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भारतीय संघ को बेहतर बनाने की जरूरत

Indian Union: देश के विभिन्न राज्यों में आय का स्तर भिन्न होने से यह असंतोष और बढ़ सकता है। मगर यह केवल उत्तर-दक्षिण का मामला नहीं है बल्कि गरीब बनाम अमीर राज्यों का मसला है।

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अजय छिब्बर   
Last Updated- May 14, 2024 | 9:06 PM IST

यह विचार कि दक्षिणी राज्य बेहतर प्रदर्शन की कीमत चुका रहे हैं, भारतीय संघ का हिस्सा होने से मिलने वाले लाभों की अनदेखी करता है। बता रहे हैं अजय छिब्बर

दक्षिण भारत के राजनीतिज्ञों और टिप्पणीकारों के बीच इन दिनों यह बहस तेज हो गई है कि भारतीय संघ में दक्षिणी राज्यों को उचित अहमियत नहीं मिल रही है। उनका तर्क है कि दक्षिणी राज्यों की संपन्नता का दोहन हो रहा है और उनके आर्थिक संसाधन तुलनात्मक रूप से कमजोर उत्तरी राज्यों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अंतरित किए जा रहे हैं।

उनका यह भी कहना है कि प्रत्येक 1 रुपये के कर भुगतान में कर्नाटक को मात्र 15 पैसे और तमिलनाडु को 29 पैसे मिल रहे हैं जबकि इनकी तुलना में उत्तर प्रदेश को 2.73 रुपये और बिहार को 7.06 रुपये मिल रहे हैं।

उनका कहना है कि बेहतर आर्थिक प्रबंधन के बावजूद दक्षिणी राज्यों को नुकसान उठाना पड़ रहा है जबकि आर्थिक रूप से कमजोर उत्तरी राज्यों को राजकोषीय अंतरण के जरिये उनके योगदान से कहीं अधिक आर्थिक संसाधन भेजे जा रहे हैं।

देश के विभिन्न राज्यों में आय का स्तर भिन्न होने से यह असंतोष और बढ़ सकता है। मगर यह केवल उत्तर-दक्षिण का मामला नहीं है बल्कि गरीब बनाम अमीर राज्यों का मसला है। महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा और दिल्ली जैसे राज्य अधिक योगदान देते हैं। जो राज्य केंद्रीय कोष में योगदान के बाद शुद्ध रूप से लाभ में रहते हैं, उनमें असम, ओडिशा और पश्चिम बंगाल जैसे पूर्वी राज्य शामिल हैं।

यूरोपीय संघ (EU) जैसे आर्थिक संघों में भी ऐसी ही शिकायतें सुनी जाती हैं। ईयू में आर्थिक रूप से धनी उत्तरी देश जैसे जर्मनी, नीदरलैंड्स, स्वीडन और डेनमार्क को लगता है कि वे दक्षिणी यूरोप के देशों जैसे ग्रीस, पुर्तगाल और स्पेन और कम संपन्न पूर्वी यूरोप के देशों के लिए जरूरत से अधिक योगदान कर रहे हैं। हालांकि, ये देश अब आर्थिक रूप से अधिक संपन्न हो गए हैं मगर उन्हें अब भी मदद की जरूरत है।

ब्रिटेन को भी ईयू कोष में अधिक अंशदान करना पड़ रहा था और यही वजह थी कि वह ईयू से अलग हो गया। यह अलग बात है कि वह ईयू से निकलने के अपने निर्णय पर पछता रहा है।

मगर राजकोषीय अंतरण से ही केवल बात नहीं बनती है और यह भारत सहित किसी भी संघ के हित में भी नहीं है। औद्योगिक रूप से अधिक प्रगतिशील, धनी देशों के लिए ईयू एक बड़ा बाजार है जिसमें वे अपने उत्पाद बेच पाते हैं। जिन देशों ने अपनी मुद्रा के रूप में यूरो को अपनाया है उन्हें एक बड़ा फायदा यह मिलता है कि उनके श्रमिक कम लागत पर (श्रम उत्पादकता की तुलना में) उपलब्ध रहते हैं जबकि स्पेन, ग्रीस और पुर्तगाल जैसे देशों में यह तुलनात्मक रूप से अधिक महंगे हो जाते हैं।

बर्टेल्समैन स्टिफ्टंग फाउंडेशन के अनुसार जर्मनी की आर्थिक वृद्धि दर यूरो के कारण प्रति वर्ष 0.5 फीसदी अधिक थी। ऑस्ट्रिया और नीदरलैंड्स और यहां तक कि डेनमार्क (जो ईयू का हिस्सा नहीं है मगर यह अपनी मुद्रा क्रोन को यूरो से जोड़कर रखता है) को भी यह फायदा मिल रहा है।

इस तरह, ईयू के धनी देश राजकोषीय स्थानांतरण के जरिये आर्थिक रूप से कमजोर देशों की मदद करते हैं मगर इसके बाजार के कारण वे फायदे में रहते हैं। मुद्रा सस्ती रहने से वैश्विक बाजार में इन देशों को निर्यात के मोर्चे पर अधिक फायदा मिलता है।

