगाना होगा, जिसमें स्वच्छता से लेकर गतिशीलता तक स्थानीय रूप से अनुकूलनीय, किफायती नवाचारों की प्रबल मात्रा शामिल हो।
अन्य पैनलिस्टों की बातों से सहमति जताते हुए ईवाई में निवेश बैंकिंग पार्टनर और इन्फ्रास्ट्रक्चर लीडर कुलजीत सिंह ने कहा, खरीद की चुनौती सिर्फ निर्णय लेने के डर से कहीं ज्यादा गहरी है। टीम की गुणवत्ता को महत्व देने जैसे मानदंड मौजूद होने पर भी अधिकारी अक्सर इसे जरूरत से ज्यादा बारीक स्तर पर तोड़-मरोड़ देते हैं। यह न सिर्फ डर बल्कि आत्मविश्वास की कमी को भी दर्शाता है। वास्तव में अधिकारी दिमागी इस्तेमाल से बच नहीं सकते। हमें उद्योग-अकादमिक जगत के बीच मजबूत सहयोग की ज़रूरत है, जो मान्यता और मानक प्रदान करे, जिससे निर्णयकर्ताओं को सही फैसला लेने का आत्मविश्वास मिले। कागज़ों पर वित्तीय नियमावलियां पहले से ही पैसे के मूल्य पर जोर देती हैं, लेकिन वास्तविकता में यह तरीका कमजोर है।
विकसित भारत के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उद्योग को कठोर खरीद प्रक्रिया से आगे बढ़कर स्विस चैलेंज जैसे अधिक चुस्त तरीकों की ओर बढ़ना होगा, जिसके लिए उद्योग फिलहाल तैयार नहीं है। सिंह ने कहा कि बुनियादी ढांचा उद्योग के पास विकसित भारत के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए केवल एक दशक का समय है। इसलिए इस बात की व्यापक समीक्षा की आवश्यकता है कि क्या उद्योग के संगठनों, कंपनियों, संस्थानों और सरकारी विभागों में ऐसी प्रणालियां हैं, जो इस क्षेत्र के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक हैं। रकम के इंतजाम को लेकर सिंह ने कहा कि भारत में 99 फीसदी परियोजनाओं को रकम मिल जाती है। इनमें से राजमार्ग परियोजनाओं को आसानी से रकम मिलती है क्योंकि विभिन्न बैंक राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के समर्थन के कारण इसे प्राथमिकता देते हैं।