इसमें दोराय नहीं कि आईटी और बीपीओ कंपनियों के रास्ते में साल कांटे ही रहेंगे।
इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि उद्योग का भट्ठा बैठ जाएगा या कंपनियों पर ताले लग जाएंगे।
दरअसल कारोबारी इजाफा तो 2009 में भी होगा, लेकिन आईटी कंपनियां 35 और 40 फीसदी की जिस आंकड़े के साथ इजाफा करने की आदी थीं, वह दौर अब नहीं दिखेगा। अगले साल बमुश्किल 15 फीसदी कारोबारी इजाफा ही दिखने की संभावना है।
रही सौदों की बात, तो कंपनियों को पुराने ग्राहकों से सौदे तो मिलेंगे, लेकिन अब नामी कंपनियों के लिए भी चुटकियों में सौदे हासिल करना आसान नहीं होगा। ग्राहक कंपनी चुनने में दिमाग लगाएगा।
मतलब साफ है, सौदों में देर होगी। अब आईटी कंपनियों को भी ग्राहकों पर ध्यान देना होगा, उनकी प्रतिष्ठा उन्हें सौदे नहीं दिलाएगी।
जो कंपनी ग्राहक के साथ बेहतर रिश्ते बनाएगी, उसे फायदा होगा। ग्राहक यह भी देखेगा कि किस कंपनी के साथ जुड़ने से उसे ज्यादा फायदा होगा। आप कह सकते हैं कि 2009 में मैदान लंबी रेस के घोड़ों का होगा यानी जिसमें ज्यादा क्षमता होगी, वही कंपनी टिक सकेगी।
विलय-अधिग्रहण से कंपनियां तौबा ही करेंगी क्योंकि कुछ के लिए तो अस्तित्व बचाने की नौबत तक आ जाएगी। यदि ऐसा होता भी है, तो कंपनी फूंक-फूंककर कदम रखेगी क्योंकि नकदी का संकट है।
कर्मचारियों की बात करें, तो छंटनी के पूरे आसार हैं और वेतन में इजाफा भी पहले की तरह नहीं होगा। कंपनियां पैसा बांटने में यथार्थवादी रवैया अपनाएंगी। जो काम करेगा, उसकी तनख्वाह बढ़ेगी, बाकी का वेतन शायद ही बढ़े।
अमेरिका में बराक ओबामा से भी भारतीय आईटी-बीपीओ को नुकसान नहीं होना चाहिए। सत्ता हासिल करने के रास्ते अलग होते हैं और उसे चलाने के अलग। अमेरिका के लिए मंदी में तो सस्ती आउटसोर्सिंग और जरूरी हो जाएगी। इसलिए मुझे नहीं लगता कि ओबामा सरकार से आने से आईटी कंपनियों पर फर्क पड़ेगा।
(बातचीत : ऋषभ कृष्ण)