आम चुनाव में अब एक साल से थोड़ा अधिक समय ही बचा है। गुजरात की एक अदालत द्वारा राहुल गांधी को लोकसभा की सदस्यता के अयोग्य ठहराए जाने से विपक्ष और सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के बीच विभाजन की लकीरें और गहराया जाना अब लगभग तय है।
पीठासीन अधिकारियों की कार्रवाई और राज्य सभा में एक ही पार्टी के कई सांसदों को निलंबित किए जाने से उत्पन्न तनाव के बावजूद शासन के मुद्दे पर अब तक द्विपक्षीय समझौते की झलक मिली है।
उदाहरण के तौर पर तृणमूल कांग्रेस के सांसदों को राज्यसभा में उनके व्यवहार को लेकर एक सत्र के लिए निलंबित कर दिया गया था, लेकिन तृणमूल पार्टी के सांसद उपराष्ट्रपति के चुनाव के मतदान से अनुपस्थित रहे, जिससे राजग उम्मीदवार जगदीप धनखड़ को भारी अंतर से जीत मिली। लेकिन अब हालात बदल गए हैं। भारतीय जनता पार्टी द्वारा दिए गए अधिकांश प्रस्तावों का स्पष्ट विरोध होने की संभावना है जिससे संसद में कानून बनाने के साथ ही शीर्ष पदाधिकारियों की नियुक्ति को भी सबसे पहले नुकसान होगा।
कांग्रेस सदस्य मनीष तिवारी ने चीन के साथ सीमा पर झड़पों के मामले को सरकार को संसद के समक्ष तथ्य रखने के लिए लोकसभा में बार-बार स्थगन प्रस्ताव पेश करने की कोशिश की है। उन्हें इसके लिए रोका भी गया। उन्होंने बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा, ‘यह देखना होगा कि (सरकार और विपक्ष के बीच) कोई सहयोग होगा या नहीं या यहां तक कि सहयोग की संभावना भी है या नहीं।’ इसकी पहली परीक्षा 27 मार्च को हुए लोक लेखा समिति (पीएसी) के सदस्यों के चुनाव के साथ होगी। पीएसी सदस्यों का कार्यकाल एक साल का होता है और समिति को भारत सरकार के खर्च के लिए संसद द्वारा आवंटित की गई राशि के खातों की जांच का काम सौंपा गया है।
भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट अक्सर पीएसी जांच का प्रारंभिक बिंदु होती है। 1960 के दशक से पीएसी के अध्यक्ष हमेशा विपक्ष के नेता रहे हैं। इसका चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व के माध्यम से होता है। इसके लिए 22 सदस्य चुने जाते हैं, जिसमें 15 लोकसभा से और सात राज्यसभा से होते हैं। इस साल चुनाव राहुल गांधी को लोकसभा की सदस्यता से अयोग्य ठहराए जाने के बाद होगा।
ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि विपक्ष और सत्तारूढ़ पार्टी अपने वोट का उपयोग कैसे करती है, विशेष रूप से दूसरी वरीयता के वोट के मामले में। बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी है कि निष्क्रिय संसद में भी विपक्ष नीति-निर्माण में कितना प्रभाव डालता है। यह प्रभाव विभाग की स्थायी समितियों के माध्यम से डाला जाता है जहां विपक्ष और सत्ता पक्ष के सांसद कानून बनने से पहले नीति और कानूनों की जांच करते हैं।
इनमें से कई बैठकें विवादास्पद रही हैं जैसे कि व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक के मसौदे पर संयुक्त संसदीय समिति ने अंतिम रिपोर्ट के साथ कई असहमति नोट संलग्न किए हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि सरकार ने विधेयक के मसौदे में पूरी तरह से बदलाव किया।
समितियों का कामकाज, विशेष रूप से विधेयकों या नीतिगत बदलावों पर व्यापक परामर्श की दिशा भी तय करता है। इस विचार-विमर्श में दल-बदल विरोधी कानून शामिल नहीं है। ऐसे में राजनीतिक दल सार्वजनिक रूप से अलग रुख और समिति में दूसरा रुख अपनाने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि यह प्रक्रिया नीति निर्माण की प्रक्रिया को समृद्ध करती है।
उदाहरण के तौर पर सरकार और विपक्ष के बीच सहयोग ने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के बेहद परिष्कृत संस्करण लाने में अहम भूमिका निभाई और जिससे 1986 के कानून को बदल दिया गया। खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों की समिति द्वारा विधेयक के पुराने संस्करण की जांच के बाद ही उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 पारित किया गया था। समिति ने जुर्माने में वृद्धि सहित कई संशोधनों की सिफारिश की थी। सरकार ने इनमें से अधिकांश को स्वीकार किया और 2019 अधिनियम में इन्हें शामिल किया गया। स्वास्थ्य से जुड़ी स्थायी समिति की कई सिफारिशों को 2019 के कानून में शामिल किए जाने के बाद राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक, 2017 में भी कई बदलाव देखे गए।
एक और चुनाव है जिसको लेकर फिलहाल सरकार में कोई चर्चा नहीं हो रही है और वह लोकसभा के उपाध्यक्ष पद का जो लगभग चार वर्षों से खाली पड़ा है। सत्ता पक्ष का कहना है कि तत्काल इस चुनाव की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि विधेयक पारित भी किए जा रहे हैं और सदन में चर्चा भी हो रही है। एक मंत्री ने तर्क दिया कि ‘नौ सदस्यों का एक पैनल है जो लोकसभा अध्यक्ष की सहायता के लिए सभापति के रूप में कार्य कर सकता है।’
कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश कहते हैं, ‘पिछले चार सालों से लोकसभा में कोई उपाध्यक्ष नहीं है। यह असंवैधानिक है। मार्च 1956 का ही एक उदाहरण देखिए जब नेहरू ने इस पद के लिए विपक्षी अकाली दल के सांसद और अपने आलोचक, सरदार हुकम सिंह का नाम प्रस्तावित किया था और उन्हें सर्वसम्मति से चुना गया था।’
उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका लंबित है। जिन संवैधानिक पदों पर विपक्ष के साथ संयुक्त रूप से विचार-विमर्श की आवश्यकता होती है उनमें से एक को छोड़कर सभी को भर दिया गया है जो लोकपाल का पद है जिसके पास प्रधानमंत्री सहित किसी के भी खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच करने की शक्ति है। मई 2022 से केवल एक कार्यवाहक लोकपाल हैं। सरकार का कहना है कि लोकपाल की नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू हो गई है। विपक्ष नए लोकपाल की नियुक्ति में सरकार के साथ कितना सहयोग करेगा, यह देखना होगा।