भारतीय कृषि बीमा कंपनी (एआईसी) की चेयरमैन एवं प्रबंध निदेशक डॉ. लावण्या आर मुंडयूर
नरेंद्र मोदी सरकार की महत्त्वाकांक्षी प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) के करीब 10 वर्ष पूरे होने पर भारतीय कृषि बीमा कंपनी (एआईसी) की चेयरमैन एवं प्रबंध निदेशक डॉ. लावण्या आर मुंडयूर ने हर्ष कुमार और संजीव मुखर्जी को नई दिल्ली में साक्षात्कार दिया था। उन्होंने मोदी सरकार की फसल बीमा की इस अहम योजना के प्रदर्शन, उसके सबक और सुधार की आवश्यकताओं वाले क्षेत्रों पर अपने विचार साझा किए। उन्होंने एआईसी के रोडमैप और व्यवसाय विस्तार की योजनाओं पर भी चर्चा की। पेश हैं मुख्य अंश:
व्यवसाय का प्रमुख हिस्सा प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना है। इसे किस दिशा में आगे बढ़ते हुए देखती हैं?
हमारे पोर्टफोलियो का महत्त्वपूर्ण हिस्सा प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना बनी हुई है। इस योजना में शामिल किए गए किसानों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। पहले ऋण नहीं लेने वाले किसानों की भागीदारी भी बढ़ रही है। कुल मिलाकर व्यवसाय कुछ सपाट है।
क्या सदस्यता प्राप्त करने की लागत है और प्रीमियम की प्रवृत्ति कैसी है?
ज्यादातर राज्यों ने सीमाएं तय करने के सकारात्मक परिणामों के कारण प्रीमियम दरें घट रही हैं। अभी आपको ज्यादातर स्थानों पर 81:10 या 61:30 जैसे मॉडल देखने को मिलेंगे। पूरी तरह से खुला प्रीमियम मॉडल अब लगभग अस्तित्व में नहीं है। राज्य बर्न-कॉस्ट मॉडल का प्रयोग कर रहे हैं, लेकिन मूल्य निर्धारण ढांचा गतिशील बना हुआ है।
यदि उत्पाद इतना अच्छा है तो इससे दायरा क्यों नहीं बढ़ रहा है?
यही मूल मुद्दा है। हमें अब योजना में लगभग एक दशक हो गया है, लेकिन कवरेज किसानों और क्षेत्र दोनों के मामले में स्थिर हो गया है। इसमें निरंतर ढंग से फसल लगाने वाले किसानों की हिस्सेदारी लगभग 8 करोड़ है। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के दायरे में लाने वाले किसानों की संख्या बहुत अधिक होनी चाहिए।
विरोध या चुनौती क्या हैं?
मैं इसे विरोध नहीं कहूंगी। यह पारिस्थितिकी तंत्र की जटिलताओं के बारे में अधिक है। हम बैंकों और अन्य मध्यस्थों पर निर्भर हैं। फसल बीमा संवेदनशील कारोबार है, जिसमें कई गतिशील हिस्से हैं।
क्या आपको लगता है कि योजना को स्वैच्छिक बनाना गलती थी?
नहीं, मुझे ऐसा नहीं लगता। हमारे जैसे पारिस्थितिकी तंत्र में स्वैच्छिकता आवश्यक है। वैश्विक स्तर पर भी फसल बीमा ज्यादातर स्वैच्छिक है। हम भारत की सीधे तौर पर अन्य बाजारों से तुलना नहीं कर सकते हैं। दरअसल जब कृषि आबादी मुख्य रूप से छोटे और सीमांत किसानों की है तो सैद्धांतिक रूप से सार्वभौमिक भागीदारी चुनौतीपूर्ण है।
क्या यह बेहतर होता कि यदि राज्य राष्ट्रीय योजना के बजाए अपनी योजनाएं बनाते?
मेरा मानना है कि बुनियादी जोखिम के दायरे के लिए एकल राष्ट्रीय योजना सबसे अच्छा दृष्टिकोण है। फिर राज्य अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप अतिरिक्त सुविधाएं जोड़ सकते हैं। वैसे भी प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना पूरी तरह से केंद्रीय योजना नहीं है – केंद्र लगभग 50 प्रतिशत सब्सिडी प्रदान करता है। हमें मूल्यांकन करना चाहिए कि क्या मुख्य रूप से केंद्र के धन मुहैया कराने का मॉडल बेहतर काम करेगा।
क्या केंद्र से 100 प्रतिशत धन मुहैया कराने की योजना का सुझाव हैं?
शायद 100 प्रतिशत नहीं, लेकिन मुख्य रूप से केंद्र के धन मुहैया कराने पर हो। इससे अर्थव्यवस्था का आधार बढ़ने (इकॉनमिज ऑफ स्केल) से फायदा, जोखिम की विविधता और व्यापक दायरा मिलेगा। ऐसे किसान उत्पादन अधिक खरीदारी कर रहे हैं जो बीमा करने का दावा करने की उम्मीद करते हैं। हालांकि अगर मूल्य निर्धारण काफी कम है और सार्वभौमिक रूप से लागू है तो आप जोखिम पूल को बढ़ाते हैं। सभी के लिए प्रीमियम को किफायती बनाते हैं।
क्या प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के प्रदर्शन का आगे मूल्यांकन किया जाना चाहिए?
निश्चित रूप से। मुझे लगता है कि जैसे कि अमेरिका में किया जाता है,वैसे ही एक तीसरे पक्ष की इकाई को विश्लेषण करना चाहिए। अमेरिका में स्वतंत्र निकाय राष्ट्रीय स्तर पर फसल बीमा दरें निर्धारित करता है।