भारतीय संघ में भी सर्वाधिक संपन्न राज्यों को ऐसे ही लाभ मिलते हैं। ऐसे राज्य केवल देश के दक्षिणी हिस्से में ही नहीं हैं बल्कि इनमें गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और सिक्किम भी आते हैं।

बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे गरीब राज्यों की तुलना में इन राज्यों में श्रम उत्पादकता तीन से चार गुनी अधिक है। इससे ये धनी राज्य देश के अन्य राज्यों की तुलना में आर्थिक रूप से अधिक सशक्त हो जाते हैं। इससे अधिक निवेश आता है और आर्थिक वृद्धि की रफ्तार भी तेज हो जाती है।

इन सभी कारणों से धनी और गरीब राज्यों के बीच समानता स्थापित करना और कठिन हो जाता है। इन धनी राज्यों में एक ऐसा बाजार भी उपलब्ध होता है जो वस्तु एवं सेवा कर (GST) लागू होने के बाद और अधिक मजबूत हो गया है।

ईयू में निःशुल्क आंतरिक आवागमन का लाभ मिलता है। ईयू की तरह भारत में भी गरीब राज्यों से धनी राज्यों की ओर पलायन से मजदूरों को भी फायदा मिलता है क्योंकि उन्हें निर्माण एवं कृषि क्षेत्र में अधिक पारिश्रमिक मिलता है। दूसरी तरफ जिन राज्यों में ये मजदूर जाते हैं उन्हें भी लाभ मिल जाता है।

प्रवासी मजदूर वे काम करते हैं जो स्थानीय संपन्न लोग करने से कतराते हैं। हालांकि इसका लाभ यह होता है कि स्थानीय लोग अधिक हुनर एवं आर्थिक लाभ वाले रोजगारों की तरफ रुख करते हैं। रोजगार सिर्फ स्थानीय लोगों तक सीमित करने से, जैसा कि कई राज्य चाहते हैं, सार्वजनिक हित को नुकसान होगा, न कि फायदा।

किसी संघ में अर्थव्यवस्थाएं तनाव बढ़ने का कारण नहीं बनती हैं। ईयू से ब्रिटेन के निकलने के आर्थिक कारण नहीं थे। भारतीय संघ के लिए एक खतरनाक- उत्तर और दक्षिण के बीच बढ़ती दूरी के साथ यह स्थिति और भी भयावह बनती जा रही है- बात यह है कि उसने 1991 की जनगणना के बाद संसदीय सीटों का राज्यवार वितरण नहीं किया है।

वर्ष 2026 के बाद सीटों का परिसीमन करना वैधानिक रूप से अनिवार्य हो जाएगा। इसका मतलब यह होगा कि वास्तविक सीटों और जिनका आवंटन किया जाएगा उनके बीच असमानता काफी बढ़ जाएगी (अगर आबादी के आधार पर इनका वितरण किया जाता है तो)।

राजनीतिक-अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञ मिलन वैष्णव का कहना है कि दक्षिण की तुलना में उत्तर भारत में आबादी में अधिक तेजी से बढ़ोतरी से बिहार, उत्तर प्रदेश के साथ मध्य प्रदेश, झारखंड और राजस्थान में 30 सीट बढ़ जाएंगी। बिहार और उत्तर प्रदेश का पहले ही संसद में सीटों के लिहाज से दबदबा है।

दक्षिण भारतीय राज्यों, ओडिशा और पश्चिम बंगाल को नुकसान उठाना होगा। इसके कुछ समाधान खोजे जा सकते हैं, मसलन संसद में सीटों की संख्या बढ़ाई जा सकती है, बड़े राज्यों का विभाजन किया जा सकता है या लोक सभा का गणित संतुलित करने के लिए छोटे राज्यों को राज्य सभा में और सीट दी जा सकती हैं। भारत को 2026 से 2030 के बीच इस चुनौती का सामना करना होगा।

इस बीच, 16वें वित्त आयोग के समक्ष राजकोषीय वितरण की चुनौती है। मगर भारतीय संघ के साथ बने रहने पर आने वाली लागत एवं लाभों पर वाद-विवाद के बीच दक्षिण भारत सहित देश के धनी राज्यों को यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि शुद्ध राजकोषीय वितरण के जरिये गरीब राज्यों को आर्थिक संसाधन देने के साथ-साथ उन्हें भी भारतीय संघ से कई लाभ मिलते हैं।

गरीब राज्यों को अधिक रकम मिलने के बावजूद धनी एवं गरीब राज्यों के बीच अंतर बढ़ता जा रहा है। भारत को इस वास्तविक चुनौती का अवश्य सामना करना चाहिए। गरीब राज्यों में अधिक निवेश लाने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे में सुधार जरूरी है।

बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों में शुद्ध राजकोषीय अंतरण से इन असमानता को दूर कर ही पूरे देश में अधिक समावेशी विकास सुनिश्चित किया जा सकता है। इससे 2047 तक भारत एक संघ के रूप में और मजबूत हो जाएगा।

(लेखक एनआईपीएफपी, नई दिल्ली के अतिथि प्राध्यापक रहे हैं)

First Published : May 14, 2024 | 9:06 PM IST