चीन ने हाल में अपनी वित्तीय नियामकीय संरचना में बदलाव किए हैं जिनमें स्पष्ट कर दिया गया है कि किस एजेंसी का क्या कार्य होगा। भारत को भी अब इस ओर ध्यान देना चाहिए। बता रहे हैं के पी कृष्णन
वित्तीय नियामकीय संरचना का प्रश्न मूल रूप से इस बात से संबंधित है कि कौन सी वित्तीय एजेंसियां होनी चाहिए और उनके निर्धारित कार्य क्या होने चाहिए। यह महत्त्वपूर्ण विषय है क्योंकि प्रदर्शन अंततः उत्तरदायित्व के निर्धारण से ही तय होता है।
प्रत्येक वित्तीय एजेंसी के प्रदर्शन की जवाबदेही तय करने के लिए सरल एवं स्पष्ट निर्देश की जरूरत होती है। इसके अलावा वित्तीय आर्थिक नीति में कई पहलू होते हैं जहां कुछ दायित्व एक साथ रखे जाने से हितों का टकराव प्रदर्शन पर असर डाल सकता है।
वित्तीय नियामकीय संरचना में सुधार अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है मगर इस तरह का कोई प्रस्ताव मौजूदा अधिकारियों से सीधे प्रतिरोध को नियंत्रण देता है। अफसरशाही राजनीति का मूल नियम यह है कि अधिकार एवं दायरे का सदैव विस्तार होते रहना चाहिए।
अगर एजेंसियों के मौजूदा अधिकारी अपने संबंधित अधिकारों में किसी तरह की कमी किए जाने का विरोध करते हैं तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। मगर समाज को इसके लिए कुछ कीमत चुकानी पड़ती है।
सार्वजनिक ऋणों का प्रबंधन करने वाला केंद्रीय बैंक कम ब्याज दर के लिए प्रयत्न (सरकार के लिए सस्ती रकम का प्रबंध) करता है। महंगाई दर निश्चित दायरे में नहीं रख पाने का उसके पास यह एक पर्याप्त बहाना होता है। विफल बैंकों का कारोबार समेटने की प्रक्रिया की निगरानी कर रहा बैंकिंग नियामक इस प्रक्रिया को आगे खिसका कर अपनी नियामकीय विफलता छुपाने की कोशिश करेगा। जब वित्तीय स्थिरता का दायित्व और बैंकों का नियमन एक ही एजेंसी के पास होते हैं तो समस्या और बढ़ जाती है।
वैश्विक स्तर पर यह धारणा प्रबल हो रही है कि एक ऐसा केंद्रीय बैंक हो जा केवल महंगाई नियंत्रित करने पर ध्यान दे वित्त से जुड़े कार्यों से दूर रहे। इन दिनों वित्तीय नियमन पर आम राय यह है कि एक एकल एकीकृत वित्तीय नियामक होना चाहिए या एक ऐसी दो इकाइयों वाली व्यवस्था होनी चाहिए जिसमें एक उपभोक्ता सुरक्षा पर ध्यान दे जबकि दूसरी पूरी सूझ-बूझ के साथ नियमन पर ध्यान दे।
इसके साथ-साथ हमें एक अलग से सार्वजनिक ऋण प्रबंधन एजेंसी, एक पृथक वित्तीय समाधान संगठन, एक उपभोक्ता शिकायत निवारण एजेंसी और अपील सुनने के लिए एक पंचाट की आवश्यकता है।
भारत में एजेंसी ढांचे में सुधार की शुरुआत 2007 में पर्सी मिस्त्री समिति के साथ हुई। समिति ने कहा, ‘नियामकीय ढांचे में सुधार की दिशा में एक प्रमुख कार्य यह होगा कि सभी संगठित वित्तीय कारोबार (मुद्रा, बॉन्ड, शेयर, कॉर्पोरेट बॉन्ड, जिंस डेरिवेटिव चाहे एक्सचेंज ट्रेडेड हो या ओटीसी आधारित) से जुड़े नियामकीय एवं निगरानी कार्य सेबी को दिए जाएं।’
इसके लिए कानून के सभी पहलुओं को एक जगह करना जरूरी है जो इस समय कई अधिनियमों के अंतर्गत बंटे हैं। सितंबर 2008 में नीति आयोग द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समिति ने सुझाव दिया था कि नियामकीय अस्थिरता, त्रुटियां, अधिकारों के टकराव और विवाद आदि दूर करने के लिए नियामकीय संरचना दुरुस्त किया जाना चाहिए।
समिति ने कहा कि इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए नियामकों की संख्या में कमी की जानी चाहिए और जहां भी संभव हो कार्यों र्के संदर्भ में उनके अधिकार क्षेत्रों को परिभाषित किया जाना चाहिए। समिति ने यह भी महसूस किया कि केंद्रीय स्तर पर नियमन एवं निगरानी व्यवस्था का एकीकरण समझदारी वाला कदम है। समिति ने नियामकीय संरचनाओं के समेकन एवं उन्हें मजबूत बनाने के भी सुझाव दिए।
दुनिया उस समय वैश्विक वित्तीय संकट से पूरी तरह नहीं उबर पाई थी जिसे देखते हुए समिति ने वृहद स्तर पर सूझबूझ सुनिश्चित करने और निगरानी कार्यों के लिए वित्तीय क्षेत्र पर्यवेक्षक एजेंसी (एफएसओए) की स्थापना की सिफारिश की। अततः समिति ने वित्तीय लोकपाल का कार्यालय (ओएफओ) की स्थापना का भी सुझाव दिया। इसमें मौजूदा नियामकों के सभी कार्यालयों को शामिल करने का प्रस्ताव दिया गया।
इन समितियों की सिफारिश पर कदम उठाते हुए वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग (एफएसएलआरसी) ने 2011 में वित्तीय नियामकीय ढांचे का प्रस्ताव दिया, जिसमें निम्नलिखित एजेंसियां शामिल की गईंः मौद्रिक प्राधिकरण, बैंकिंग नियामक एवं भुगतान प्रणाली नियामक के रूप में केंद्रीय बैंक शेष वित्तीय क्षेत्र के लिए एक एकीकृत नियामक जमा बीमा-सह समाधान एजेंसी सार्वजनिक ऋण प्रबंधन एजेंसी वित्तीय शिकायत समाधान एजेंसी वित्तीय क्षेत्र के लिए अपील पंचाट जिन मामलों में विभिन्न एजेंसियों की भूमिका होती है उनमें संयोजन, प्रणालीगत जोखिम, वित्तीय विकास एवं अन्य विषयों के लिए ढांचा की स्थापना (वित्तीय (स्थायित्व एवं विकास परिषद या एफएसडीसी/ एफएसडीसी की तरह) एफएसएलआरसी ने यह भी सुझाव दिया कि केंद्रीय बैंक को केवल मौद्रिक नीति पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
2008 में गठित विशेषज्ञ समिति के अध्यक्ष मगर अब भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर ने 2014 में इन सुझावों और 2008 के अपने सुझावों का कड़ा विरोध किया। उन्होंने कहा, ‘किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले हमें पहले स्थिति का जायजा लेना चाहिए। हमें धीरे-धीरे कदम बढ़ाना चाहिए और यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि बाद में कोई न कोई हालात संभालने के लिए मौजूद रहेगा। अगर कोई चीज ठीक ढंग से काम कर रही है तो उसे बदलने की चेष्टा नहीं की जानी चाहिए।’ हैरान रह गए? इसमें हैरान होने वाली कोई बात नहीं है।
अफसरशाह प्रायः अपने अधिकार क्षेत्र में कमी किए जाने या इसमें हस्तक्षेप को पसंद नहीं करते हैं! इस पर आगे किसी तरह का विचार करने से पहले चीन में नियामकीय ढांचे के उदय पर विचार करें। इन विषयों पर सोचने की शुरुआत 2017-18 में हुई। हाल में जो निर्णय लिए गए हैं वे इसी शुरुआत का नतीजा हैं। ये निर्णय उनकी शुरुआती परिस्थितियों, उनके द्वारा महसूस की गई जरूरतों, विफलताओं के साथ उनके अनुभव और इन चीजों को कैसा किया जाना चाहिए इस पर वैश्विक समसामयिक ज्ञान को परिलक्षित करते हैं।
वित्तीय स्थायित्व एवं विकास का लक्ष्य हासिल करने के प्रयासों की रूप-रेखा तैयार करने, आपसी समन्वय और किए जा रहे प्रयासों पर नजर रखने के लिए सेंट्रल कमीशन फॉर फाइनैंस की स्थापना की जाएगी। यह नया आयोग मौजूदा वित्तीय स्थायित्व एवं विकास समिति की जगह लेगा। प्रतिभूति बाजार का नियामक यानी चाइना सिक्योरिटीज रेग्युलेटरी कमीशन (सीएसआरसी) प्रतिभूति बाजार का संचालन करता रहेगा मगर इसके अधिकारों के दायरे में कॉर्पोरेट बॉन्ड आ जाएंगे। इनमें स्थानीय सरकारों द्वारा आयोजित बॉन्ड भी शामिल होंगे। बाकी सभी चीजें वित्तीय क्षेत्र की निगरानी करने वाली नई एजेंसी नैशनल ब्यूरो ऑफ फाइनैंशियल रेग्युलेशन (एनबीएफआर) के दायरे में आएंगी।
यह एजेंसी चाइना बैंकिंग ऐंड इंश्योरेंस रेग्युलेटरी कमीशन (सीबीआईआरसी) की जगह लेगी और चीन के केंद्रीय बैंक पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना (पीबीओसी) के कुछ निगरानी से जुड़े कार्य भी इसके दायरे में आ जाएंगे। इनमें वित्त-तकनीक क्षेत्र की कंपनियों से जुड़े विषय भी आएंगे। यह ब्यूरो उपभोक्ता सुरक्षा मामले भी देखेगा। ये सुधार मौद्रिक नीति पर भी नजर रखेंगे।
भारत में इस मोर्चे पर आखिरी गतिविधि तब देखी गई थी जब नैशनल स्पॉट एक्सचेंज लिमिटेड प्रकरण के बाद वायदा बाजार आयोग (फॉरवर्ड मार्केट्स कमीशन) का सेबी के साथ विलय हो गया था। इसके अलावा तो यह मामला केवल चर्चा का विषय ही बनकर रह गया है। वित्तीय आर्थिक नीति से जुड़े तमाम पहलुओं के साथ भारत में बुनियादी सभी जानकारियां उपलब्ध हैं। बस उन लोगों की जरूरत है जो क्रियान्वयन की इस चुनौती को आगे बढ़ाएंगे।
(लेखक सीपीआर में मानद प्राध्यापक एवं पूर्व अफसरशाह हैं।)